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कथावाचन और जाति विवाद: आखिर कौशल को क्यों बांधा जाए सीमाओं में..!
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सार
उधर बदले में यूपी के कई यादव ब्राह्मणों के खिलाफ एकजुट हो गए। इस विवाद की गूंज बिहार में एक गांव में ब्राह्मणों को बैन करने तक पहुंची तो यूपी में राजनेताओं ने इस विवाद की आड़ में ब्राह्मण बनाम यादव की दीवार खड़ी करने में कोताही नहीं की।

कथावाचकों से मारपीट का मामला।
- फोटो : amar ujala
विस्तार
उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के दादरपुर गांव में विगत 21 जून को भागवत कथा एक यादव कथावाचक द्वारा किए जाने पर भड़का ब्राह्मण यादव विवाद न केवल निंदनीय है बल्कि यह व्यापक हिंदू समसरता की भावना के भी खिलाफ है। कथावाचन जैसे एक धार्मिक आध्यात्मिक कौशल को जाति के जन्मसिद्ध अधिकार में बदलना और किसी एक जाति द्वारा अपनी दबंगई जताने के लिए उसका राजनीतिक दुरूपयोग करना न देशहित में है, न धर्महित में और न ही जाति हित में है।
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जो जानकारी सामने आई है, उसके मुताबिक इस गांव में कथा वाचक मुकुट मणि यादव और उनके सहयोगी संत सिंह यादव कथा कर रहे थे। शाम को खबर फैली कि दोनो कथावाचक ब्राह्मण न होकर यादव हैं तो कुछ लोगों ने उनके साथ न केवल मारपीट की बल्कि उनके बाल काटे, सिर मुंडवाया और एक महिला के पैरों में नाक रगड़वाई। गोया दोनो ने ब्रह्म हत्या जैसा महापाप किया हो। इस घटना का समर्थन करने वाले ब्राह्मणों का तर्क है कि उन्हें आपत्ति यादवों द्वारा कथा वाचन पर नहीं, बल्कि गलत जाति बता कर कथा बांचने पर है। क्योंकि यह धोखाधड़ी है।
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उधर बदले में यूपी के कई यादव ब्राह्मणों के खिलाफ एकजुट हो गए। इस विवाद की गूंज बिहार में एक गांव में ब्राह्मणों को बैन करने तक पहुंची तो यूपी में राजनेताओं ने इस विवाद की आड़ में ब्राह्मण बनाम यादव की दीवार खड़ी करने में कोताही नहीं की। यही नहीं इस बवाल को यूपी में आगामी विधानसभा चुनावों के संदर्भ में राजनीतिक हानि-लाभ के गणित के आईने में देखा जाने लगा। इस निरर्थक विवाद के विरोध और समर्थन से हटकर इसकी गहराई में जाएं तो कुछ संजीदा सवाल उठते हैं।
क्या कथावाचन केवल ब्राह्मणों का जन्मसिद्ध अधिकार है? यदि कोई ब्राह्मणेतर व्यक्ति कथा करे तो क्या वह कथा नहीं होगी? क्या उसका पुण्यलाभ माइनस हो जाएगा? वैसे भी कथा वाचन कोई वंशानुगत या जातिकेन्द्रित धार्मिक अनुष्ठान नहीं है। वह वास्तव जनसंचार व लोक प्रबोधन का विलक्षण कौशल है, जिसके मूल में लोगों की धार्मिक-आध्यात्मिक भूख का शमन करना, उन्हें मानसिक शांति देना तथा अपनी बात लाखों लोगों तक सरल, सम्मोहक भाषा में सम्प्रेषित करना है।
लोकसंचार का यह जरिया सदियों पुराना है। कई बार इसने सोए, भटके या बेचैन समाज के दिशादर्शन में अहम भूमिका निभाई है। आजकल के कुछ पाखंडी और धूर्त कथावाचकों को छोड़ दे तो एक कुशल वक्ता जो बात अपने तर्को और तथ्यों के साथ कहता है वहीं कथावाचक लोक कल्याण और आध्यात्मिक मुक्ति की बात पौराणिक प्रसंगों और कथाओं के जरिए कहता है। महाराष्ट्र में यही कथावाचन कीर्तन के रूप में सदियों से समाजिक और राष्ट्रीय जागरण में अहम भूमिका निभाता आया है। यह पंरपरा आज भी जारी है।
अच्छा कथावाचक बनने के लिए विचारों की सुस्पष्टता, लोकमन की समझ, श्लोकों छंदों की मुखाग्रता, पुराण व शास्त्रों का ज्ञान, नैतिक मूल्यों तथा सत्यान्वेषण की बात सुबोध भाषा में लोगों के मन में उतारने की कलाकारी की दरकार है। इसीलिए ज्यादातर कथावाचक उच्च शिक्षित न होते हुए भी अपनी बात इस अंदाज में कहते हैं, जो आम लोगों तक सहजता से पहुंचती है।
इसी कारण कई लोग उनके अंध भक्त तक बन जाते हैं। लेकिन यह कौशल अर्जित करने के लिए किसी जाति विशेष का होना जरूरी नहीं है। अभ्यास, आस्था और समर्पण से कोई भी इसमें निष्णात हो सकता है। फर्क इतना है कि एक जमाने में इस तरह का कथावाचन मुख्यत: धर्मोपदेश और नैतिक आचरण और लोक जागरण के आग्रह तक सीमित था, लेकिन अब उसमें राजनीतिक एजेंडों का रंग भी घुल गया है।
अब कथावाचक भी अब राजनेताओं से मान्यता चाहते हैं और बदले में राजनेता कथावाचकों के वोट बैंक को चुनाव में कैश कराना चाहते हैं। संक्षेप में कहें तो धर्माचरण के आग्रह का समागम अब सत्ता संधान की गारंटीड सेल में बदल चुका है। यूपी में उठा ब्राह्मण बनाम यादव कथावाचक विवाद भी इसी का परिणाम है।
यह सही है कि एक जमाने में कथावाचको का समाज में बड़ा आदर था। क्योंकि कथा वाचकों की निष्ठा और संयमित जीवन उनके वचनों को प्रामाणिक बनाता था। बीते कुछ दशकों में कथावाचन और कथा श्रवण का कारोबार एक विशाल धार्मिक आध्यात्मिक कारपोरेट में तब्दील हो चुका है। जब अखिलेश यादव बाबा बागेश्वर धीरेन्द्र शास्त्री पर यह आरोप लगाते हैं कि वो एक कथा का 50 लाख रू. लेते हैं तो इसका आशय यही है कि यह अब भारी मुनाफे का धंधा है।
कथा वाचकों की फीस के अलावा जिस विराट पैमाने पर ये आयोजन होते हैं और जिस तरह लाखों लोग उसी बात को बाबा के मुख से सुनने के लिए उमड़ते हैं, जो धर्म पुस्तकों में पहले से लिखी होती है। कुल मिलाकर यह मैन, मनी, शो बिज और स्पिरिच्युअलिटी का जबर्दस्त इवेंट मैनेजमेंट है।
आम जनता और खासकर हिंदू समाज ऐसे कथावाचकों को भगवान मानकर पूजता है। उनके श्रीमुख से जो निकला, वो मान लिया। आम तौर पर ये तमाम कथावाचक पौराणिक संदर्भों के साथ समकालीन सामाजिक राजनीतिक विसंगतियों पर भी टिप्पणियां करते रहते हैं। दैनंदिन जीवन के संत्रास से परेशान लोग आध्यात्मिक और भौतिक इलाज के लिए इन कथावाचकों के यहां टूट पड़ते हैं।
यूपी के ब्रा्हमण-यादव विवाद के संदर्भ में ही देखें तो जहां स्टार कथावाचक धीरेन्द्र शास्त्री कह रहे हैं कि कथावाचन किसी जाति का विशेषाधिकार नहीं हैं तो योग गुरू बाबा रामदेव पूछ रहे हैं कि यदुवंशी भगवान कृष्ण की कथा कोई यादव नहीं करेगा तो कौन करेगा?
यह संकीर्ण फार्मूला अगर पांच सौ साल पहले आया होता तो रामचरित मानस की रचना का अधिकार गोस्वामी तुलसीदास को न होकर क्षत्रिय कवि को ही होता। इस संदर्भ में ज्योतिष पीठ के जगतग़ुरु शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने पहले तो कहा कि भागवत कथा सिर्फ ब्राह्मण बांच सकता है। जब इससे राजनीति गरमाई तो शंकराचार्य ने कहा कि जब कोई सकाम कथा का आयोजन करता है तब कथावाचक का ब्राह्मण होना अनिवार्य है।
मगर निष्काम कथा के आयोजन में कोई भी भागवत कथा को सुना सकता है। सकाम और निष्काम की यह नई व्याख्या है। उधर यूपी सरकार में पंचायत मंत्री और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओमप्रकाश राजभर ने कथावाचन को ब्राह्मणों का अधिकार बताते हुए कहा कि यादवों को ओबीसी से बाहर कर देना चाहिए। उन्होंने तो क्षत्रियों को भी बहुत पीछे छोड़ दिया है। आज जितने सेलेब्रिटी कथावाचक हैं, उनमें ज्यादातर ब्राह्मण ही हैं।
जैसे कि अनिरुद्धाचार्य (नाम अनिरुद्ध राम तिवारी), देवकीनंदन ठाकुर,पं. धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री, पं. प्रदीप मिश्रा तथा जया किशोरी तथा देवी चित्रलेखा। इनके अलावा ब्राह्मणेतर जाति से आने वाले कथावाचको में संत रामपाल (जाट), भोले बाबा उर्फ नारायण साकार हरि उर्फ सूरजपाल (दलित), बाबा रामदेव (यादव) तथा मोरारी बापू (ओबीसी)।
कथा वाचक ही क्यों, मंदिरों में पुजारियों को लेकर समाज का दृष्टिकोण धीरे धीरे बदल रहा है। पूर्व में मद्रास हाईकोर्ट व उत्तराखंड हाई कोर्ट ने अपने अलग अलग फैसलों में कहा कि मंदिर का पुजारी ब्राह्मण हो, यह जरूरी नहीं है। कोई भी बन सकता है बशर्तें कि वह धर्मग्रंथों और धार्मिक अनुष्ठानों में निष्णात हो। तात्पर्य यह कि धार्मिक अनुष्ठान भी एक कौशल है, जिसे पूरी मर्यादा और शुद्धि के साथ कोई भी करा सकता है।
इस संदर्भ में केरल और महाराष्ट्र ने सामाजिक समसरता की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की है। केरल में मंदिरो का प्रबंधन करने वाले त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड (टीडीबी) ने राज्य में उसके द्वारा संचालित 1 हजार 504 मंदिरों के लिए पुजारियों की नियुक्ति के लिए लिखित परीक्षा और साक्षात्कार लिए। जिसमें ओबीसी से 36 व दलित समुदाय से 6 उम्मीदवार शामिल थे।
इन सभी को धार्मिक अनुष्ठान के कार्य का प्रशिक्षण दिया गया। इसी सिलसिले को तमिलनाडु ने भी आगे बढ़ाया है। जबकि कर्नाटक के मंगलुरू में कदरोली मंदिर में न केवल दलित पुजारी बल्कि विधवा पुजारिने भी हैं।
कथा वाचकों की जाति के इस अनंत विवाद से परे सोचें तो दरअसल कथावाचन के पेशेवराना मानदंडों पर अभी तक किसी ने ध्यान नहीं दिया है। कथावाचन वास्तव में जनप्रबोधन का न केवल प्रभावी माध्यम है, बल्कि वह जनसंचार का उत्कृष्ट जरिया भी है, बशर्ते की उसका सकारात्मक उपयोग हो। होना तो यह चाहिए कि जनसंचार से जुड़े संस्थानो को कथावाचन के कुछ निश्चित मानदंड और उद्देश्य तय उसका पाठ्यक्रम प्रांरभ करना चाहिए।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार वर्तमान में इस्कॉन वाले श्रीमदभागवत कथा का डिप्लोमा कोर्स चलाते हैं। संपूर्णानंद संस्कृत विवि वाराणसी पुराण प्रवचन प्रवीण नाम से एक सर्टिफिकेट कोर्स कराता है। प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, दिल्ली भी कथावाचक की डिग्री प्रदान करता है। इनके अलावा वृंदावन के गुरुकुलविभिन्न धर्म ग्रंथों का पठन-पाठन कर कथावाचक बनने का प्रशिक्षण देते हैं।
इसमें दो राय नहीं कि देश में कथावाचन की पवित्रता कायम रहती तो शायद इतने विवाद न होते। दुर्भाग्य से अब तो खुद कथावाचक भी उन्हीं भौतिक बुराइयों और दुष्कर्मों के जाल में फंस गए हैं, जिनसे मुक्ति का आह्वान वो अपने अनुयायियों और भक्तो से करते हैं। कथावाचकों का परम लक्ष्य अब ऐहिक बंधनो से मुक्ति न होकर ऐश्वर्य है, धन का, सत्ता का, काम का, अध्यात्म का।
आज जेलों में बंद या हवालात की हवा खाए हुए कथित संत और कथावाचक बाबा गुरमीत राम रहीम, आसाराम और उनका बेटा नारायण साईं, संत रामपाल, वीरेन्द्र देव दीक्षित, स्वामी भीमानंद, स्वामी नित्यानंद और स्वामी परमानंद जैसों ने कथावाचन की पवित्रता को कलंकित किया है। इन सबके अलावा बेहद जरूरी है अच्छा कथावाचक बनने के लिए अच्छा इंसान बनना। जो अच्छा इंसान नहीं है, उसे तो अच्छा कथावाचक बनने का अधिकार भी नहीं है।
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