Sri Lanka Crisis: श्रीलंका में फिर से मिल रहे हैं जन असंतोष तेज होने के संकेत
Sri Lanka Crisis: पिछले हफ्ते ही सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों ने अस्पतालों, बैंकों और बंदरगाहों में काम रोक दिया। टैक्स और बिजली शुल्क में की गई भारी बढ़ोतरी के विरोध में उन्होंने यह कदम उठाया। विक्रमसिंघे सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की शर्तों के मुताबिक टैक्स और शुल्कों में वृद्धि की है...
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श्रीलंका में पूर्व राष्ट्रपति गोतबया राजपक्षे के खिलाफ जन विद्रोह शुरू होने की एतिहासिक घटना का लगभग एक साल पूरा होने वाला है। जन आंदोलन के कारण राजपक्षे को देश छोड़ कर जाना पड़ा था। पिछली जुलाई में रानिल विक्रमसिंघे नए राष्ट्रपति बने। लेकिन इन तमाम सियासी बदलावों के बावजूद देश की उन आर्थिक स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आया है, जिसकी वजह से गोतबया राजपक्षे की कुर्सी गई थी। देश में अभी भी उथल-पुथल के संकेत मिल रहे हैं।
पिछले हफ्ते ही सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों ने अस्पतालों, बैंकों और बंदरगाहों में काम रोक दिया। टैक्स और बिजली शुल्क में की गई भारी बढ़ोतरी के विरोध में उन्होंने यह कदम उठाया। विक्रमसिंघे सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की शर्तों के मुताबिक टैक्स और शुल्कों में वृद्धि की है। आईएमएफ श्रीलंका के लिए 2.9 बिलियन डॉलर का ऋण मंजूर कर चुका है, लेकिन उसका भुगतान करने से पहले कई कदम उठाने की शर्त लगाई है।
बीते शुक्रवार को श्रीलंका के सेंट्रल बैंक ने एक बार ब्याज दर में वृद्धि की। इस तरह ब्याज दर अब लगभग 50 फीसदी के करीब पहुंच गई है। सेंट्रल के गवर्नर नंदलाल वीरासिंघे ने कहा कि यह कदम आईएमएफ की शर्त के मुताबिक उठाया गया है। उन्होंने उम्मीद जताई कि अब आईएमएफ कर्ज की रकम का भुगतान शुरू कर देगा।
लेकिन जन संगठनों का कहना है कि आईएमएफ से ऋण मिल जाने के बावजूद आम देशवासियों की मुश्किलों का अंत नहीं होगा। फरवरी से लेकर अब तक बिजली शुल्क 66 फीसदी बढ़ाया जा चुका है। इस समय देश में बिजली जितनी महंगी है, उतना 75 साल में कभी नहीं रही। उधर इनकम टैक्स की दर को बढ़ा कर 36 फीसदी किया जा चुका है। अंतरराष्ट्रीय संस्था सेव द चिल्ड्रेन की एक ताजा सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक श्रीलंका के आधा परिवारों को अपने बच्चों के भोजन में कटौती करनी पड़ी है।
विपक्षी दलों का आरोप है कि आम जन को राहत पहुंचाने में नाकाम रहने के बाद अब राष्ट्रपति विक्रमसिंघे तानाशाही की तरफ बढ़ने के संकेत दे रहे हैं। पिछले महीने जिस तरह स्थानीय चुनावों को स्थगित किया गया, उसे लेकर राष्ट्रपति की मंशा पर संदेह जताया जा रहा है।
राजनीतिक विश्लेषकों ने ध्यान दिलाया है कि एक तरफ सरकार ने धन की कमी का बहाना बना कर स्थानीय चुनाव टलवा दिए, वहीं पिछले महीने देश की आजादी की 75वीं सालगिरह के समारोहों पर खूब शाहखर्ची की गई। राजनीतिक विश्लेषक अमिता अरुदप्रगासम ने वेबसाइट निक्कईएशिया.कॉम से कहा- ‘सरकार की यह दलील गले नहीं उतरती कि चुनाव कराने के लिए पैसा नहीं है। चुनाव में देरी करना श्रीलंका में बचे-खुचे लोकतंत्र पर हमला है।’
श्रीलंका का सुप्रीम कोर्ट भी इस राय से सहमत दिखता है। बीते शुक्रवार को उसने स्थानीय चुनाव संपन्न कराने का आदेश दिया। आम धारणा बनी है कि बेहद अलोकप्रिय हो चुके विक्रमसिंघे हार के डर से चुनाव टालना चाहते हैं। विपक्षी दल नेशनल पीपुल्स पॉवर के नेता व्राये बालथाजार ने कहा है- ‘विक्रमसिंघे ने लोगों के अधिकारों और उनकी पीड़ा की पूरी अनदेखी की है। उनके लिए जन कल्याण से ज्यादा अहम अपना अहंकार है।’