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जानना जरूरी है: क्या है माता-पिता की सेवा का फल; संस्कृति के पन्नाें से जानें
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सार
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सांकेतिक तस्वीर।
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अमर उजाला प्रिंट
विस्तार
कुरुक्षेत्र में सुकर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसके माता-पिता दोनों अत्यंत वृद्ध थे। सुकर्मा को धर्म का पूर्ण ज्ञान था। वह श्रद्धापूर्वक दिन-रात माता-पिता की हर तरह से सेवा करता था। उसी समय पिप्पल नाम के कश्यप कुल में एक ब्राह्मण हुए। उन्होंने ज्ञान पाने के लिए तीन हजार वर्ष तक कठोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर देवताओं ने पिप्पल से वरदान मांगने को कहा। पिप्पल बोले, ‘मैं चाहता हूं कि मैं विद्याधर हो जाऊं और यह सारा जगत मेरे वश में हो जाए।’ देवताओं ने पिप्पल को विद्याधर होने का आशीर्वाद दे दिया।
एक दिन पिप्पल ने देवताओं के दिए वरदान की जांच करने का विचार किया। वह जिस व्यक्ति का चिंतन करते, वह उनके वश में हो जाता था। इस तरह पिप्पल को अपनी शक्तियों पर अहंकार हो गया। एक दिन पिप्पल के मन का भाव जानकर एक सारस पक्षी ने उनसे कहा, ‘ब्राह्मण, तुम्हें अहंकार नहीं करना चाहिए, मेरे विचार से तुम्हारी बुद्धि मूढ़ है। कुंडल में सुकर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता है। संसार में उसके समान ज्ञानी दूसरा नहीं है। उसने दान नहीं दिया; ध्यान, होम और यज्ञ भी नहीं किया। वह न तीर्थ करने गया और न उसने गुरु की उपासना की। वह केवल अपने माता-पिता की सेवा करता है और इसी से उसे संपूर्ण शास्त्रों का ज्ञान हो गया है।’ सारस की बात सुनकर पिप्पल सुकर्मा के पास पहुंचे, तो देखा कि सुकर्मा सचमुच अपने माता-पिता की सेवा में लगे थे। सुकर्मा ने देखते ही पिप्पल का स्वागत-सत्कार किया।
सुकर्मा ने कहा, ‘मुझे पता है कि आपको सारस ने मेरे पास ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजा है। सारस के रूप में जिन्होंने आपसे बात की थी, वे साक्षात ब्रह्मा थे।’
इसके बाद पिप्पल ने कहा, ‘ब्रह्मन। मैंने सुना है कि सारा जगत आपके अधीन है। मुझे अपनी शक्ति दिखाइए।’ सुकर्मा ने देवताओं का स्मरण किया, तो समस्त देवता वहां उपस्थित हो गए और उन्होंने सुकर्मा से पूछा, ‘ब्रह्मन। तुमने हमें क्यों याद किया है?’ सुकर्मा बोला, ‘विद्याधर पिप्पल, मेरे अतिथि हैं। यह प्रमाण चाहते हैं कि संपूर्ण विश्व मेरे वश में है। इन्हें विश्वास दिलाने के लिए मैंने आपका आह्वान किया है। अब आप अपने-अपने धाम लौट जाइए।’ वह यह सुनकर देवता बोले, ‘सुकर्मा, हमारा दर्शन निष्फल नहीं होता। तुम जो चाहो, मांग लो।’ सुकर्मा ने कहा, ‘मैं सदा अपने माता-पिता की भक्ति करता रहूं तथा इन्हें अंत समय में श्रीविष्णु-धाम में स्थान प्राप्त हो।’ देवता ‘तथास्तु’ कहकर अंतर्धान हो गए।
पिप्पल ने सुकर्मा से कहा, ‘मैंने आपको तपस्या करते नहीं देखा, तो फिर आपकी शक्ति का रहस्य क्या है?’ सुकर्मा ने कहा, ‘विप्रवर! मैंने यजन-याजन, धर्मानुष्ठान, ज्ञानोपार्जन और तीर्थ-सेवन कुछ नहीं किया। मैं केवल पिता और माता की सेवा-पूजा करता हूं। मैं अपने हाथ से उन्हें स्नान और भोजन आदि कराता हूं। मुझे तपस्या, तीर्थ-यात्रा तथा पुण्य-कर्मों से क्या प्रयोजन है? विद्वान पुरुष संपूर्ण यज्ञ का अनुष्ठान करके, जो फल प्राप्त करते हैं, वही मैंने पिता-माता की सेवा से पा लिया है। जहां माता-पिता रहते हों, वहीं पुत्र के लिए गंगा, गया और पुष्कर हैं। जो पुत्र माता-पिता के जीते-जी उनकी सेवा करता है, उसके ऊपर देवता तथा महर्षि भी प्रसन्न होते हैं। माता-पिता को स्नान कराते समय जब उनके शरीर से जल के छींटे उचटकर पुत्र के अंगों पर पड़ते हैं, तो उसे संपूर्ण तीर्थों में स्नान का फल प्राप्त हो जाता है। वृद्ध, असमर्थ, रोगी माता-पिता की सेवा करने वाले पुत्र से भगवान श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं।’ ‘इसके विपरीत दीन, वृद्ध, दुखी व रोगी माता-पिता को त्याग देने वाला पुत्र नरक में जाता है। मां-बाप के बुलाने पर भी उनके पास नहीं जाने वाला मूर्ख पुत्र, विष्ठा खाने वाला कीड़ा बनता है। कटु-वचन बोलकर माता-पिता की निंदा करने वाला आजीवन कष्ट पाता है। अत: हे पिप्पल! पुत्र के लिए माता-पिता से बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ नहीं है। इसलिए मैं प्रतिदिन माता-पिता की सेवा-पूजा में लगा रहता हूं। इसी से तीनों लोक मेरे वश में हो गए हैं। इसी से मुझे ईश्वर के प्राचीन तथा अर्वाचीन तत्व का ज्ञान प्राप्त हुआ है। मेरी सर्वज्ञता में माता-पिता की सेवा ही कारण है। माता-पिता ही पुत्र के लिए धर्म, तीर्थ, मोक्ष, जन्म के उत्तम फल, यज्ञ और दान आदि सब कुछ हैं।’ सुकर्मा की ज्ञानपूर्ण बातें सुनकर पिप्पल का अहंकार दूर हो गया।