सब्सक्राइब करें
Hindi News ›   Columns ›   Opinion ›   This time remembering my mother, a profession and the respect that comes with it

बचते-बचते: इस बार मां को याद करते हुए, एक पेशा और उससे जुड़ा सम्मान

Ramchandra Guha रामचंद्र गुहा
Updated Sun, 14 Dec 2025 07:42 AM IST
सार
इस बार मां को याद करते हुए: मां के निधन के बाद मुझे फिर से यह अहसास हुआ कि पढ़ाना और खासकर स्कूलों में, शायद सबसे सम्मानजनक पेशा है। शिक्षक जिस तरह अपने आप को दूसरों में बांटते और साझा करते हैं, वह अन्य पेशों में नहीं देखा जाता।
विज्ञापन
loader
This time remembering my mother, a profession and the respect that comes with it
मां और पिताजी के साथ की एक पुरानी तस्वीर - फोटो : अमर उजाला

विस्तार
Follow Us

इस कॉलम में मैं अपने परिवार के बारे में लिखने से बचता हूं, लेकिन मुझे लिखना पड़ रहा है। इसकी वजह यह है कि पिछले सप्ताह मेरी मां का देहांत हो गया। पिता का निधन 12 वर्ष पहले हुआ था। हालांकि मेरे अभिभावक प्रसिद्ध नहीं रहे, लेकिन वे एक आदर्श माता-पिता जरूर थे। इसके अलावा भी कुछ अन्य बातें हैं, जिनकी वजह से उन्हें याद रखा जा सकता है। मेरे माता-पिता उस पीढ़ी से थे, जो देशभक्ति के दावों की जगह शांति के साथ काम करने में विश्वास करते थे। मैं उनकी जिन बातों के बारे में लिख रहा हूं, उनमें पाठक अपने परिचितों, माता–पिता, चाचा–चाची, शिक्षक या डॉक्टर की झलक देख सकते हैं। वह शालीनता और नैतिक सदाचार की कसौटी पर खरे उतरते थे, जिसका आजकल अभाव दिखाई पड़ता है।


मेरे पिता सुब्रमण्यम रामदास गुहा का जन्म 1924 में ऊटकमंड नामक एक पहाड़ी नगर में हुआ था। 23 साल बाद वह विशालाक्षी नारायणमूर्ति नाम की एक युवती से मिले और उन्हें प्यार हो गया। उस वक्त वह भारतीय विज्ञान संस्थान में पीएचडी कर रहे थे। उनके सहपाठी महान भौतिक विज्ञानी जीएन रामचंद्रन थे। विदेश में पोस्ट डॉक्टरल फेलोशिप उन्हें मिल सकती थी, लेकिन उन्होंने अपने दिल की सुनी और वह विशालाक्षी के पिता के साथ देहरादून के फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (एफआरआई) में नौकरी कर ली। तीन साल बाद 1948 में उन्होंने मेरी मां से विवाह कर लिया। रिटायर होने तक उन्होंने वहीं काम किया। पिता सार्वजनिक सेवा करने वाले परिवार से आते थे। भाई वायुसेना में और बहन सेना की नर्सिंग सेवा में थीं। उनके एक चाचा और एक बहनोई भी उनकी तरह वैज्ञानिक थे, जो अपना शोध जनहित को ध्यान में रखकर करते थे। पिता ‘भारत सरकार’ शब्द का प्रयोग गहरे सम्मान के साथ करते थे। उनका मानना था कि राज्य की संपत्ति का कभी भी, किसी भी परिस्थिति में निजी उपयोग नहीं करना चाहिए। वह सरकारी गाड़ी के उपयोग को गलत मानते थे और रोज साइकिल से लैब आते-जाते थे।


सरकारी नौकरी के प्रति समर्पित होने के अलावा मेरे माता-पिता सामाजिक बुराई और पूर्वाग्रहों के खिलाफ रहे। उनके समय में एफआरआई के वैज्ञानिकों में ब्राह्मणों का प्रभुत्व होता था। वैज्ञानिकों के पुत्र अपने वंश पर गर्व किया करते। उनके पिता और वे हर साल अपना जनेऊ बदलते थे, लेकिन मेरे पिता ने उच्च जाति का प्रतीक माने जाने वाले पवित्र धागे को पहनने से मना कर दिया और कभी मुझसे भी पहनने को नहीं कहा। पिता का जाति की मानसिकता को बढ़ावा न देने का कारण उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि रही। उनके पिता के भाई आर गोपालस्वामी अय्यर (1878–1943) एक अग्रणी सामाजिक सुधारक थे। उन्होंने मैसूर राज्य में अछूतों की मुक्ति के आंदोलन का नेतृत्व किया था। जब पिता बंगलूरू के चामराजपेट इलाके में अपने संयुक्त परिवार के साथ रहते थे, तो वह देखते थे कि उनके चाचा सुबह-सुबह साइकिल पर सवार होकर बंगलूरू शहर और उसके आसपास दलित बच्चों के उन छात्रावासों का दौरा करते, जिन्हें वह चलाते थे।

मां परंपरावादी ब्राह्मण परिवार से थीं, लेकिन मद्रास और दिल्ली में पढ़ाई तथा देहरादून के एक विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी के दौरान उन्होंने किसी का मूल्यांकन उसकी आय और सामाजिक हैसियत के आधार पर नहीं किया। मेरे पिता खुशमिजाज थे। उनके 30 पीएचडी छात्रों में से एक का नाम वीएन मुखर्जी था। जिस दिन आगरा विश्वविद्यालय से यह सूचना मिली कि वीएन मुखर्जी ने वाइवा पास कर लिया है, तो पिता ने उन्हें अगले दिन काम पर जाने से पहले सुबह घर आने को कहा। मुखर्जी ने जब घर की घंटी बजाई तो मैं और मेरी बहन वाणी (उस वक्त 10 और 12 वर्ष के थे) ने दरवाजा खोला। पिता के निर्देशानुसार हमने उनका स्वागत ‘गुड मॉर्निंग, डॉ. मुखर्जी!’ कहकर किया, जबकि पिछली शाम तक वह बस ‘मिस्टर मुखर्जी’ थे। उनका चेहरा आनंद और उल्लास से चमक गया।

टीचर होने की वजह से मां ने पिता की तुलना में अधिक लोगों के जीवन को छुआ। दो दशकों से अधिक समय तक उन्होंने देहरादून छावनी स्थित ‘कैम्ब्रियन हॉल’ नामक स्कूल में हिंदी, अंग्रेजी, अर्थशास्त्र और भूगोल पढ़ाया। वह अपने विद्यार्थियों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करती थीं। उनके छात्र उन्हें प्यार करते और मैट्रिक करने के वर्षों बाद भी शिक्षक दिवस पर दिन भर फोन आते। उम्र का अर्द्धशतक पूरा कर चुके कई पूर्व छात्र उनसे मिलने आते और अपनी ‘गुहा मैम’ के लिए फूलों का गुलदस्ता लाते। 2001 में मैं श्रीलंका की यात्रा पर गया था। मेरी मुलाकात भारत उच्चायोग में प्रतिनियुक्ति पर तैनात एक पुलिस अधिकारी से हुई। मेरे बारे में जानने के बाद उन्होंने कहा, “मैं गुहा मैम का पसंदीदा छात्र था।”

करीब 15 साल पहले मैं दिल्ली के एक रेस्त्रां में एक संपादक के साथ खाना खा रहा था। वेटर ने एक कागज दिया और कहा, दूसरी मेज पर बैठे युवक ने दिया है। संपादक ने टोका, 'यह आपके किसी प्रशंसक का होगा'। नोट में लिखा था कि उस युवक की मां, जो पुणे में रहती हैं, को उनकी मां ने पढ़ाया था। वे उन्हें सम्मान के साथ याद करती हैं। मां के निधन के बाद मुझे फिर से यह अहसास हुआ कि पढ़ाना और खासकर स्कूलों में, शायद सबसे सम्मानजनक पेशा है। शिक्षक जिस तरह अपने आपको दूसरों में बांटते और साझा करते हैं, वह अन्य पेशों में नहीं देखा जाता। मां को रिटायर हुए 41 साल हो गए थे। मुझे बहुत सारे संदेश मिल रहे हैं, जिनको मां ने पढ़ाया था और वह आगे चलकर सफल अध्यापक, अभिनेता, सैन्य अधिकारी, लड़ाकू पायलट, लेखक, डॉक्टर और कॉरपोरेट अधिकारी बने।
मेरे पिता का निधन 25 दिसंबर, 2012 को, 88 वर्ष की आयु में हुआ था। अंतिम दिनों में उन्हें अस्पताल लेकर जो दो पड़ोसी गए थे, उनका नाम अब्बास और राधाकृष्णन था। उनके बाद मां बारी-बारी से मेरी बहन और मेरे साथ रहने लगीं। बुजुर्ग अवस्था में वे परिवार, मित्रों और पूर्व छात्रों के साथ रहकर खुश थीं। देहरादून में उनकी दो सहकर्मी थीं, जिनकी सलाह उनके लिए अहमियत रखती थी, वे डेजी बटलर व्हाइट और निगहत रहमान थीं। बंगलूरू आवास के दौरान उनके प्रिय मित्रों में से एक दंपति लईक और जफर फुतहेली थे।

मेरा जन्म कई विशेष अधिकारों के साथ हुआ। हिंदू के रूप में, एक ब्राह्मण के रूप में, ऐसी संस्कृति में जो जातिगत भावना से ग्रस्त है, एक पुरुष के रूप में, ऐसे समाज में जिसे पितृसत्ता ने गहराई से जकड़ रखा है और एक अंग्रेजी में निपुण व्यक्ति के रूप में, ऐसे देश में जहां, यह भाषा अनेक द्वार खोलती है। इन सुविधाओं ने मेरे जीवन की यात्रा को कहीं अधिक आसान बना दिया। फिर भी, मेरे माता–पिता की मिसाल ने मुझे यह समझने में मदद की कि अधिकांश अन्य भारतीय कितने कम विशेषाधिकारों के साथ जीवन जीते हैं। अपने माता–पिता के जीवन को मुड़कर देखता हूं तो मुझे साफ नजर आता है कि उन्होंने कैसे शांति, बिना दिखावे और भेदभाव के जीवन जीया।

-लेखक जाने-माने इतिहासकार हैं।
विज्ञापन
विज्ञापन
Trending Videos
विज्ञापन
विज्ञापन

Next Article

Election

Followed