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जब विज्ञान चुप होता है और उपनिषद प्रश्न करता है: मन के पीछे कौन?

Ananya Mishra अनन्या मिश्रा
Updated Thu, 25 Dec 2025 03:08 PM IST
सार

प्रसिद्ध न्यूरोसाइंटिस्ट बेंजामिन लिबेट के प्रयोगों के बाद यह धारणा और मजबूत हुई है कि हमारा मस्तिष्क किसी निर्णय को लेने से पहले ही उसकी तैयारी कर चुका होता है। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि मनुष्य जिस स्वतंत्र इच्छा पर गर्व करता है, वह शायद केवल एक अनुभूति है, वास्तविकता नहीं।

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mind consciousness kena upanishad neuroscience neuro determinism free will philosophy Dr. Ananya Mishra blog
(प्रतीकात्मक फोटो) - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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याद है जब हम बच्चे थे और मन में उठने वाले विचारों पर कोई नियंत्रण नहीं होता था? जब अचानक किसी दिन छोटी सी बात पर उदासी आ जाती थी और अगले ही क्षण बिना किसी स्पष्ट कारण के प्रसन्नता मन को भर देती थी? और जब हम भोलेपन में यह पूछ बैठते थे कि आखिर ये विचार हमारे भीतर आते कहाँ से हैं... तो बड़े लोग मुस्कुरा कर कह देते थे कि मन है – ऐसा ही होता है, और हम उस उत्तर से संतुष्ट भी हो जाते थे क्योंकि तब हमारे पास प्रश्न को और गहराई तक ले जाने की भाषा नहीं थी।
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आज  हमारे पास शब्द हैं, सिद्धांत हैं, मनोवैज्ञानिक स्कैन हैं, आँकड़े हैं, और सबसे बढ़कर हमारे पास वह आत्मविश्वास है जिसके साथ आधुनिक विज्ञान यह दावा करता है कि मनुष्य का मन कोई रहस्यमय सत्ता नहीं बल्कि मस्तिष्क में चलने वाली विद्युत-रासायनिक प्रक्रियाओं का परिणाम है। यह भी कि हम जो सोचते हैं, जो महसूस करते हैं और जो निर्णय लेते हैं, वह सब हमारे सचेत होने से पहले ही हमारे मस्तिष्क में घटित हो चुका होता है। यही विचारधारा आज न्यूरो-डिटरमिनिज़्म के नाम से जानी जाती है, जो यह मानती है कि ‘स्वतंत्र इच्छा’ एक भ्रम है और मनुष्य वास्तव में अपने न्यूरॉन्स द्वारा निर्धारित एक जैविक प्रणाली भर है, लेकिन इसी बिंदु पर इतिहास का एक अत्यंत प्राचीन ग्रंथ ऐसा प्रश्न पूछता है जिसे सुनकर आज का विज्ञान भी क्षण भर के लिए मौन हो जाता है। यह प्रश्न है - “केनेषितं पतति प्रेषितं मनः?” अर्थात वह कौन है जिसकी प्रेरणा से मन विषयों की ओर दौड़ता है। केन उपनिषद में पूछा गया यह प्रश्न साधारण नहीं है, क्योंकि यह मन को अंतिम सत्ता मानने से इनकार करता है, और यह मानने से भी इनकार करता है कि विचार अपने आप उत्पन्न हो जाते हैं, क्योंकि यह सीधे उस स्रोत की ओर संकेत करता है जो मन से भी पहले मौजूद है। आधुनिक न्यूरोसाइंस यह मानती है कि विचार मस्तिष्क में न्यूरॉन्स के सक्रिय होने से उत्पन्न होते हैं।
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प्रसिद्ध न्यूरोसाइंटिस्ट बेंजामिन लिबेट के प्रयोगों के बाद यह धारणा और मजबूत हुई है कि हमारा मस्तिष्क किसी निर्णय को लेने से पहले ही उसकी तैयारी कर चुका होता है। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि मनुष्य जिस स्वतंत्र इच्छा पर गर्व करता है, वह शायद केवल एक अनुभूति है, वास्तविकता नहीं। लेकिन केन उपनिषद इस निष्कर्ष को स्वीकार नहीं करता, क्योंकि वह यह नहीं पूछता कि विचार कैसे बनता है, बल्कि यह पूछता है कि विचार को जानने वाला कौन है, और यही अंतर इस प्रश्न को असाधारण बना देता है। इसमें चर्चा की गयी है कि कान का भी कान है और मन का भी मन है, और यहाँ उपनिषद एक अत्यंत सूक्ष्म लेकिन निर्णायक बात कहता है कि मन स्वयं में चेतन नहीं है, बल्कि चेतना का एक उपकरण मात्र है। भारतीय दर्शन में मन को कभी भी अंतिम मूल नहीं माना गया, बल्कि उसे इंद्रियों और विचारों के बीच सेतु के रूप में देखा गया है। इसी प्रकार, चेतना को उस साक्षी के रूप में माना गया है जो मन के सभी उतार-चढ़ाव को देखता है, पर स्वयं उन उतार-चढ़ावों से प्रभावित नहीं होता। यहीं पर न्यूरो-डिटरमिनिज़्म और उपनिषद में द्वंद्व होता है। जहाँ विज्ञान यह कहता है कि चेतना मस्तिष्क की उपज है, वहीं केन उपनिषद यह कहता है कि मस्तिष्क और मन दोनों चेतना में प्रकट होते हैं, और चेतना स्वयं किसी भौतिक प्रक्रिया का परिणाम नहीं है। यह अंतर केवल दार्शनिक नहीं है, बल्कि इसके नैतिक और अस्तित्वगत परिणाम हैं, क्योंकि यदि चेतना केवल मस्तिष्क की गतिविधि है, तो मृत्यु के साथ ही सब कुछ समाप्त हो जाता है, और नैतिकता, अर्थ, उत्तरदायित्व और आत्मानुभूति जैसे सभी मूल्य केवल जैविक संयोग बनकर रह जाते हैं। लेकिन जिसे हम चेतना कहते हैं, न तो आँख से देखी जा सकती है, न शब्दों में व्यक्त की जा सकती है, क्योंकि यह वह है जहाँ न दृष्टि पहुंचती है और न ही वाणी। इस प्रकार, चेतना कोई वस्तु नहीं है जिसे देखा या मापा जा सके, बल्कि वह वह आधार है जिसमें देखना और मापना संभव होता है।

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आज जब न्यूरोसाइंस चेतना को मस्तिष्क के भीतर खोजने का प्रयास कर रही है, तब शायद हमें यह समझना होगा कि चेतना मस्तिष्क के भीतर नहीं, बल्कि मस्तिष्क के अनुभव का आधार है, और यह दृष्टिकोण आधुनिक विज्ञान के लिए चुनौतीपूर्ण होने के साथ-साथ अत्यंत आवश्यक भी है। इसका अर्थ यह नहीं कि हम विज्ञान को नकार दें या प्रयोग को असत्य मान लें। इसका अर्थ है कि भौतिक कारणों की व्याख्या करते-करते हम उस मौलिक प्रश्न को न भूल जाएँ कि अनुभव करने वाला कौन है। आवश्यक है कि मनुष्य अपनी सीमाओं को समझे, अपने स्रोत को पहचाने, और समझे कि आज की दुनिया को इन दोनों दृष्टियों के टकराव से नहीं, बल्कि उनके संवाद से अधिक लाभ हो सकता है। जब हम आज यह पूछते हैं कि मन किसके द्वारा प्रेरित होता है, तो यह केवल एक आध्यात्मिक प्रश्न नहीं रह जाता, बल्कि यह प्रश्न बन जाता है कि क्या हम अपने जीवन को केवल रासायनिक प्रतिक्रियाओं का परिणाम मानकर जीना चाहते हैं, या फिर उस चेतना को पहचानना चाहते हैं जो इन सभी प्रतिक्रियाओं को देख रही है। उत्तर खोजने के साथ हम उस प्रश्न के साथ जीना सीखें, जिसे पूछना ही स्वयं में एक आध्यात्मिक अभ्यास है। 


(लेखक आईआईएम इंदौर में सीनियर मैनेजर, कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन एवं मीडिया रिलेशन पर सेवाएं दे रही हैं।)
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