पाकिस्तान का सियासी संकट: एक बार फिर अंधी सुरंग में पड़ोसी मुल्क
हालिया दिनों में यूक्रेन,श्रीलंका और अब पाकिस्तान के उदाहरणों से यह हक़ीक़त सामने आ चुकी है कि मुल्क़ की पतवार अनाड़ी राजनेता को देने से राष्ट्र के जहाज़ का डूबना तय हो जाता है। लेकिन,पाकिस्तान का मामला तनिक अलग है। वहां तो लोकतंत्र पर ही स्थाई ग्रहण लगा है। फ़ौज़ के हाथों में खेलने वाले कठपुतली प्रधानमंत्री न तो खुलकर अपनी प्रतिभा दिखा पाते हैं और न सेना अब सीधे-सीधे देश को अपने नियंत्रण में लेना चाहती है।
हालिया दिनों में यूक्रेन,श्रीलंका और अब पाकिस्तान के उदाहरणों से यह हक़ीक़त सामने आ चुकी है कि मुल्क़ की पतवार अनाड़ी राजनेता को देने से राष्ट्र के जहाज़ का डूबना तय हो जाता है। लेकिन,पाकिस्तान का मामला तनिक अलग है। वहां तो लोकतंत्र पर ही स्थाई ग्रहण लगा है। फ़ौज़ के हाथों में खेलने वाले कठपुतली प्रधानमंत्री न तो खुलकर अपनी प्रतिभा दिखा पाते हैं और न सेना अब सीधे-सीधे देश को अपने नियंत्रण में लेना चाहती है।
विस्तार
पाकिस्तान के लिए मुश्किल घड़ी है। चारों तरफ़ से संकट के बादल मंडरा रहे हैं। एक तरफ आर्थिक बदहाली और दिवालिएपन के कग़ार पर खड़ा देश, दूसरी तरफ़ अस्थिर विदेश नीति के चलते चौधरी अमेरिका का ग़ुस्सा, तीसरी ओर क़र्ज़ नहीं चुका पाने के कारण ख़फ़ा चीन का रौद्र रूप और चौथी दिशा से संयुक्त विपक्ष का ज़ोरदार हमला।
दरअसल, पाकिस्तानी मतदाता निश्चित रूप से उस पल के लिए अपने आप को कोस रहे होंगे,जब उन्होंने बहुमत से इमरान ख़ान नियाज़ी को प्रधानमंत्री बनाने का जनादेश दिया था। हालिया दिनों में यूक्रेन,श्रीलंका और अब पाकिस्तान के उदाहरणों से यह हक़ीक़त सामने आ चुकी है कि मुल्क़ की पतवार अनाड़ी राजनेता को देने से राष्ट्र के जहाज़ का डूबना तय हो जाता है। लेकिन,पाकिस्तान का मामला तनिक अलग है। वहां तो लोकतंत्र पर ही स्थाई ग्रहण लगा है। फ़ौज़ के हाथों में खेलने वाले कठपुतली प्रधानमंत्री न तो खुलकर अपनी प्रतिभा दिखा पाते हैं और न सेना अब सीधे सीधे देश को अपने नियंत्रण में लेना चाहती है।
इधर, फौज को परदे के पीछे से सरकार चलाने का फायदा है कि परिणाम नहीं दे पाने पर नागरिक उसे ज़िम्मेदार नहीं ठहराते बल्कि नाकामियों का ठीकरा सरकार के सिर फोड़ते हैं। सेना की छबि आम आदमी के मन में अच्छी बनी रहती है। हालांकि इमरान ख़ान भी फौज का ही चुनाव थे। लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री चुनना सेना की बड़ी भूल थी।
दरअसल, इमरान ख़ान को उनकी नियति ने ऐसा अवसर दिया था,जो किसी खिलाड़ी को आसानी से नहीं मिलता। पर वे सियासत में आकर बदले नहीं। न अपना खिलंदड़ रवैया छोड़ पाए और न ही सियासी दांव पेंच समझ सके। वे बार-बार दोहराते हैं कि उनके ख़िलाफ़ साज़िश में अमेरिका का हाथ है। वही अमेरिका ,जो पाकिस्तानी उत्पादों का आयात करके जर्जर अर्थव्यवस्था को प्राणवायु दे रहा है। उसी अमेरिका को वे नाराज़ करके रूस की बेमतलब की यात्रा पर चले जाते हैं, जिस यूक्रेन से वे लगातार हथियार खरीदते हैं।
उधर भारत के ख़िलाफ़ अभियान में उसका समर्थन करते हैं लेकिन रूस से जंग में वे यूक्रेन का साथ नहीं देते। फाइनेंशल एक्शन टास्क फ़ोर्स की चेतावनियों को नज़रअंदाज़ करते हैं, मुल्क़ में आतंकवादी वारदातें नहीं रोक पाते, भारत से व्यापार रोकने का इकतरफ़ा ऐलान करके ग़रीब जनता की कमर तोड़ देते हैं,पत्रकारों पर बदले की कार्रवाई करते हैं और विपक्ष को भी एकजुट होने के तमाम अवसर देते हैं।
जाहिर है उन्हें मालूम है कि फ़ौज़ नहीं चाहे तो वे एक मिनट भी प्रधानमन्त्री नहीं रह सकते फिर भी वे हिन्दुस्तानी सेना की सार्वजनिक मंचों से तारीफ़ करते हैं और कहते हैं भारत की फ़ौज़ सियासत में दखल नहीं देती। उनके कथन को पाकिस्तानी सेना कैसे पसंद कर सकती थी। वे भारत की स्वतंत्र विदेश नीति की खुलकर प्रशंसा करते हैं मगर उन्हें अपनी आज़ाद विदेश नीति बनाने से कौन रोक रहा था ? जब देश के हित में नीति बनती है तो उस पर कोई ऐतराज़ नहीं करता। चाहे वह प्रतिपक्ष हो या सेना। ज़ाहिर है कि इमरान ख़ान के लिए खिलाड़ी से राजनेता बनना एक असंभव सा उद्देश्य था।उसमें वे क़ामयाब नहीं रहे हैं।
अल्पमत में आने के बाद भी उन्होंने देश के संविधान का मख़ौल उड़ाना नहीं छोड़ा। संसद भंग करने की सिफ़ारिश तो तब वैध या जायज़ ठहराई जा सकती है ,जबकि किसी भी सूरत में बहुमत की सरकार बनने की कोई संभावना नहीं होती। जब विपक्ष के मोर्चे को स्पष्ट बहुमत था और सरकार बनाने में सक्षम था तो संसद भंग कर नए चुनाव कराने की अल्पमत सरकार की सिफ़ारिश वैध नहीं ठहराई जा सकती। इस तथ्य को स्पीकर और राष्ट्रपति ने अनदेखा क्यों किया,निश्चित ही लोग जानना चाहेंगे।
आर्थिक रूप से कंगाल देश पर मध्यावधि चुनाव का बोझ डालना बेतुका इसलिए भी है कि एक पक्ष बहुमत से सरकार बनाने का दावा कर रहा है। उस दावे को प्रमाणित करने के लिए किसी तरह की परीक्षा नहीं चाहिए, क्योंकि इमरान को समर्थन दे रहे सांसद खुले तौर पर विपक्ष को समर्थन दे चुके हैं। आशा करें कि सर्वोच्च न्यायालय इस महत्वपूर्ण तथ्य की उपेक्षा नहीं करेगा कि देश पर अरबों रुपए का बोझ डाले बिना नई सरकार दी जा सकती है। लेकिन अभी तो इमरान ख़ान कार्यवाहक प्रधानमंत्री हैं। अब उन्हें एक और कार्यवाहक प्रधानमंत्री के चुनाव में सहायता करनी है।
संविधान के मुताबिक़ इमरान और विपक्ष के नेता शाहबाज़ शरीफ़ किसी एक नाम पर सहमत होंगे। वह कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनेगा और नए चुनाव तक काम करेगा। यदि दोनों शिखर नेता किसी नाम पर एकमत नहीं होते तो राष्ट्रपति अपनी ओर से दो नाम संसदीय समिति के पास भेजेगा। इस समिति में आठ सदस्य होंगे। चार-चार सदस्य पक्ष -प्रतिपक्ष के होंगे। यह समिति एक नाम पर सर्वसम्मति से मुहर लगाकर राष्ट्रपति को भेजेगी। इस तरह वह कार्यवाहक प्रधानमंत्री काम संभालेगा। चूंकि यह अंतरिम व्यवस्था होगी,इसलिए कामचलाऊ प्रधानमंत्री नीतिगत निर्णय नहीं ले सकेगा। इसका मतलब यह कि अगले कुछ महीनों में पाकिस्तान की वित्तीय हालत और ख़स्ता हो जाएगी। लेकिन इस बीच सुप्रीमकोर्ट का संसद भंग करने के ख़िलाफ़ फ़ैसला आया तो स्थितियां बदल जाएंगीं।
सुप्रीमकोर्ट को यह विचार करना है कि इमरान ख़ान सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा और मतदान से पहले ही संसद भंग करना क़ानूनी है या नहीं। दूसरा यह कि इमरान सरकार अल्पमत में थी तो फिर बहुमत का दावा करने वाले पक्ष को सरकार बनाने के लिए क्यों आमंत्रित नहीं किया गया? यह दोनों गंभीर मसले हैं और पाकिस्तान को मध्यावधि चुनाव से बचा सकते हैं।
महत्वपूर्ण यह भी है कि जो नई सरकार पाकिस्तान में बनेगी,वह कितनी निष्पक्ष और निर्भीक होकर लोकतांत्रिक ढंग से काम कर सकेगी ।उसमें फौज़ का कितना दख़ल होगा और वह सरकार को कितनी छूट देगी । कुल मिलाकर पाकिस्तान में स्वस्थ्य लोकतंत्र की स्थापना अभी भी दूर की कौड़ी है।