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Lalitpur News: पूछत-पूछत आए हैं नारे सुआटा, कौन या दाऊजू की पौर...
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संवाद न्यूज एजेंसी
ललितपुर। बुंदेलखंड में सुआटा (नौरता) के नाम से शारदीय नवरात्र में खेला जाने वाला खेल अब समाप्त हो गया है। इससे कन्याएं खेलती थीं। इसके पीछे कई पौराणिक कथाएं भी जुड़ी हैं। शहरी क्षेत्र में तो बहुत पहले यह समाप्त हो गया है, अब ग्रामीण इलाकों में भी यदा-कदा दिखाई देता है।
लोककला व संस्कृति से जुड़ा क्रीड़ा पर्व सुआटा शारदीय नवरात्र में अविवाहित किशोरियां खेलती हैं। यह खेल नवदुर्गा के साथ पूरे नौ दिन खेला जाता है। नवमी को सुआटा की तेरहवीं कर समापन किया जाता है। इसकी तैयारियां पहले से शुरू कर प्राकृतिक रंग आदि तैयार किए जाते हैं। सुआटा खेलने जाने वाले स्थान पर रंगोली आदि बनाई जाती है।
द्वापर युग से जुड़ी लोककथा के अनुसार सुआटा नामक एक दैत्य हुआ करता था, जिसकी एक बहन थी मामुलिया। दैत्य कुंआरी कन्याओं को उठा ले जाता था। परेशान होकर कन्याओं ने श्रीकृष्ण की आराधना की। खुश होकर श्रीकृष्ण ने कन्याओं से वरदान मांगने को कहा। कन्याओं ने उस दैत्य से मुक्ति की मांग की।
श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि टेशू नाम का व्यक्ति आएगा जो उस दैत्य को खत्म करेगा और ऐसा ही हुआ। टेशू आया और उसने सुआटा नाम के दैत्य को मार दिया। मरने से पहले उक्त दैत्य को यह वरदान मिला हुआ था कि कुंआरी कन्याओं द्वारा उसे पूजा जाएगा।
सुआटा खेल की शुरुआत मामुलिया से की जाती है, जिसको बालिकाएं कांटेदार झाड़ी पर पकवान आदि सजाकर गांव के बाहर नदी, तालाब में विसर्जित कर देती हैं। वहीं से मिट्टी लाकर दीवाल पर सुआटा की आकृति बनाती हैं, जहां प्रतिदिन प्रात:काल में सभी बालिकाएं लिपाई पुताई के पश्चात सुआटा की पूजा आदि कर नारे सुआटा... के गीत गाती हैं।
शादी होने के पश्चात उसी साल नवदुर्गा में बालिकाएं सुआटा का पूजन कर उद्यापन करती हैं। पकवान बनाकर सभी सहेलियों को भोजन कराती हैं। उक्त परंपरा अब लुप्त होने की कगार पर है, जो अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी कहीं-कहीं ही दिखाई देती है।

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ललितपुर। बुंदेलखंड में सुआटा (नौरता) के नाम से शारदीय नवरात्र में खेला जाने वाला खेल अब समाप्त हो गया है। इससे कन्याएं खेलती थीं। इसके पीछे कई पौराणिक कथाएं भी जुड़ी हैं। शहरी क्षेत्र में तो बहुत पहले यह समाप्त हो गया है, अब ग्रामीण इलाकों में भी यदा-कदा दिखाई देता है।
लोककला व संस्कृति से जुड़ा क्रीड़ा पर्व सुआटा शारदीय नवरात्र में अविवाहित किशोरियां खेलती हैं। यह खेल नवदुर्गा के साथ पूरे नौ दिन खेला जाता है। नवमी को सुआटा की तेरहवीं कर समापन किया जाता है। इसकी तैयारियां पहले से शुरू कर प्राकृतिक रंग आदि तैयार किए जाते हैं। सुआटा खेलने जाने वाले स्थान पर रंगोली आदि बनाई जाती है।
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द्वापर युग से जुड़ी लोककथा के अनुसार सुआटा नामक एक दैत्य हुआ करता था, जिसकी एक बहन थी मामुलिया। दैत्य कुंआरी कन्याओं को उठा ले जाता था। परेशान होकर कन्याओं ने श्रीकृष्ण की आराधना की। खुश होकर श्रीकृष्ण ने कन्याओं से वरदान मांगने को कहा। कन्याओं ने उस दैत्य से मुक्ति की मांग की।
श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि टेशू नाम का व्यक्ति आएगा जो उस दैत्य को खत्म करेगा और ऐसा ही हुआ। टेशू आया और उसने सुआटा नाम के दैत्य को मार दिया। मरने से पहले उक्त दैत्य को यह वरदान मिला हुआ था कि कुंआरी कन्याओं द्वारा उसे पूजा जाएगा।
सुआटा खेल की शुरुआत मामुलिया से की जाती है, जिसको बालिकाएं कांटेदार झाड़ी पर पकवान आदि सजाकर गांव के बाहर नदी, तालाब में विसर्जित कर देती हैं। वहीं से मिट्टी लाकर दीवाल पर सुआटा की आकृति बनाती हैं, जहां प्रतिदिन प्रात:काल में सभी बालिकाएं लिपाई पुताई के पश्चात सुआटा की पूजा आदि कर नारे सुआटा... के गीत गाती हैं।
शादी होने के पश्चात उसी साल नवदुर्गा में बालिकाएं सुआटा का पूजन कर उद्यापन करती हैं। पकवान बनाकर सभी सहेलियों को भोजन कराती हैं। उक्त परंपरा अब लुप्त होने की कगार पर है, जो अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी कहीं-कहीं ही दिखाई देती है।