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क्यों शाहरुख खान के साथ कभी काम नहीं कर पाए राम गोपाल वर्मा? इंडस्ट्री में आए बदलावों पर फिल्ममेकर ने की बात
सार
Ram Gopal Varma Exclusive Interview: फिल्ममेकर राम गोपाल वर्मा ने अमर उजाला से बातचीत करते हुए अपनी फिल्मों और जिंदगी के अनुभवों को साझा किया है। चलिए आपको बताते हैं उन्होंने क्या कुछ कहा।
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राम गोपाल वर्मा
- फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
फिल्ममेकर राम गोपाल वर्मा ने करियर और जिंदगी से जुड़े कई पहलुओं पर अमर उजाला से खास बातचीत की है। बातचीत के दौरान उन्होंने ये भी बताया कि आज के समय में निर्देशक की सबसे बड़ी जिम्मेदारी उन्हें क्या लगती है? चलिए आपको बताते हैं राम गोपाल वर्मा ने क्या कुछ कहा।
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पिछले 35 वर्षों में फिल्म इंडस्ट्री में क्या बदलाव आए हैं?
एक तरफ यह अच्छी बात है कि कॉरपोरेट कल्चर आने से फिल्ममेकिनग में अनुशासन और जिम्मेदारी बढ़ी है। लोग अब अपने काम के प्रति जवाबदेह हैं। यह बदलाव बहुत जरूरी था। लेकिन असली समस्या तब शुरू होती है जब एक क्रिएटिव फैसले पर कई लोग बैठकर चर्चा करते हैं। हर किसी का सोचने का तरीका अलग होता है हर किसी की पसंद अलग होती है। ऐसे में टकराव होना तय है और फिर क्रिएटिविटी धीरे धीरे कम होने लगती है।
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राम गोपाल वर्मा
- फोटो : इंस्टाग्राम-@rgvzoomin
दूसरी ओर अगर पूरी फिल्म का कंट्रोल सिर्फ एक ही व्यक्ति को दे दिया जाए तो वह भी खतरनाक हो सकता है। इससे वह व्यक्ति जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वासी या अहंकारी हो सकता है। याद रखिए फिल्म बनाना बहुत महंगा काम है इसमें समय पैसा और कई लोगों की प्रतिष्ठा जुड़ी होती है। इसलिए एक ही व्यक्ति पर सबकुछ छोड़ देना भी सही नहीं है। इसलिए मैं मानता हूं कि कॉरपोरेट सिस्टम एक जरूरी बुराई है। उसमें कमियां हैं लेकिन फायदे भी हैं। और यही बात मैं इंडिपेंडेंट फिल्ममेकिनग पर भी लागू करता हूं। उसमें भी खामियां हैं। संतुलन ही सबसे जरूरी है। ना पूरी आजादी सही है ना पूरा कंट्रोल। सही फिल्म वहीं बनती है जहां क्रिएटिविटी और जिम्मेदारी के बीच सही संतुलन हो।
आज के समय में निर्देशक की सबसे बड़ी जिम्मेदारी आपको क्या लगती है?
देखिए फिल्में किसी तय नियम से नहीं बनतीं। फिल्म को दिशा देने वाला असली व्यक्ति निर्देशक होता है। 'एनिमल' सफल हुई इसलिए उसकी चर्चा हो रही है। अगर वही फिल्म असफल होती तो लोग उसे आसानी से खारिज कर देते। सफलता और असफलता नजरिए को बदल देती है लेकिन निर्देशक की सोच अपनी जगह रहती है।
सिनेमा में कोई तय फार्मूला नहीं होता। निर्देशक ही तय करता है कि किस दिशा में जाना है। असली परीक्षा तब होती है जब फिल्म सामने आ जाती है। मेरे लिए सबसे अहम बात है निर्देशक की ईमानदारी और लगन। अगर वह सच्चे मन से काम कर रहा है तो उसे पूरी आजादी मिलनी चाहिए। फिल्म की असली ताकत उसकी सोच और संवेदनशीलता में होती है। यही बात मुझे सबसे महत्वपूर्ण लगती है।
कभी लगा बतौर निर्देशक आप संतुष्ट नहीं थे लेकिन मजबूरी में आगे बढ़ना पड़ा?
हां होता है। निर्देशक की असली जिम्मेदारी है कि वह दूसरों को अपनी सोच समझा सके। लेकिन जब कॉरपोरेट प्रोड्यूसर एक्टर और डायरेक्टर जैसे कई लोग फैसले लेते हैं तो हर किसी को लगता है कि वही सही है। यही टकराव शुरू करता है। अगर कॉरपोरेट हावी हो जाए तो निर्देशक जुनून खो देता है और बस कॉपी करने लगता है। लेकिन पैसा उन्हीं का होता है इसलिए उनकी बात भी जरूरी मानी जाती है। अंत में निर्देशक को अपनी विजन समझाने की क्षमता होनी चाहिए। अगर वह समझा नहीं पा रहा तो शायद विजन है ही नहीं।
आज के समय में निर्देशक की सबसे बड़ी जिम्मेदारी आपको क्या लगती है?
देखिए फिल्में किसी तय नियम से नहीं बनतीं। फिल्म को दिशा देने वाला असली व्यक्ति निर्देशक होता है। 'एनिमल' सफल हुई इसलिए उसकी चर्चा हो रही है। अगर वही फिल्म असफल होती तो लोग उसे आसानी से खारिज कर देते। सफलता और असफलता नजरिए को बदल देती है लेकिन निर्देशक की सोच अपनी जगह रहती है।
सिनेमा में कोई तय फार्मूला नहीं होता। निर्देशक ही तय करता है कि किस दिशा में जाना है। असली परीक्षा तब होती है जब फिल्म सामने आ जाती है। मेरे लिए सबसे अहम बात है निर्देशक की ईमानदारी और लगन। अगर वह सच्चे मन से काम कर रहा है तो उसे पूरी आजादी मिलनी चाहिए। फिल्म की असली ताकत उसकी सोच और संवेदनशीलता में होती है। यही बात मुझे सबसे महत्वपूर्ण लगती है।
कभी लगा बतौर निर्देशक आप संतुष्ट नहीं थे लेकिन मजबूरी में आगे बढ़ना पड़ा?
हां होता है। निर्देशक की असली जिम्मेदारी है कि वह दूसरों को अपनी सोच समझा सके। लेकिन जब कॉरपोरेट प्रोड्यूसर एक्टर और डायरेक्टर जैसे कई लोग फैसले लेते हैं तो हर किसी को लगता है कि वही सही है। यही टकराव शुरू करता है। अगर कॉरपोरेट हावी हो जाए तो निर्देशक जुनून खो देता है और बस कॉपी करने लगता है। लेकिन पैसा उन्हीं का होता है इसलिए उनकी बात भी जरूरी मानी जाती है। अंत में निर्देशक को अपनी विजन समझाने की क्षमता होनी चाहिए। अगर वह समझा नहीं पा रहा तो शायद विजन है ही नहीं।
राम गोपाल वर्मा
- फोटो : अमर उजाला ब्यूरो, मुंबई
क्या कभी निर्देशक की आवाज दब जाती है? क्या इस स्थिति को कंट्रोल करने की जरूरत है?
अभी के हालात में मुझे ऐसा नहीं लगता। क्योंकि हर पक्ष का अपना एजेंडा और अपना उद्देश्य होता है। कॉरपोरेट प्लेटफॉर्म के डेटा पर चलते हैं। कौन सा शो चल रहा है किस एक्टर की रीच है किस तरह की कहानियों को रिस्पॉन्स मिल रहा है। उनकी सोच वहीं से बनती है। लेकिन निर्देशक अपनी समझ के आधार पर दर्शकों की बात करता है। इन दो सोचों का मिलना मुश्किल है।
इसलिए उन्हें उस सिस्टम के प्रति वफादार रहना होगा जिसे उन्होंने बनाया है। वे निर्देशक की सेवा करने के लिए नहीं हैं। उनका काम है अपने प्लेटफॉर्म की जरूरतों को पूरा करना। यही उनका अधिकार है और यही उनकी जिम्मेदारी भी।
यह खबर भी पढ़ें: Trending News: दिनभर चर्चा में रहे राज-सामंथा, शादी टलने के बाद पहली बार दिखे पलाश; पढ़ें आज की बड़ी खबरें
आपने इतने वर्षों तक इंडस्ट्री में काम किया है। नए जमाने के एक्टर्स में आपको क्या बदलाव दिखता है?
मेरे हिसाब से आज की नई पीढ़ी के अभिनेता ज्यादा तैयार हैं। वो तकनीक समझते हैं और अलग अलग तरह की भूमिका निभा सकते हैं। पहले ज्यादातर फिल्में एक ही ढर्रे पर बनती थीं लेकिन अब कहानियों में बहुत बदलाव आया है। आज के अभिनेता बचपन से ही तरह तरह की फिल्में देखते आए हैं। 'एनिमल', 'द कश्मीर फाइल्स', 'द केरल स्टोरी', 'सैराट' जैसी फिल्में पहले के जमाने में नहीं बनती थीं। इन फिल्मों ने नए अभिनेताओं को और सोचने पर मजबूर किया और उनकी अभिनय क्षमता भी बढ़ाई।
न्यू जेनेरेशन में से क्या कोई ऐसा एक्टर है जिसके साथ आप काम करना चाहेंगे अगर मौका मिले?
सच कहूं तो नहीं। मैंने हमेशा स्क्रिप्ट और कैरेक्टर की जरूरत के हिसाब से कास्टिंग की है। सिर्फ एक व्यक्ति ऐसा है जिसके साथ मैं दिल से काम करना चाहता था अमिताभ बच्चन। कारण बहुत सीधा है वह इकलौते ऐसे एक्टर हैं जिनकी फिल्म देखने के लिए मैं टिकट खरीदने लाइन में लगा था। मेरे लिए वही एक सच्चे स्टार हैं। बाकी सभी को मैंने प्रोफेशनल नजर से देखा है कभी फैन की तरह महसूस नहीं किया। लेकिन बच्चन साहब के लिए वह भाव हमेशा रहा।
क्या बड़े स्टार्स खुद आपके साथ काम करना चाहते हैं या आपको ही उनसे दूरी बनानी पड़ती है?
बातचीत तो कई बार हुई है और लोग मेरे काम को जानते हैं। लेकिन मेरी फिल्में ज्यादातर रियलिस्टिक और साइकोलॉजिकल थ्रिलर की तरफ होती हैं। सलमान खान या शाहरुख खान जैसे स्टार्स की अपनी एक बड़ी इमेज होती है और उनके फैन्स उनसे एक अलग तरह का मनोरंजन चाहते हैं।
ऐसे में अगर मैं उनके साथ फिल्म बनाऊं तो मुझे लगता है कि मैं उनके स्टारडम के साथ न्याय नहीं कर पाऊंगा। मैं उस तरह का सिनेमा बनाता ही नहीं हूं। इसलिए उन्हें मना करने से ज्यादा मुझे लगता है कि अपनी क्रिएटिव ईमानदारी बनाए रखना जरूरी है।
अभी के हालात में मुझे ऐसा नहीं लगता। क्योंकि हर पक्ष का अपना एजेंडा और अपना उद्देश्य होता है। कॉरपोरेट प्लेटफॉर्म के डेटा पर चलते हैं। कौन सा शो चल रहा है किस एक्टर की रीच है किस तरह की कहानियों को रिस्पॉन्स मिल रहा है। उनकी सोच वहीं से बनती है। लेकिन निर्देशक अपनी समझ के आधार पर दर्शकों की बात करता है। इन दो सोचों का मिलना मुश्किल है।
इसलिए उन्हें उस सिस्टम के प्रति वफादार रहना होगा जिसे उन्होंने बनाया है। वे निर्देशक की सेवा करने के लिए नहीं हैं। उनका काम है अपने प्लेटफॉर्म की जरूरतों को पूरा करना। यही उनका अधिकार है और यही उनकी जिम्मेदारी भी।
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आपने इतने वर्षों तक इंडस्ट्री में काम किया है। नए जमाने के एक्टर्स में आपको क्या बदलाव दिखता है?
मेरे हिसाब से आज की नई पीढ़ी के अभिनेता ज्यादा तैयार हैं। वो तकनीक समझते हैं और अलग अलग तरह की भूमिका निभा सकते हैं। पहले ज्यादातर फिल्में एक ही ढर्रे पर बनती थीं लेकिन अब कहानियों में बहुत बदलाव आया है। आज के अभिनेता बचपन से ही तरह तरह की फिल्में देखते आए हैं। 'एनिमल', 'द कश्मीर फाइल्स', 'द केरल स्टोरी', 'सैराट' जैसी फिल्में पहले के जमाने में नहीं बनती थीं। इन फिल्मों ने नए अभिनेताओं को और सोचने पर मजबूर किया और उनकी अभिनय क्षमता भी बढ़ाई।
न्यू जेनेरेशन में से क्या कोई ऐसा एक्टर है जिसके साथ आप काम करना चाहेंगे अगर मौका मिले?
सच कहूं तो नहीं। मैंने हमेशा स्क्रिप्ट और कैरेक्टर की जरूरत के हिसाब से कास्टिंग की है। सिर्फ एक व्यक्ति ऐसा है जिसके साथ मैं दिल से काम करना चाहता था अमिताभ बच्चन। कारण बहुत सीधा है वह इकलौते ऐसे एक्टर हैं जिनकी फिल्म देखने के लिए मैं टिकट खरीदने लाइन में लगा था। मेरे लिए वही एक सच्चे स्टार हैं। बाकी सभी को मैंने प्रोफेशनल नजर से देखा है कभी फैन की तरह महसूस नहीं किया। लेकिन बच्चन साहब के लिए वह भाव हमेशा रहा।
क्या बड़े स्टार्स खुद आपके साथ काम करना चाहते हैं या आपको ही उनसे दूरी बनानी पड़ती है?
बातचीत तो कई बार हुई है और लोग मेरे काम को जानते हैं। लेकिन मेरी फिल्में ज्यादातर रियलिस्टिक और साइकोलॉजिकल थ्रिलर की तरफ होती हैं। सलमान खान या शाहरुख खान जैसे स्टार्स की अपनी एक बड़ी इमेज होती है और उनके फैन्स उनसे एक अलग तरह का मनोरंजन चाहते हैं।
ऐसे में अगर मैं उनके साथ फिल्म बनाऊं तो मुझे लगता है कि मैं उनके स्टारडम के साथ न्याय नहीं कर पाऊंगा। मैं उस तरह का सिनेमा बनाता ही नहीं हूं। इसलिए उन्हें मना करने से ज्यादा मुझे लगता है कि अपनी क्रिएटिव ईमानदारी बनाए रखना जरूरी है।
राम गोपाल वर्मा और आमिर खान
- फोटो : एक्स@RGVzoomin
क्या आपने कभी शाहरुख खान के साथ फिल्म करने की कोशिश की?
बहुत साल पहले 'टाइम मशीन' नाम की एक फिल्म पर हम बातचीत कर रहे थे। तभी मुझे महसूस हुआ कि शाहरुख एक बेहद जिंदादिल कलाकार हैं। वह आते ही पूरी स्क्रीन पर छा जाते हैं। उनकी मौजूदगी ही एक ताकत है। लेकिन मेरी फिल्मों की भाषा थोड़ी अलग है। मैं शांत अंदाज सधी हुई प्रस्तुति और नियंत्रित माहौल में काम करता हूं। मेरी फिल्मों में अभिनेता को एक सीमा के अंदर रहकर भाव दिखाने होते हैं। जैसे सरकार में सिर्फ बच्चन साहब ही नहीं बाकी कलाकार भी कम बोलकर गहरी भावना लाते थे।
शाहरुख इस शैली से अलग हैं। उन्हें किसी दायरे में बांधना मुश्किल है। मुझे लगा कि अगर मैं उनके साथ फिल्म बनाऊं तो निर्देशक के रूप में मेरे पास करने के लिए बहुत कम बचेगा। मैं उन्हें देखकर खुश हो सकता हूं उनकी तारीफ कर सकता हूं लेकिन उन्हें निर्देशित करना मेरे लिए आसान नहीं होगा।
अगर मौका मिले तो ऐसी कौन सी फिल्म है जो बॉक्स ऑफिस पर नहीं चली लेकिन आप मानते हैं कि आज उसे दोबारा रिलीज किया जाए तो दर्शक उसे अलग नजर से देखेंगे? मैं 'आग' को फिर से बनाना चाहूंगा। मैंने 'शोले' को रीमेक करने की कोशिश की थी और वह आग बन गई। लेकिन अगर मैं आग को दुबारा रीमेक करूं तो शायद वह 'शोले' बन जाए।
बहुत साल पहले 'टाइम मशीन' नाम की एक फिल्म पर हम बातचीत कर रहे थे। तभी मुझे महसूस हुआ कि शाहरुख एक बेहद जिंदादिल कलाकार हैं। वह आते ही पूरी स्क्रीन पर छा जाते हैं। उनकी मौजूदगी ही एक ताकत है। लेकिन मेरी फिल्मों की भाषा थोड़ी अलग है। मैं शांत अंदाज सधी हुई प्रस्तुति और नियंत्रित माहौल में काम करता हूं। मेरी फिल्मों में अभिनेता को एक सीमा के अंदर रहकर भाव दिखाने होते हैं। जैसे सरकार में सिर्फ बच्चन साहब ही नहीं बाकी कलाकार भी कम बोलकर गहरी भावना लाते थे।
शाहरुख इस शैली से अलग हैं। उन्हें किसी दायरे में बांधना मुश्किल है। मुझे लगा कि अगर मैं उनके साथ फिल्म बनाऊं तो निर्देशक के रूप में मेरे पास करने के लिए बहुत कम बचेगा। मैं उन्हें देखकर खुश हो सकता हूं उनकी तारीफ कर सकता हूं लेकिन उन्हें निर्देशित करना मेरे लिए आसान नहीं होगा।
अगर मौका मिले तो ऐसी कौन सी फिल्म है जो बॉक्स ऑफिस पर नहीं चली लेकिन आप मानते हैं कि आज उसे दोबारा रिलीज किया जाए तो दर्शक उसे अलग नजर से देखेंगे? मैं 'आग' को फिर से बनाना चाहूंगा। मैंने 'शोले' को रीमेक करने की कोशिश की थी और वह आग बन गई। लेकिन अगर मैं आग को दुबारा रीमेक करूं तो शायद वह 'शोले' बन जाए।
राम गोपाल वर्मा
- फोटो : इंस्टाग्राम
ओटीटी ने कहानी कहने का फॉर्मेट पूरी तरह बदल दिया है। क्या आप भी इस प्लेटफॉर्म के लिए कोई प्रोजेक्ट प्लान कर रहे हैं?
मैं इस समय एक सीरीज लिख रहा हूं जो पुलिस और अंडरवर्ल्ड की दुनिया को बहुत ही रियलिस्टिक तरीके से एक्सप्लोर करेगी। पहले मैंने 'सत्या' और 'कंपनी' जैसी फिल्में बनाईं लेकिन उस समय मेरी समझ सीमित थी क्योंकि मैं ज्यादातर अखबारों और सुनी सुनाई कहानियों पर निर्भर था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मेरी मुलाकात कुछ ऐसे लोगों से हुई जो इस दुनिया के अंदर से जुड़े हुए थे। उन्होंने मुझे ऐसे पहलू बताए जो अब तक फिल्मों में नहीं दिखे। इसलिए इस बार अंडरवर्ल्ड सिर्फ एक बैकग्राउंड नहीं होगा बल्कि एक सोच एक माइंडसेट एक सिस्टम के रूप में सामने आएगा।
OTT का फायदा यही है कि यहां फॉर्मेट की कोई सीमा नहीं है। फिल्म में दो घंटे में सब कुछ समेटना होता है लेकिन OTT पर कहानी को विस्तार देने की आजादी मिलती है। आप कैरेक्टर्स को गहराई से समझा सकते हैं उनकी मनोस्थिति एक्सप्लोर कर सकते हैं और सिस्टम को अलग अलग नजरिए से दिखा सकते हैं।
मैं इस समय एक सीरीज लिख रहा हूं जो पुलिस और अंडरवर्ल्ड की दुनिया को बहुत ही रियलिस्टिक तरीके से एक्सप्लोर करेगी। पहले मैंने 'सत्या' और 'कंपनी' जैसी फिल्में बनाईं लेकिन उस समय मेरी समझ सीमित थी क्योंकि मैं ज्यादातर अखबारों और सुनी सुनाई कहानियों पर निर्भर था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मेरी मुलाकात कुछ ऐसे लोगों से हुई जो इस दुनिया के अंदर से जुड़े हुए थे। उन्होंने मुझे ऐसे पहलू बताए जो अब तक फिल्मों में नहीं दिखे। इसलिए इस बार अंडरवर्ल्ड सिर्फ एक बैकग्राउंड नहीं होगा बल्कि एक सोच एक माइंडसेट एक सिस्टम के रूप में सामने आएगा।
OTT का फायदा यही है कि यहां फॉर्मेट की कोई सीमा नहीं है। फिल्म में दो घंटे में सब कुछ समेटना होता है लेकिन OTT पर कहानी को विस्तार देने की आजादी मिलती है। आप कैरेक्टर्स को गहराई से समझा सकते हैं उनकी मनोस्थिति एक्सप्लोर कर सकते हैं और सिस्टम को अलग अलग नजरिए से दिखा सकते हैं।