भले ही सरकारें गरीबों, पिछड़ों और दिव्यांगों के लिए योजनाओं के बड़े-बड़े दावे करती हों, लेकिन हकीकत इन दावों से कोसों दूर है। जिले के झाड़ोल उपखंड के लीलावास गांव का एक परिवार इसी सच्चाई को बयां करता है।
परिवार में पति, पत्नी और 11 संतानों समेत कुल कुल 13 सदस्य हैं। इनमें से पांच बच्चे जन्म से ही दृष्टिबाधित हैं। बड़ी बेटी पूजा (22) के अलावा पायल, काजल, खुशी और एक बेटा बचपन से ही आंखों की रोशनी से वंचित हैं। परिवार के मुताबिक दिन में इन बच्चों को बिल्कुल दिखाई नहीं देता और धूप बढ़ने पर उनकी आंखों की रोशनी पूरी तरह खत्म हो जाती है। रात में हल्का-सा धुंधला दिखाई देता है, लेकिन वह भी न के बराबर।
सरकारी दावों के बावजूद यह परिवार आज भी ऊंचाई पर गाड़े गए एक तंबू में रह रहा है। बरसात के दिनों में फटे तिरपाल से पानी टपकता है और बच्चों के बिस्तर व कपड़े भीग जाते हैं। एक ही जगह बकरियां, टूटी-फूटी चारपाइयां, सूखते कपड़े और चूल्हा रखा है। परिवार को न तो पक्का मकान मिला और न ही बिजली की सुविधा। भंवरलाल कचरा बीनकर परिवार का पेट पालते हैं। ऐसे में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का तो सवाल ही नहीं है। अब तक इनके किसी भी बच्चे ने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा।
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आर्थिक मजबूरी के कारण पांचों दृष्टिबाधित बच्चों को कभी अस्पताल तक नहीं ले जाया गया। परिवार का कहना है कि उन्हें कभी किसी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिला न दिव्यांग पेंशन, न स्वास्थ्य सुविधा। यही कारण है कि बच्चों की हालत जस की तस बनी हुई है। स्थानीय ग्रामीणों ने बताया कि बच्चों को दिन में बिल्कुल दिखाई नहीं देता। सरकार को तुरंत हस्तक्षेप कर इलाज व पेंशन जैसी सुविधाएं उपलब्ध करानी चाहिए।
मामला सामने आने के बाद प्रशासन हरकत में आया है। ब्लॉक सीएमएचओ धर्मेंद्र कुमार ने कहा कि परिवार घुमंतू है, इसलिए जानकारी पहले नहीं मिल पाई। अब बच्चों का इलाज करवाने और मदद पहुंचाने की कार्रवाई होगी। राजस्थान बाल आयोग के पूर्व सदस्य शैलेन्द्र पंड्या ने कहा कि इस तरह के मामलों में गंभीरता से काम करना होगा। एनजीओ और प्रशासन के सहयोग से अभियान चलाकर जरूरतमंद परिवारों तक योजनाएं पहुंचाई जाएंगी।
महाराणा भूपाल अस्पताल, उदयपुर के नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ. विजय गुप्ता ने बताया कि एक ही परिवार में पांच बच्चों का दृष्टिबाधित होना दुर्लभ है। शुरुआती जांच में मामला आनुवांशिक प्रतीत हो रहा है, संभव है यह कन्जेनिटल कोन डिस्ट्रोफी जैसी बीमारी हो। आगे की रिपोर्ट से उपचार का रास्ता तय होगा। भंवरलाल का परिवार सोचने पर मजबूर करता है कि जब करोड़ों रुपये की योजनाएं हर साल चलाई जाती हैं, तब भी अगर एक पूरा परिवार तंबू में रहकर कचरा बीनने को मजबूर हो और पांच संतानें दृष्टिबाधित हों, तो बड़ा सवाल यही उठता है कि योजनाओं का असल लाभ आखिर किसे मिल रहा है?