World Heritage Week 2025: प्राचीन धरोहरों व स्मारकों की संख्या में हम अग्रणी, उदासीनता में भी हम अव्वल!
World Heritage Week 2025: सामान्य स्मारकों व पुरास्थलों की संख्या में भी भारत अव्वल है। पर दुर्भाग्य से स्मारकों व पुरास्थलों की दुर्दशा में व उनके प्रति उदासीनता में भी हम अग्रणी हैं।
विस्तार
World Heritage Day 2025: संपूर्ण विश्व वर्ष में एक सप्ताह प्राचीन धरोहरों व स्मारकों को समर्पित किया गया है। इसके लिए ही प्रतिवर्ष 19 से 25 नवंबर को वर्ल्ड हेरिटेज वीक बड़े उत्साह के साथ बनाया जाता है । भारत में भी इस सप्ताह के अंतर्गत कई गतिविधियां शासकीय स्तर पर आयोजित की जाती हैं। भारत के लिए यह सप्ताह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि भारत वह भूमि है जहां संपूर्ण विश्व की सर्वाधिक प्राचीनतम सभ्यता विद्यमान थी जिसे हम वर्तमान में सिंधु सरस्वती सभ्यता के नाम से जानते हैं। इस सभ्यता से संबंधित एक पुरास्थल धोलावीरा तो यूनेस्को की विश्व धरोहर की सूची में भी सम्मिलित है। केवल धौलावीरा ही नहीं अन्य 43 स्थान भी हैं जो विश्व धरोहर की सूची में सम्मिलित हैं। यदि इनके इतर भी बात करें तो सामान्य स्मारकों व पुरास्थलों की संख्या में भी भारत अव्वल है। पर दुर्भाग्य से स्मारकों व पुरास्थलों की दुर्दशा में व उनके प्रति उदासीनता में भी हम अग्रणी हैं।
अधिकांश स्मारकों व पुरास्थलों के इतिहास से जन अनभिज्ञ
विश्व धरोहरों में नामित भारत के अधिकांश स्मारकों व पुरास्थलों के इतिहास से अधिकांश भारतीय जन अनभिज्ञ ही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पुरास्थल व स्मारक हमारे लिए टूरिस्ट स्पॉट से अधिक कुछ नहीं हैं। स्मारकों के संरक्षण के प्रति तो आम जन पूर्ण रूप से उदासीन व लापरवाह है। यही तो कारण है कि अधिकांश स्मारकों की दीवारों पर हमें अपने प्रेम को अमरता प्रदान करने हेतु आधुनिक प्रेमी जोड़ो के नाम अंकित दिखाई देते हैं। इन स्मारकों के निकट बनाए गए संग्रहालयों में तो आगंतुकों की संख्या न के बराबर ही रहती है। आश्चर्य तो इस बात पर भी प्रकट किया जा सकता है कि हमारे पूर्वजों के द्वारा बनाए गए स्मारकों के इतिहास को जानने की रुचि हमसे अधिक विदेश से आने वाले पर्यटकों में दिखाई देती है।
शासकीय उदासीनता भी एक वजह
हां, यह सत्य है कि आमजन स्मारकों व पुरास्थलों के प्रति उदासीन है परंतु शासन प्रशासन भी इस उदासीनता में बराबर का भागीदार है। इस देश के अधिकांश पुरास्थल जैसे राखीगढ़ी (हरियाणा), सांची (रायसेन), कायथा (उज्जैन) आदि अतिक्रमण से ग्रसित हैं। कई प्राचीन टीलों पर तो विशाल बस्तियां भी विद्यमान है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में तो कई प्राचीन टीले आधुनिक मशीनों द्वारा समतल कर दिए गए हैं। जिन विभागों पर इनके संरक्षण की जिम्मेदारी है, उनके अधिकारी संभवतः गहरी नींद में हैं ।
स्मारकों के संरक्षण के प्रति लापरवाह जन और शासन
धरोहरों के प्रति शासकीय उदासीनता इस तथ्य से भी परिलक्षित होती है कि सरस्वती सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा पुरास्थल राखीगढ़ी जिसे भारत सरकार द्वारा आइकॉनिक पुरास्थल भी घोषित किया गया है, वह स्वयं पिछले 2 वर्षों से वृहद उत्खनन की प्रतीक्षा कर रहा है। भारतीय इतिहास में पहली बार जिस पुरास्थल से रथ प्राप्त हुए वह उत्तर प्रदेश का सिनौली पिछले 7 वर्षों से पुरातात्विक उत्खनन के इंतजार में है। इन सात वर्षों में स्थानीय ईंट भट्टों के मालिकों ने सिनौली के आस पास के सभी टीलों को ध्वस्त कर दिया है। यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि हम एक ओर इतिहास का पुनर्लेखन चाहते हैं पर सिनौली व राखीगढ़ी के प्रति शासन की यह उदासीनता और लापरवाही इस विचार पर प्रश्नचिन्ह खड़ी करती है ।
इन सभी परिस्थितियों को देखकर स्पष्ट हो जाता है कि स्मारकों व पुरास्थलों के प्रति जब तक इस देश का आम जन सतर्क व समर्पित नहीं होगा, इस प्रकार के सप्ताह आते-जाते रहेंगे व इन सप्ताहों पर होने वाला शासकीय खर्च कभी सदुपयोगी सिद्ध नहीं होगा । स्मारकों के प्रति हमारी यह उदासीनता केवल वर्तमान के साथ अन्याय नहीं कर रही है अपितु हमारे शौर्यवान पूर्वजों का भी अपमान कर रही हैं । अभी भी समय है समाज चिंतन करे व बदलाव लाने के लिए प्रयास करे तभी परिवर्तन व वर्ल्ड हेरिटेज वीक की सार्थकता सिद्ध होगी ।
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नोट: ये दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत शहीद भगत सिंह महाविद्यालय में इतिहास विभाग के सहायक आचार्य डॉ शुभम केवलिया का लेख है।
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