क्या फांसी की सजा बलात्कार जैसी घृणित मानसिकता का स्थाई निदान है?
'पूर्ण न्याय' स्त्री के पक्ष में नहीं के बराबर है। हमारे समाज की संरचना ऐसी है कि बलात्कार से पीड़ित या अन्य कारणों से भी पीड़ित स्त्री की न्याय की मांग शक से शुरू होकर अंततः फरियाद में तब्दील हो जाती है। निर्भया के माता पिता को अंततः रोते कलपते उस फरियाद से थोड़ा सुकून मिला है। पर ये क्षणिक सुकून है। निर्भया का बलात्कार हुआ। बेदम परिस्थितियों में उसने कहा-
मुझे जीना है मां। मां मुझे बचा लो
वह बच जाती और फिर जिन्हें सजा मिलनी चाहिए उनकी हिमायत होते देखती तो और मर जाती। अपने माता-पिता की ही तरह, जो जीते नहीं रोज-रोज मरते रहे हैं।
हमारे मुताबिक कैसी सजा मिलनी चाहिए, क्या होना चाहिए, यह तय करते वक्त हमने एक बार भी न सोचा वो बलत्कृता के माता-पिता हैं, जिन्होंने अपनी बेटी को अपने सामने कराहते, दम तोड़ते देखा है, जिन्हें थोड़ा ही सही सुकून तभी मिलता जब बलात्कारियों को उचित सजा मिलती।
हम सिर्फ फांसी के खिलाफ होते तो एक बात थी, लेकिन बहुसंख्यक उन बलात्कारियों की हिमायत करते दिखे। समाज के इस रूप को देखकर चिंतित होना लाजिमी है। ऐसी घटनाओं पर कड़ी से कड़ी सजा तो होनी ही चाहिए पर फांसी की सजा पर सोचना होगा।
दरअसल, फांसी की सजा बलात्कारी मानसिकता का निदान नहीं है। सजा की जड़ में जाकर देखना होगा कि इससे उन अराजक विचारधाराओं पर रोक लग रही है या फिर बलात्कारी उन्हें छुपाने के लिए नए हथकंडे भी अपना रहा।
इस नाते देखा जाए तो हैदराबाद की घटना हमारे सामने है और इससे यह साबित हो चुका है फांसी इस सड़ी हुई और लिजलिजी मानसिकता का निदान नहीं। दरअसल यह एक मानसिक रोग है जो बचपन से ही लड़का लड़की के भेदभाव से शुरू होकर उस अजीब सामाजिक संरचना में खत्म होता है। उचित शिक्षा के साथ-साथ ओपन सेक्स शिक्षा की बहुत जरूरत है हमारे समाज में। तभी शायद ये मानसिक स्खलन कुछ हद तक ठीक हो।
अपराधी का अपराध सिद्ध होने के बाद भी इस देश में उचित निर्णय नहीं लिए जाते, जो कि दुःख की बात है और यही कारण है, जो महत्वपूर्ण निर्णय में बाधक भी हैं। जब ऐसी बदतर स्थिति से समाज गुजरता है तो इसी समाज के विभिन्न रूप सामने आते हैं जैसे-
- बिना अपराध सिद्ध हुए एनकाउंटर पर खुशी मनाना।
- वकीलों की एक महती भूमिका होते हुए भी वकीलों द्वारा अपने अधिकारों का गलत उपयोग करना, जहां उसे गलत होते भी जीतना ही सही लगे।
- अपनी अपनी नैतिक जिम्मेदारी से दूर भागना।
इसके समाधान की स्थिति पर यदि विचार किया जाए तो-
- सभ्य समाज में जीवन जीने से लेकर बातों का चुनाव, विचार, अपराध के दंड, स्त्री पुरुष के जीवन का भयानक गैप सबकुछ सामान्य करने के नियम तय होने चाहिए।
- जांच पड़ताल के बाद अपराधी को दंड दिया जाए। जब अपराधी का अपराध साबित हो जाए तो उचित दंड विधान तत्काल तय किए जाएं। इनमें देरी न हो।
- कुल मिलाकर यदि आजीवन कारावास भी हो तो इन जैसों के लिए वहां भी कड़ी सजा हो।
निर्भया ब्लात्कार कांड के निर्णय में देरी हुई। लेकिन कुछ एक महत्वपूर्ण कमेटी भी बनी। उस पर व्यापक तौर पर सिरियसली काम भी पहली बार शुरू हुआ जैसे- जस्टिस वर्मा कमेटी, जिसे स्त्री की सारी प्रताड़नाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई। 2013 में क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) एक्ट में उन सारी बातों को नजरंदाज किया गया जो कि स्त्री पक्ष को लेकर जरूरी थीं। जैसे 'यौन हिंसा' शब्द जो सारी प्रताड़नाओं का एक पारिभाषिक शब्द बन जाए, ऐसा एक्ट के तहत तय किया गया, जो कि ठीक नहीं था।
जस्टिस वर्मा कमेटी जो कि लगातार सक्रिय रही। उसने ये बात मानने से इनकार किया और भारत में बलात्कार जैसे घिनौने अपराध की सजा तय करने, कानून बनाने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका उभरकर सामने आई। जिसमें मैरिटल रेप से लेकर तमाम बातों को गंभीरता से लिया गया। वर्मा कमेटी ने किशोरों की परिभाषा में तब्दीली न करने की सलाह दी और देश भर से लोगों से सुझाव मांगे। लीला सेठ और गोपाल सुब्रह्मण्यम वाली समिति को हजारों सुझाव हर भाषा में मिले। बहुत से सुझावों पर अमल भी हुआ।
और ऐसा इस लोकतांत्रिक देश में पहली बार संभव हुआ। इस घटना के बाद लोगों में पहली बार इस कृत्य पर तन्द्रा टूटी और गंभीरता से बात हुई। पहली बार इस देश में महिला जजों की मांग की गई, जिससे पीड़िता खुलकर अपनी बात रख सके।
इस विविधता, विभिन्नता वाले देश में एक तरफ इस गंभीर मुद्दे पर चर्चा कर इसका समाधान ढूंढा जा रहा था, वहीं इस देश के अन्य इलाकों में बलात्कारी धड़ल्ले से महिलाओं को शिकार बनाते रहें। सैकड़ों घटनाएं सामने आती रहीं, हजारों दबा दी गईं।
निर्भया से पहले की एक और गंभीर घटना, जो प्रमुखता से दर्ज हो सकी थी, वह थी- केरल के सूर्यनेल्ली में सामूहिक बलात्कार की घटना। साल 1996 में हुई इस घटना में 16 वर्ष की बच्ची का अपहरण करके 40 दिन तक 42 लोग बलात्कार करते रहे। अफसोस कि उस घटना पर कोई कड़ी सजा नहीं निर्मित हुई।
- तो क्यों न जनता ये समझ बैठे कि कानून और सत्ता की मिलीभगत चल रही?
- क्यों न मान लेंं कि कठुआ, उन्नाव जैसी कितनी और घटनाओं पर कोई बात नहीं हुई?
- जिन घटनाओं पर बात भी हुई उसे कितना न्याय मिला?
ऐसे में यदि मानवीय साइकोलॉजी को समझें तो वो फांसी को एक अच्छा हथियार मानकर क्षणिक ही सही खुशी मनाएगा। हमारे देश का स्ट्रक्चर ही इस कदर निर्मित है, जहां स्वभाव और विचारों में बदलाव जल्दी संभव नहीं। लेकिन पूरी स्थितियों को साफ करके देखा जाए तो फांसी निदान नहीं और ये बात लोग भी धीरे-धीरे समझने लगे हैं।
यह हैरानी की बात नहीं कि केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की स्त्रियां यौन उत्पीड़न, बलात्कार की चपेट में हैं। दक्षिण अफ्रीका आबादी में भारत के मुकाबले छोटा है लेकिन यहां हर साल बलात्कार के 60,000 मामले दर्ज होते हैं, लेकिन उन पर कोई खास सुनवाई नहीं। दक्षिण अफ्रीका की लड़कियां भी खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं।
ब्रिटेन में बलात्कार की खबर को एक अखबार ने इस तरह रिपोर्ट किया- 'Rape the figures that shame Britain ( बलात्कार: आंकड़े जो ब्रिटेन को शर्मिंदा करते हैं)। भारत में जब रिपोर्टिंग होती है तो 'कहां कम', 'किसके शासनकाल में कितना ज्यादा' से तुलना करते हुए बात खत्म की जाती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अध्ययन के अनुसार भारत में हर 54वें मिनट में एक 'फीमेल' के साथ बलात्कार होता है। फीमेल इसलिए कहा जा रहा, क्योंकि बलत्कृता तीन माह और तीन साल के उम्र की भी है, जिन्हें स्त्री तो नहीं कह सकते हां बच्ची कह सकते हैं।
बलात्कार के आंकड़े देखा जाए तो 'नेशनल क्राइम ब्यूरो रिपोर्ट जो कि 1 जनवरी 2020 के आंकड़े के आधार पर है, इसमें 3.78 लाख पीड़ितों के रिकॉर्ड मामले दर्ज किए गए। साल 2018 की रिपोर्ट बताती है कि राज्यों में मध्य प्रदेश और राजधानी दिल्ली में बलात्कार पीड़ितों की सबसे ज्यादा संख्या है।
इन सारी बातों और आंकड़ों के बाद बात एक तरफ आकर ठहर जाती है। क्या इस तरह आंकड़े जुटाकर, कहीं ज्यादा और कहीं कम बताकर इस अमानवीय प्रवृति से छुटकारा पाया जा सकता है? आंकड़ों में भी थोपने नहीं समाधान की बात होनी चाहिए, बलात्कार की सजा पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
दरअसल, फांसी की सजा के बावजूद कानून, बलात्कारियों की मानसिकता में कोई खौफ पैदा करने में असमर्थ रहा है। यह निर्णय पीड़िता के परिवार भावुकता के आधार पर न लें और बलात्कारियों के लिए आजीवन कारावास के तहत कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान हो।
यह सुनिश्चित हो कि उनका अपराध सिद्ध होने पर उनके हिमायत में उन्हें बाहर की आवाज सुनने की, लोगबाग, सड़क या पेड़-पौधे वगैरह देखने की इजाजत न हो। और तो और उन्हें सूरज और चंद्रमा देखने की भी इजाजत कभी न मिले।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।