भारत के प्रख्यात शिक्षाविद और पद्मश्री सम्मानित डॉ. कृष्ण कुमार ने अपनी मां के अधूरे सपनों को साकार करने के लिए एक प्रेरणादायी पहल की है। गुरुवार को टीकमगढ़ पहुंचकर उन्होंने बालिकाओं की शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत सामाजिक संस्था ‘निरंतर’ को अपना पैतृक मकान दान कर दिया। यह वही शहर है, जहां की गलियों में उनका बचपन बीता और जहां से उनके जीवन-मूल्यों को दिशा मिली।
डॉ. कृष्ण कुमार भारत सरकार में कई महत्वपूर्ण पदों पर सेवाएं दे चुके हैं और शिक्षा के क्षेत्र में उनके दीर्घकालिक योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। लेकिन उनके जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा उनकी मां कृष्ण कुमारी रहीं, जिन्होंने आज़ादी के तुरंत बाद बुंदेलखंड जैसे सामाजिक रूप से पिछड़े अंचल में बालिका शिक्षा की अलख जगाई।
मीडिया से बातचीत में डॉ. कृष्ण कुमार ने भावुक होकर उस दौर को याद किया, जब बुंदेलखंड में बालिकाओं की शिक्षा लगभग नगण्य थी। उन्होंने बताया कि सितंबर 1947 में उनकी मां ने टीकमगढ़ की ऐतिहासिक पीली कोठी में जिले का पहला बालिका विद्यालय शुरू किया था। शुरुआती दिनों में वहां मात्र तीन छात्राएं पढ़ने आती थीं, क्योंकि समाज में पर्दा प्रथा हावी थी और लड़कियों का घर से बाहर निकलना भी चुनौतीपूर्ण था।
बालिकाओं को स्कूल लाने के लिए विशेष प्रबंध किए जाते थे। बैलगाड़ी, जिसे स्थानीय भाषा में सिकरम कहा जाता था, उसके दोनों ओर पर्दे लगाए जाते थे ताकि सामाजिक बंदिशों के बीच भी बच्चियां शिक्षा प्राप्त कर सकें। यह विद्यालय तत्कालीन टीकमगढ़ राजा के सहयोग से शुरू हुआ, जिसने सामाजिक बदलाव की मजबूत नींव रखी।
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समय के साथ समाज की सोच बदली और उनकी मां के जीवनकाल में ही स्कूल में हजारों छात्राएं अध्ययन करने लगीं। डॉ. कृष्ण कुमार ने कहा कि उनकी मां का सपना था कि बेटियां पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बनें और समाज में समान अधिकार प्राप्त करें।
जिस संस्था ‘निरंतर’ को पैतृक मकान दान किया गया है, वह भी बालिकाओं की शिक्षा, व्यक्तित्व विकास और सामाजिक सशक्तिकरण के लिए निरंतर कार्य कर रही है। यह दान केवल एक संपत्ति का हस्तांतरण नहीं, बल्कि विचार, विरासत और संघर्ष की सतत कड़ी है, जो पूरे बुंदेलखंड के लिए प्रेरणा बनकर उभरी है।