मूल संविधान की प्रस्तावना और सोशलिस्ट और सेक्युलर शब्द? आखिर क्यों हो रही है बहस?
दत्तात्रेय होसबाले ने कहा है कि प्रिएंबल में सोशलिस्ट (समाजवादी) और सेक्युलर (धर्मनिरपेक्ष) शब्दों को लेकर देश में खुली बहस होनी चाहिए, क्योंकि यह दोनों शब्द मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे। आपातकाल के दौरान संसद में चर्चा या सहमति के बगैर इन्हें जोड़ दिया गया था।

विस्तार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने भारतीय संविधान की प्रस्तावना (प्रिएंबल) को लेकर एक बार फिर बहस छेड़ दी है।

दत्तात्रेय होसबाले ने कहा है कि प्रिएंबल में सोशलिस्ट (समाजवादी) और सेक्युलर (धर्मनिरपेक्ष) शब्दों को लेकर देश में खुली बहस होनी चाहिए, क्योंकि यह दोनों शब्द मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे। आपातकाल के दौरान संसद में चर्चा या सहमति के बगैर इन्हें जोड़ दिया गया था।
दत्तात्रेय होसबाले के वक्तव्य को लेकर कांग्रेस पार्टी भी मैदान में उतर आई है। वो संघ और भाजपा पर संविधान बदलने को लेकर हमलावर है, लेकिन दत्तात्रेय होसबाले जो मुद्दा उठा रहे हैं, उसे लेकर कांग्रेस की ओर से कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं दी जा रही है।
दरअसल, भारतीय संविधान के प्रमुख शिल्पी डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान में संशोधन को लेकर अपना दृष्टिकोण रखा था। उन्होंने न तो संविधान को पत्थर की लकीर माना था और न ही से बार-बार बदलने योग्य एक अस्थिर दस्तावेज। डॉ. अंबेडकर का स्पष्ट मत था कि हमने एक ऐसा संविधान बनाया है, जो न तो पूरी तरह कठोर है और न ही पूरी तरह लचीला, बल्कि दोनों के बीच संतुलन रखता है, यानी सविधान में जरूरत पड़ने पर बदलाव हो सके, लेकिन यह इतना आसान भी न हो कि कोई सरकार अपने फायदे के लिए लगातार उसे बदल दे।
हालांकि, डॉ. अंबेडकर के जीवित रहते ही संविधान लागू होने के मात्र डेढ़ साल यानी 18 जून 1951 को तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पहला संशोधन संविधान में कर दिया था। उस समय अदालतों ने कुछ कानूनों को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के कारण निरस्त कर दिया था। विशेषकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संपत्ति का अधिकार और समता का अधिकार को लेकर चुनौतियां सामने आई थीं।
तब अनुच्छेद 19(2) में संशोधन कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर न्यायोचित प्रतिबंधों की अनुमति दी गई, जैसे सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता, राष्ट्र की सुरक्षा आदि। पहले संशोधन में अनुच्छेद 31बी और नौवीं अनुसूची जोड़ी गई थी। जिन कानूनों को अदालतें रद्द कर रही थीं (विशेषकर भूमि सुधार कानून), उन्हें संविधान से संरक्षण देने के लिए नौवीं अनुसूची बनाई गई। इसमें डाले गए कानूनों को न्यायिक समीक्षा से छूट मिली।
सामाजिक और आर्थिक न्याय को प्राथमिकता दी गई और सरकार को गरीबों के हित में भूमि सुधार जैसे कार्यों के लिए शक्ति दी, भले वे संपत्ति के अधिकार को प्रभावित करें। स्पष्ट था, संविधान में संशोधन तो संविधान बनने के साथ ही शुरू हो गए थे।
आपातकाल के दौरान संविधान में संशोधन
लेकिन, संविधान में सबसे बड़ा संशोधन आपातकाल के दौरान तब किया गया, जब पूरा विपक्ष जेलों में बंद था। संसद में बगैर चर्चा के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने 42वें संशोधन, जिसे लघु संविधान भी कहा जाता है, से संविधान के मूल स्वरूप को काफी हद तक बदल दिया। 42वें संशोधन में मौलिक अधिकारों में कटौती की गई थी। प्रिएंबल में सोशलिस्ट, सेक्युलर तथा यूनिटी एवं इंटीग्रिटी शब्द को जोड़ा गया।
इस संशोधन में न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कई प्रतिबंध लगाए गए। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की न्यायिक समीक्षा शक्तियां सीमित कर दी गईं। मूल अधिकारों की रक्षा को कमजोर किया गया था। लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल पांच साल से बढ़कर छह साल कर दिया गया।
जब वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार आई तो उसने वर्ष 1978 में संविधान में 44वां संशोधन कर 42वें संशोधन को काफी हद तक पलट दिया। मौलिक अधिकारों की सुरक्षा को फिर मजबूत किया गया। लोकसभा का कार्यकाल पांच साल किया गया। सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक समीक्षा शक्ति बहाल की गई, यानी कांग्रेस ने बिना चर्चा के संविधान में जो संशोधन किया था, उसमें संसद के माध्यम से सुधार किया गया।
आपातकाल की घोषणा पर नियम बनाए गए, जिनमें कहा गया कि राष्ट्रपति तभी राष्ट्रीय आपातकाल घोषित कर सकता है, जब कैबिनेट की लिखित सलाह हो। संसद को आपातकाल की समीक्षा करने और उसे छह महीने के भीतर दोबारा मंजूरी देने की शक्ति दी गई। पर, आश्चर्यजनक यह है कि प्रिएंबल में जोड़े नए शब्दों को ज्यो की त्यो छोड़ दिया गया।
आज तक तिथि तक संविधान में 106 बार संशोधन हो चुका है, जिसमें कांग्रेस नीत सरकारों ने 55 साल में 77 संशोधन और भाजपा नेतृत्व की एनडीए सरकारों ने 16 साल में 22 संशोधन किए हैं।
वैसे, आपातकाल लागू करने और उस दौरान किए बदलावों पर कांग्रेस सदैव खुली चर्चा से बचती रही है, लेकिन इनदिनों उसने नया राग अलापा है, आपातकाल बनाम अघोषित आपातकाल का, ताकि मूल चर्चा से बचा जा सके। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के बयानों से स्पष्ट हो रहा है कि वो 50 वर्ष पुराने आपातकाल की चर्चा को अप्रासंगिक मान रहे हैं। वो चर्चा को वर्तमान सरकार के इर्द-गिर्द रखना चाहते हैं। इसी लाइन पर इंडी गठबंधन के अन्य सहयोगी भी चल रहे हैं, जबकि उनमें कई ऐसे हैं, जो आपातकाल के दौरान जेल गए थे।
हालांकि, प्रिएंबल में जोड़े सोशलिस्ट और सेक्युलर शब्द का मुद्दा पहले भी उठ चुका है और यह बहस चलती आ रही है कि मूल संविधान में जो प्रिएंबल है, उसे ही स्वीकार किया जाए। यह समय का आवश्यकता है कि संसद में एक बार पुनः इस विषय पर चर्चा हो। अगले महीने जुलाई में संसद का मानसून सत्र प्रस्तावित है। बेहतर तो यही हो कि पक्ष-विपक्ष मिलकर इस संदर्भ में संसद में स्वस्थ चर्चा करे।
जनता से भी सुझाव मांगे जा सकते हैं। संविधान निर्माताओं ने जिस मूल संविधान की प्रस्तावना को स्वीकार किया था, उसे आखिर संविधान बनने का बाद बदलना क्यों पड़ा? इस सवाल का जवाब तो ढूंढा ही जाना चाहिए।
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