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बदलता समाज: सरकारी नौकरी के मोह को लेकर माइंड सेट बदलें युवा
सार
- इतिहास में झांकें तो राजशाही के समय राज-दरबार या राजा की सेना में सरकारी नौकर होते थे। ब्रिटिशकाल के समय “सरकारी अफसर” होना समाज में प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। तब सरकारी तंत्र ही रोजगार का सबसे बड़ा साधन था।
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सरकारी नौकरी (सांकेतिक)
- फोटो : Freepik.com
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विस्तार
पिछले दिनों राजस्थान में चतुर्थ श्रेणी के 53,749 पदों के लिए भर्ती परीक्षा हुई। आश्चर्यजनक रूप से 24.75 लाख अभ्यर्थी परीक्षा में शामिल हुए, जिनमें पी.एचडी, बी-टेक, पोस्ट ग्रेजुएट, एमबीए, एम.एससी जैसी डिग्री हासिल कर चुके युवा शामिल थे। कुछ तो ऐसे भी थे, जो राजस्थान एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (आरएएस) की प्रारंभिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुके थे।
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भारत में सरकारी नौकरी का क्रेज
कमाल की बात यह है कि इन पदों के लिए आवेदन करने वाले 75-90 प्रतिशत अभ्यर्थी ओवर क्वालिफाइड थे। बड़ी डिग्रियां हासिल करने के बावजूद आखिरकार चतुर्थ श्रेणी की नौकरी करने की क्या मजबूरी है? इसका जवाब पद में नहीं "सरकारी" शब्द में छिपा है।
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दरअसल, भारत में सरकारी नौकरी का क्रेज वेतन या सुविधाओं का सवाल नहीं है, यह समाज की गहरी मानसिकता, सुरक्षा की चाह और सामाजिक मान्यता का प्रतीक बना हुआ है। सभी राज्यों में लाखों युवा सरकारी नौकरी के सपने को पाने के लिए दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं। निजी सेक्टर भले तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन सरकारी नौकरी सपनों की मंजिल बनी हुई है।
ब्रिटिशकाल से ही रहा है प्रतिष्ठा का मामला
इतिहास में झांकें तो राजशाही के समय राज-दरबार या राजा की सेना में सरकारी नौकर होते थे। ब्रिटिशकाल के समय “सरकारी अफसर” होना समाज में प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। तब सरकारी तंत्र ही रोजगार का सबसे बड़ा साधन था। निजी उद्योग सीमित थे और जोखिम भरे माने जाते थे।
पेंशन और सुरक्षा सरकारी नौकरी की सबसे बड़ी गारंटी थी। साथ ही, निजी क्षेत्र में नौकरी छूटने का डर हमेशा बना रहता है, जबकि सरकारी नौकरी में एक बार चयन हो गया तो निकालना लगभग असंभव होता है।
सरकारी नौकरी में समय पर वेतन, महगाई भत्ता, मकान भत्ता, चिकित्सा सुविधा और सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन जैसी योजनाएं कर्मचारी और परिवार दोनों को सुरक्षित करती हैं। कोविड महामारी के दौरान लोगों ने सरकारी नौकरी के फायदों को बहुत अच्छी तरह से महसूस किया।
क्या कहता है मनोविज्ञान?
मनोविज्ञान भी कहता है कि करियर चुनना केवल पैसों से तय नहीं होता, बल्कि यह व्यक्ति की मूलभूत जरूरतों एवं सामाजिक परिवेश से भी प्रभावित होता है। मनुष्य का मन सदैव अनिश्चितता से डरता है और सरकारी नौकरी इस डर को दूर करती है। सरकार नौकरी आत्मसम्मान और सामाजिक पहचान की जरूरत को पूरा करती है। फिर बचपन से अभिभावक या समाज बच्चों को सरकारी अफसर या टीचर बनना सिखाते हैं। यह सामाजिक प्रोग्रामिंग युवाओं के मन में गहराई से बैठ जाती है।
सरकारी नौकरी को सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़कर भी देख सकते हैं। गांवों या छोटे कस्बों में सरकारी नौकरी वाला व्यक्ति बड़ा बाबू या अफसर कहलाता है। शादी के लिए भारतीय परिवार आज भी सरकारी नौकरी को प्राथमिकता देते हैं फिर जीवन और कार्य संतुलन में भी सरकारी नौकरी निजी क्षेत्र के मुकाबले अधिक आकर्षक होती है।
निजी कंपनियों में 10–12 घंटे काम करना आम बात है, जबकि सरकारी नौकरियों में कार्य समय अपेक्षाकृत नियंत्रित होता है और छुट्टियों का प्रावधान भी बेहतर है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर युवाओं से रोजगार देने वाला बनने की वकालत करते हैं। वो युवाओं से आत्मनिर्भर होने पर जोर देते हैं, क्योंकि सरकारें जानती हैं कि सभी युवाओं को सरकारी नौकरी नहीं दी जा सकती है। केंद्र सरकार के पास नौकरियां समिति हैं।
मार्च 2025 के आंकड़ों को देखें तो केंद्र सरकार में 35 लाख कर्मचारी थे। केंद्र और राज्यों में सरकारी नौकरियों की संख्या को जोड़ भी लें तो यह 1.5 करोड़ से अधिक नहीं है। फिर भी सरकारी नौकरी की लालसा ने शहर-शहर कोचिंग सेंटर खुलवा दिए हैं।
करीब-करीब सभी छोटे-बड़े शहरों में कोचिंग उद्योग खड़ा हो गया है। हर साल करोड़ों युवा इन कोचिंग सेंटर्स पर अपने जीवन के कई सौ घंटे बिताते हैं। अधिकांश छात्र परीक्षा में असफल रहते हैं, फिर भी वो सालों-साल तैयारी में जुटे रहते हैं।
भारत में पढ़े-लिखे बेरोजगार युवाओं की लगातार बढ़ती संख्या निश्चित रूप से सरकारों के लिए परेशानी का सबब बन रही है, क्योंकि सभी को रोजगार नहीं दिया जा सकता। यह बात युवाओं को भी पता है। आज आवश्यकता युवाओं को अपना माइंड सेट बदलने की है।
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