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Gambhir Photos: डगआउट में गंभीर..हाथ में गेंद, एक आदत जिसने सबका ध्यान खींचा; ऐसा क्यों करते हैं भारतीय कोच?

स्पोर्ट्स डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली Published by: स्वप्निल शशांक Updated Sun, 14 Dec 2025 03:20 PM IST
सार

आज के दौर में कोच सिर्फ रणनीतिकार नहीं, ब्रांड मैनेजर भी होते हैं, लेकिन गंभीर ने कभी छवि अलग से दिखाने की कोशिश नहीं की। वह जैसे हैं, वैसे ही रहते हैं। उनके हाथ में गेंद क्या कोई संदेश देती है? आइए जानते हैं...

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Gautam Gambhir And The Ever-Present Cricket Ball: Habit, Symbol Or Statement?
गंभीर - फोटो : ANI
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विस्तार
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खेल की दुनिया में कोच सिर्फ रणनीति नहीं बनाते, वे अपनी आदतों से भी पहचाने जाते हैं। कभी ये आदतें मामूली होती हैं, तो कभी कैमरों और सोशल मीडिया की वजह से प्रतीक बन जाती हैं। फुटबॉल में सर एलेक्स फर्ग्यूसन की च्युइंग गम और पेप गार्डियोला की स्लीव खींचने की आदत अब दंतकथा बन चुकी है। क्रिकेट में ये चीजें अक्सर कम होती हैं। राहुल द्रविड़ का नोटबुक, आशीष नेहरा का सीमा रेखा तक जाकर चिल्लाना, ये सब बस छोटी-छोटी चीजें हैं। लेकिन फिर आते हैं गौतम गंभीर…और उनके साथ हमेशा रहती है 'एक क्रिकेट बॉल'।
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डगआउट में गंभीर और गेंद: संयोग या पहचान?
अगर आप गंभीर को डगआउट में ध्यान से देखें, तो एक चीज जो दिखती है, वह है क्रिकेट गेंद। गेंद कभी हाथ में या कभी टेबल पर रखी हुई या फिर कभी चेहरे के पास या कभी जेब में। हर फॉर्मेट, हर मैच, हर मैदान में गेंद गंभीर के करीब होती है। यहीं से सवाल शुरू होता है।

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क्या हम जरूरत से ज्यादा मतलब निकाल रहे हैं?
हो सकता है। आखिर एक कोच का गेंद पकड़ना कौन-सी बड़ी बात है? वही गेंद, जिससे खिलाड़ी घंटों जूझते हैं, लेकिन सवाल ये भी है कि गौतम गंभीर को कब किसी ने बिना विश्लेषण के छोड़ा है? उनकी खामोशी भी बयान बन जाती है। उनकी नजर भी फैसला मानी जाती है और उनकी चुप्पी भी सवालिया निशान।

RO-KO का मुद्दा: तारीफ न करना भी खबर
दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ भारत की वनडे सीरीज जीत के बाद, जब गंभीर ने सार्वजनिक रूप से रोहित शर्मा और विराट कोहली का नाम नहीं लिया, तो वही चुप्पी चर्चा का विषय बन गई। पूर्व बल्लेबाज रॉबिन उथप्पा ने इसे अजीब बताया। बस, फिर क्या था...अटकलों की बाढ़ आ गई। गंभीर-कोहली समीकरण को फिर से कुरेदा गया। हालांकि गंभीर कई बार कह चुके हैं कि अब हम एक ही टीम के लिए खेल रहे हैं, लेकिन सोशल मीडिया को संदर्भ नहीं चाहिए, उन्हें सिर्फ क्लिप चाहिए।

जब एक नजर बन गई संदेश: अर्शदीप नो-बॉल मामला
अर्शदीप सिंह के सात वाइड वाले ओवर पर गंभीर की झुंझलाहट कैमरे में कैद हो गई। मैच के बाद हाथ मिलाते वक्त उनकी एक नजर को सार्वजनिक डांट बना दिया गया। तुलना हुई राहुल द्रविड़ बनाम गंभीर।  संवेदनशील बनाम सख्त। सच क्या था? कोई नहीं जानता, लेकिन वीडियो वायरल हो गया। बस यही काफी था।

जब हार पर सवाल और जीत पर सफाई देनी पड़े
भारत की टेस्ट सीरीज हार के बाद आलोचना हुई। वनडे जीत के बाद गंभीर ने शुभमन गिल की गैरमौजूदगी का जिक्र किया। कुछ को ये बहाना लगा, कुछ को तथ्य। हालांकि, गंभीर अडिग रहे। उनका रवैया हमेशा एक जैसा रहा है- कभी कोई आसान शब्द नहीं। एक मौके पर उन्होंने कमरे में मौजूद लोगों को याद दिलाया कि वह वही कोच हैं जिन्होंने चैंपियंस ट्रॉफी और एशिया कप जीता है। यह बात भरोसा दिलाने से ज्यादा, विरोध और बचाव की भावना जैसी लगी। कई बार वह 'हम बनाम वह' वाले उसी पुराने रुख की ओर झुकते दिखे, जिसे भारतीय क्रिकेट पहले भी देख चुका है।


 

क्या यह गेंद कुछ कह रही है?
इस पूरे माहौल के बीच, गौतम गंभीर के आसपास मौजूद क्रिकेट बॉल अनजाने में ही एक प्रतीक जैसी लगने लगती है। एक ऐसा सहारा, जिसे हाथ में पकड़कर जमीन से जुड़े रहने का अहसास होता है। एक जाना-पहचाना वजन। राय, आलोचना और शोर-शराबे की दुनिया के बीच कुछ ठोस, कुछ वास्तविक। कोच अक्सर ऐसे ही एंकर तलाशते हैं...छोटी-छोटी आदतें, जो लंबे इंतजार और लगातार देखने के दौरान उन्हें स्थिर रखती हैं। गंभीर के लिए शायद वह सहारा सिर्फ यह गेंद है, लेकिन प्रतीकात्मकता अक्सर बिना बुलाए भी चिपक जाती है।


 

क्रिकेट बॉल सख्त होती है। निर्दयी होती है। यह उम्मीदों के आगे नहीं झुकती। यह सटीकता का इनाम देती है और जरा-सी हिचकिचाहट की सजा देती है। यह आराम के लिए नहीं बनी होती। यही खूबियां शायद कुछ ज्यादा ही उस छवि से मेल खाती हैं, जिसके साथ गंभीर को एक कोच के तौर पर देखा जाता है, समझौता न करने वाले, सीधे-सपाट और नरमी से दूर।

विडंबना यह है कि गंभीर को लेकर जो कुछ भी कहा-बुना जाता है, वह ज्यादातर निर्देशों से नहीं, बल्कि अंदाजों से जन्म लेता है। उन्होंने अपनी छवि को संवारने में कभी खास दिलचस्पी नहीं दिखाई, न शब्दों को नरम करने की कोशिश, न कोचिंग की घुमा-फिराकर कही जाने वाली भाषा। हर वाक्य को किसी सोच या टकराव का सबूत मान लिया जाता है और हर खामोशी में कोई न कोई मतलब खोज लिया जाता है।


 

यह कहना गलत नहीं है कि गंभीर आलोचना से परे हैं। खासकर टेस्ट क्रिकेट में नतीजों ने सवाल खड़े किए हैं और इस स्तर पर फैसलों पर सवाल उठना तय भी है। आज के दौर में कोच सिर्फ रणनीतिकार नहीं, ब्रांड मैनेजर भी होते हैं, लेकिन गंभीर ने कभी छवि गढ़ने की कोशिश नहीं की। वह जैसे हैं, वैसे ही रहते हैं और जब आलोचनाओं का शोर बढ़ता है, वह गेंद नीचे नहीं रखते। शायद वही उनकी सबसे बड़ी पहचान है। वैसे ही प्रतिक्रिया देते हैं, जैसे देते रहे हैं। और जब शोर बढ़ता है, तो वह गेंद हाथ से नहीं छोड़ते।

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