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समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता पर सवाल: आखिर किसे सही माना जाए? परनाना का संविधान सही या दादी का?
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सार
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि ये दो शब्द सनातन का अपमान हैं। उधर विपक्ष जो अन्य मुद्दों पर मोदी सरकार को घेरने में लगा था, उससे हटकर संघ और भाजपा पर हमले में जुट गया।

दत्तात्रेय होसबले।
- फोटो : एएनआई (फाइल)
विस्तार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने इमर्जेंसी के पचास साल पूरे होने के संदर्भ में आयोजित एक कार्यक्रम में भारतीय संविधान प्रस्तावना से ‘समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल करने पर पुनर्विचार का आह्वान कर पुराने मुद्दे में नया सियासी तड़का लगा दिया है। होसबले का कहना है कि संविधान में ये दो शब्द डॉ.बाबा साहब अंबेडकर द्वारा निर्मित मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे। इन्हें बाद में देश में लागू आपातकाल और नागरिकों के न्यायिक और मौलिक अधिकारों के निलंबन के चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने जबरन जुड़वाया।
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चूंकि इनका समावेश लोकतांत्रिक और संविधान की मूल भावना के विपरीत किया गया था, अत: अब इन्हें प्रस्तावना से हटाने पर गंभीरता से विचार किया जाए। उन्होंने यह भी कहा कि संविधान की प्रस्तावना शाश्वत है, लेकिन ‘समाजवादी’ जैसा राजनीतिक-आर्थिक विचार अस्थायी है। यही नहीं, उन्होने इस ‘अपराध’ के लिए कांग्रेस से माफी मांगने की मांग भी की। होसबले ने राहुल गांधी पर कटाक्ष किया कि जो लोग इस में शामिल थे, वो आज संविधान की प्रति हाथ में लेकर घूम रहे हैं। चूंकि यह विचार संघ की तरफ से आया था, इसलिए भाजपा नेताओं ने भी तत्काल उसका समर्थन कर दिया।
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उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि ये दो शब्द सनातन का अपमान हैं। उधर विपक्ष जो अन्य मुद्दों पर मोदी सरकार को घेरने में लगा था, उससे हटकर संघ और भाजपा पर हमले में जुट गया। कांग्रेस सांसद और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष (पंथ निरपेक्ष)’ शब्दों को हटाने की मांग से संघ का असली चेहरा सामने आ गया है।
संविधान इन्हें चुभता है, क्योंकि वो समानता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय की बात करता है। वो संविधान को ही खत्मकर देश में मनुस्मृति का राज कायम करना चाहते हैं। हम आरएसएस को कभी सफल नहीं होने देंगे। आशय यह कि संघ और भाजपा भारत को हिंदू या सनातन राष्ट्र बनाना चाहते हैं, जिसमे धर्मनिरपेक्षता के लिए कोई जगह नहीं है। राजद सुप्रीमो लालू यादव ने सोशल मीडिया पर आरएसएस को देश का सबसे बड़ा जातिवादी और घृणा फैलाने वाले संगठन बताते हुए कहा कि उसीने संविधान को बदलने की मांग की है।
होसबले ने जो कहा, उसके पीछे असल मकसद क्या है? क्या सचमुच संघ और उसकी राजनतिक शाखा संविधान की प्रस्तावना में बदलाव करने जा रहे हैं? क्या वो देश को हिंदू या सनातन राष्ट्र घोषित करने जा रहे हैं? ऐसा करना ही था तो बीते 11 साल में ऐसा क्यों नहीं किया? जहां तक भाजपा की बात है तो उसे इस बदलाव करने के पहले खुद अपनी पार्टी के संविधान में परिवर्तन करना होगा।
भाजपा पार्टी संविधान (अंग्रेजी वर्जन 2012) के article II objective में साफ लिखा है “ the party shall bear true faith and allegiance to the constitution of india as by law established and to the principles of socialism, secularism and democracy, unity and integrity of india.” संघ नेता के बयान के भरपूर समर्थन के बाद भी तत्काल ऐसा होना संभव नहीं दिखता। दरअसल देश में इमर्जेंसी हटने के बाद भी संविधान को उसके मूल स्वरूप में लौटाने की कोशिशें हुई।
जनता पार्टी के शासन में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने ये दो शब्द हटवाने के काफी प्रयास किए, लेकिन नाकाम रहे। क्योंकि इस पर सर्वानुमति नहीं बन पाई। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। कोर्ट ने स्पष्ट कह दिया कि ये ‘दो शब्द अब संविधान की प्रस्तावना का अभिन्न हिस्सा’ हैं और संविधान के मूल ढांचे में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता।
पूर्व सीजेआई के.जी.बालकृष्णन ने तो यह भी कहा कि संविधान में ‘समाजवादी’ शब्द से तात्पर्य साम्यवादी विचार भर न होकर कल्याणकारी राज्य से है, जोकि लोकतंत्र में अपेक्षित है। लेकिन यह भी सही है कि बाबासाहब अंबेडकर के मूल संविधान और जिसे लागू करने वाले पहले पहले प्रधानमंत्री और व्यक्ति राहुल गांधी के परनाना पं. जवाहरलाल नेहरू थे, की प्रस्तावना में ये शब्द नहीं थे। इसके पूर्व संविधान सभा में भी इस पर बहस हुई थी।
बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रो. के.टी.शाह ने नवम्बर 1948 में संविधान सभा में पुरजोर तरीके से यह संशोधन रखा कि “India shall be a Secular, Federal, Socialist Union of States.” ( भारत एक धर्म निरपेक्ष, संघीय, समाजवादी राज्यों का संघ होगा)। लेकिन संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ. भीमराव बाबा साहेब अंबेडकर ने इसे यह कहकर खारिज कर िदया कि ‘सेक्युलरिज्म’ संविधान की संरचना में अंतनिर्हित है।
इसलिए संविधान की प्रस्तावना में इसका अलग से उल्लेख करना ‘अतिरेक और गैरजरूरी’ है। उनका आशय था कि जब संविधान में सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, अभिव्यक्ति और उपासना की स्वतंत्रता, अवसरों की समानता और राष्ट्र की सार्वभौमता को सुनिश्चित करने वाले बंधुता की गारंटी है तो ‘समाजवाद’ और ‘सेक्युलरिज्म’ का भाव इसमें स्वत: निहित है।
यह सच है कि संविधान की प्रस्तावना में यह बदलाव 1976 में तब किया गया, जब देश में आपात काल लागू था। मौलिक और न्यायिक अधिकार निलंबित थे। संविधान संशोधन के लिए दोनो सदनो में दो तिहाई बहुमत और कम से कम देश के आधे राज्यों की विधानसभाओं का अनुमोदन जरूरी होता है।
संसद में संविधान में नए शब्द जोड़े जाने का 42 वां संशोधन बिल तत्कालीन कानून मंत्री एच. आर. गोखले ने प्रस्तुत किया। उस समय लोकसभा में कांग्रेस के 352 सांसद थे और लगभग पूरा विपक्ष जेल में था। लोकसभा में यह बिल दो तिहाई बहुमत से पास हो गया। केवल पांच सांसदों ने इसका विरोध किया था। इसी तरह राज्यसभा में भी यह पारित हो गया।
इस संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में ‘सार्वभौम लोकतांत्रिक गणराज्य’ ( सोवरिन, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक) के स्थान पर ‘सार्वभौम समाजवादी धर्मनिरपेक्ष (पंथनिरपेक्ष) लोकतांत्रिक गणराज्य’ ( सोवरिन सोशलिस्ट सेक्युलर रिपब्लिक) कर दिया गया। साथ ही देश की ‘एकता’ (यूनिटी ऑफ द नेशन) के स्थान पर देश की ‘एकता और अखंडता’ ( यूनिटी एंड इंटीग्रिटी आॅफ द नेशन) कर दिया गया। इसमें तीसरे बदलाव पर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी।
अब सवाल यह है कि आपातकाल में ऐसी कौन सी आफत आन पड़ी थी कि इन दो शब्दों को शामिल कराना अनिवार्य हो गया था? क्या श्रीमती गांधी की सत्ता के खिलाफ जनांदोलन को ‘अराजकता’ का खतरा मान लिया गया था या सत्ता को बचाने के इन दो शब्दों को ढाल बनाया गया? साम्यवादियों की नजर में शोषण मुक्त दुनिया की स्थापना के लक्ष्य की पूर्ति के लिए इन मूल्यों (शब्दों) को शामिल करना जरूरी था।
अगर इसे उस वक्त राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी संघ और भाजपा जैसे संगठनों का खतरे का परिणाम मानें तो तब तत्कालीन जनसंघ (अब भाजपा) की लोकसभा में मात्र 22 सीटें थीं और वोट प्रतिशत महज 7.35 फीसदी था। विपक्ष में मुख्य बोलबाला उन्हीं दलों का था, जो साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा में यकीन रखते थे और संविधान में ‘समाजवादी’ और ‘सेक्युलर’ शब्द के उल्लेख के बगैर भी अपनी राजनीतिक जमीन बचाए हुए थे (यह बात अलग है कि इस संशोधन के बाद उनकी सियासी जमीन खिसकती चली गई और कथित प्रतिगामी भाजपा जैसे दल मजबूत होते गए)। तो फिर इन दो शब्दों को जोडने के पीछे क्या विवशता अथवा प्रतिबद्धता रही होगी कि जो भावना संविधान में पहले ही स्पष्ट थी, उसे और सुस्पष्ट करना अपरिहार्य हो गया?
प्रश्न यह भी है कि जब तक इन शब्दो का संविधान में जिक्र नहीं था, तब क्या देश ‘समाजवादी’ ( नेहरू की सभी नीतियां समाजवादी ही थीं और श्रीमती गांधी भी उसी राह चल रही थीं) और ‘सेक्युलर’ नहीं था? और क्या इन शब्दों को हटाने से देश सेक्युलर नहीं रह जाएगा? क्या भारत में राज्य और धर्म को पश्चिमी और साम्यवादी देशों की तर्ज पर दूध से पानी की तरह अलग किया जा सकता है? क्या ये शब्द शोषण मुक्त दुनिया की ओर अग्रसर होने की नीयत और वामपंथियों के दबाव में जोड़े गए या फिर यह केवल राजनीतिक मांग भराई थी कि बगैर मांग भरे दुल्हन सुहागन नहीं मानी जाती?
कांग्रेस, संघ और भाजपा पर संविधान से छेड़छाड़ करने का आरोप लगाती रही है। लेकिन अगर संविधान के मूल ढांचे में कुछ ‘जोड़ना’ या ‘बदलना’ छेड़छाड़ नहीं है तो उसे हटाना छेड़छाड़ कैसे है? कहा यह भी जा रहा है कि इन दो शब्दों को हटाने से दलितो शोषितों को न्याय का रास्ता बंद हो जाएगा, जबकि प्रस्तावना में सभी को सामाजिक, राजनीतिक न्याय और अवसरों की समानता के बारे में बहुत स्पष्ट कहा गया है और ये अपरिर्तनीय है।
होसबले ने जो कहा उसकी राजनीतिक गूंज दूर तक जाने वाली है। ऐेसे में भाजपा और संघ संविधान की प्रस्तावना बदलें या न बदलें, लेकिन सबसे ज्यादा मुश्किल उस कांग्रेस की ही होने वाली है, जिसने लोकसभा में संविधान को बदलने का मुद्दा सफलता के साथ कैश किया था। बात और बढ़ी तो राहुल गांधी के सामने मुश्किल यह होगी कि वो वह बाबा साहब के मूल संविधान को सही माने या संशोधित प्रस्तावना वाले बाद के संविधान को वाजिब ठहराए? या यूं कहें कि राहुल गांधी अपने परनाना के संविधान को सही मानें या फिर दादी वाले संविधान को?
यह भी सही है कि संघ और भाजपा हिंदू राष्ट्र के पैरोकार हैं। लेकिन इस हिंदू राष्ट्र की परिभाषा भी अलग-अलग है। एक तो यह कि समूचे राष्ट्र को आधिकारिक तौर पर हिंदू राष्ट्र घोषित कर िदया जाए। दूसरा यह कि भारत में हिंदू राष्ट्र अंतनिर्हित, इसलिए सेक्युलर शब्द का महत्व औपचारिक ही है, जैसा कि कुछ कांग्रेस नेता भी मानते हैं, तीसरा विकल्प भारत के कुछ पड़ोसी देशों जैसे संविधान का है, जिनमें कई में ‘सेक्युलरिज्म’ के साथ बहुसंख्यकों के धर्म को ‘विशेष दर्जा’ दिया गया है।
नेपाल के संविधान (2015) में राज्य सेक्युलर घोषित होने के बाद भी ‘प्राचीन धार्मिक व सांस्कृतिक परंपरा के पालन की गारंटी है। जबकि श्रीलंका के संविधान के अनुच्छेद 9 में सभी को अपना धर्म पालन की स्वतंत्रता है, लेकिन बौद्ध धर्म ‘सर्वोपरि’ है। भूटान में बौद्ध धर्म अधिकृत धर्म होने के साथ बाकी को अपना धर्म पालन की आजादी है।
म्यांमार में कोई राजधर्म नहीं, लेकिन बौद्ध धर्म की ‘विशेष स्थिति’ है। पाकिस्तान तो घोषित रूप से इस्लामिक राज्य है। लेकिन दूसरे धर्मों को मानने की स्वंतत्रता है। बांग्लादेश में भी 1972 के संविधान में मुख्य धर्म इस्लाम को बताते हुए सेक्युलरिज्म को भी मूलभूत सिद्धांतों में शामिल किया गया है। जबकि साम्यवादी चीन में अधिकृत धर्म कोई नहीं हैं। वहां व्यक्तिगत रूप से धर्म पालन की स्वतंत्रता है।
वैसे चीन में मुख्यत: पांच धर्म हैं। पहला है कनफ्युशियस धर्म, दूसरा ताओ धर्म, तीसरा बौद्ध, चौथा ईसाई व पांचवां इस्लाम। संविधान में सचमुच बुनियादी बदलाव होगा, होगा तो कब और कैसे होगा, या यह केवल राजनीतिक शोशेबाजी है, यह अभी अस्पष्ट है। फिलहाल तो यही लगता है कि होसबले ने संविधान को उसके मूल रूप में लौटाने का मुद्दा उछाल कर गेंद विपक्ष की डी में ही डाल दी है, जो पलटवार के साथ साथ सेल्फ गोल बचाने में लग गए हैं।
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