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बिहार चुनाव परिणाम 2025: कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी हार से सबक लेंगे या एक्टिविज्म पॉलिटिक्स जारी रखेंगे?

Vinod Patahk विनोद पाठक
Updated Fri, 14 Nov 2025 04:50 PM IST
सार

राहुल गांधी को कांग्रेस पार्टी विचारशील नेता मानती है। पार्टी का मानना है कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और संविधान बचाओ जैसी पहल ने लोकतंत्र व नैतिकता की राजनीति को एक नई पहचान दी।

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Will the Congress Party and Rahul Gandhi learn from the defeat or will they continue with activism politics
हरिओम वाल्मीकि के परिवार से मिलते हुए राहुल गांधी। - फोटो : पीटीआई
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विस्तार
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हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे... यह बात कांग्रेस पार्टी की स्थिति को बखूबी बयां करती है। बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन न केवल निराशाजनक रहा, बल्कि उसने अपने सहयोगी दलों के लिए भी कठिनाई बढ़ा दी।

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अधिक सीटों पर लड़ने की जिद और जमीनी हकीकत से दूरी ने पार्टी को उसके इतिहास के सबसे खराब नतीजों तक पहुंचा दिया। कभी भारतीय राजनीति में सत्ता, संगठन और स्थायित्व की प्रतीक रही कांग्रेस आज न तो जनता के लिए प्रेरक पार्टी रह गई है, न सहयोगी दलों के लिए भरोसेमंद साथी। 
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पिछले एक दशक में पार्टी दोहरी चुनौती से जूझ रही है, एक ओर भाजपा का मजबूत राष्ट्रवादी नैरेटिव और दूसरी ओर क्षेत्रीय दलों का उभार। इन दोनों मोर्चों पर कांग्रेस की रणनीति लगातार विफल रही है और इसका केंद्रबिंदु कोई और नहीं, बल्कि स्वयं उसके युवराज राहुल गांधी हैं।

राहुल गांधी को कांग्रेस पार्टी विचारशील नेता मानती है। पार्टी का मानना है कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और संविधान बचाओ जैसी पहल ने लोकतंत्र व नैतिकता की राजनीति को एक नई पहचान दी। हालांकि, समस्या यह है कि यह नैतिकता वोटों में तब्दील नहीं हो सकी।

राहुल गांधी ने राजनीति को एक नैतिक युद्ध तो बना दिया, लेकिन भारतीय मतदाता चुनाव को आदर्शों की नहीं, व्यवहार और परिणाम की कसौटी पर परखता है। राहुल गांधी हर मंच से लोकतंत्र, संविधान और संस्थागत स्वतंत्रता की बात करते हैं।

ये बातें महत्वपूर्ण हैं, लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश या राजस्थान जैसे राज्यों के मतदाता अब यह नहीं पूछते कि लोकतंत्र बचा या नहीं, वे पूछते हैं, 'मेरे बच्चे की नौकरी कहां है?' कांग्रेस इस मूल प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकी है। फिर उसका स्वयं का इतिहास लोकतंत्र, संविधान और संस्थागत स्वतंत्रता (आपातकाल) के खिलाफ रहा है। 

सत्ताधारी पार्टी को कभी ईवीएम तो कभी उद्योगपतियों के सवाल पर घेरने वाले राहुल गांधी ने इस साल वोट चोरी का मुद्दा उठाया। उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा ने चुनावी मशीनरी (चुनाव आयोग) का दुरुपयोग किया, लेकिन बिहार के नतीजे बताते हैं कि यह आरोप जनता के बीच असरदार नहीं हो सका है। मतदाता ने इसे हार की जिम्मेदारी से बचने का बहाना माना।

इस अभियान ने कांग्रेस को शिकायत करने वाली पार्टी के रूप में पेश किया, जबकि जनता आज विजेता मानसिकता वाले नेतृत्व के साथ खड़ी है। दरअसल, मतदाता समाधान चाहता है, शिकायत नहीं। राहुल गांधी का यह नैरेटिव पार्टी को पीड़ित की छवि में ले गया, जबकि विपक्षी राजनीति में जनता को भरोसे और उम्मीद की जरूरत होती है, निराशा की नहीं।

कांग्रेस की गिरावट का सबसे बड़ा कारण संगठनात्मक कमजोरी भी है। राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी ने वैचारिक विमर्श पर जोर तो दिया, लेकिन संगठनात्मक पुनर्गठन की अनदेखी की। प्रदेश इकाइयों में न नए चेहरों को मौका मिला, न बूथ-स्तर पर कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया गया। राहुल गांधी स्वयं अपनी भूमिका को लेकर असमंजस में दिखाई देते हैं।

कभी कहते हैं कि वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं तो कभी पार्टी का पूरा अभियान उन्हीं पर केंद्रित होता है। यह अस्पष्टता कार्यकर्ताओं में भ्रम पैदा करती है। परिणामस्वरूप, कांग्रेस एक समय की काडर आधारित पार्टी से कैंडिडेट आधारित संगठन बन चुकी है, जहां विचार से अधिक टिकट का महत्व रह गया है।

बिहार का चुनाव कांग्रेस के पतन की स्पष्ट तस्वीर पेश करता है। वर्ष 2015 में जब राजद-जद (यू)-कांग्रेस का महागठबंधन सत्ता में आया था, तब कांग्रेस ने 27 सीटें जीतकर उल्लेखनीय वापसी की थी, लेकिन अब वह महज 4–5 सीटों तक सिमट गई। राजद जैसे सहयोगी अब खुले तौर पर कह रहे हैं कि कांग्रेस सीटें तो अधिक मांगती है, लेकिन वोट नहीं जोड़ पाती।

कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह अपनी ताकत का आकलन यथार्थ के बजाय पुराने आंकड़ों के आधार पर करती है। यह वही गलती है, जो उसने वर्ष 2020 में भी की थी, जब उसे 70 सीटें दी गईं और उसने केवल 19 जीतीं। फिर भी उसने इस बार उतनी ही सीटें मांग लीं। 

राहुल गांधी की नेतृत्व शैली अब गठबंधन राजनीति में विवाद का कारण बन चुकी है। इंडी गठबंधन के कई बड़े क्षेत्रीय दल, जैसे ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, एम.के. स्टालिन की डीएमके और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, कांग्रेस को कमजोर, लेकिन महत्वाकांक्षी सहयोगी मानते हैं।

राहुल गांधी की यह छवि बनी है कि वे संवाद के बजाय उपदेश देना पसंद करते हैं। यह रवैया सहयोगियों को असहज करता है। गठबंधन राजनीति में सफलता का मूल मंत्र होता है, 'सुनना और समायोजन करना', लेकिन कांग्रेस अपने सहयोगियों को केवल दिशा बताना चाहती है, साथ चलना नहीं। यही कारण है कि विपक्षी एकता का ताना-बाना लगातार बिखरता जा रहा है।

राहुल गांधी ने बेरोजगारी, शिक्षा और स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर युवा वर्ग को जोड़ने की कोशिश की, लेकिन जेन-जी यानी नई पीढ़ी उनके संदेश से जुड़ नहीं पाई। वजह यह कि उनके भाषण वैचारिक तो हैं, लेकिन समाधानमूलक नहीं। युवा आज अवसर चाहता है, आदर्श नहीं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, मेक इन इंडिया जैसे अभियानों को युवाओं से सीधे जोड़ा, जबकि कांग्रेस अब भी नैतिक विमर्श के दायरे में सिमटी है। राहुल गांधी का सबसे बड़ा संकट यह है कि वे राजनीति को एक नैतिक आंदोलन के रूप में देखते हैं, जबकि मतदाता उसे व्यवहार और समाधान की प्रक्रिया मानता है।

राहुल गांधी सही प्रश्न उठाते हैं, लेकिन जवाब उसी भाषा में नहीं देते, जिसे जनता समझ सके। उनका भाषण आदर्शों से भरा होता है, लेकिन उसमें ठोस नीति की झलक नहीं होती। भ्रष्टाचार, असमानता और संस्थागत गिरावट जैसे विषय जरूरी हैं, लेकिन जब सवाल होता है, रोजगार कहां से आएगा? तो कांग्रेस का जवाब अस्पष्ट रहता है।

अब सवाल यह नहीं कि कांग्रेस हारी क्यों?, बल्कि यह है कि वह अब अपनी हार से क्या सीखेगी? क्या राहुल गांधी एक्टिविज्म पॉलिटिक्स से आगे बढ़कर एक सशक्त संगठन खड़ा करेंगे? कांग्रेस को अब केवल विचार नहीं, क्रियान्वयन की राजनीति अपनानी होगी। पार्टी को प्रदेश वार नेतृत्व विकसित करना होगा। बूथ-स्तर तक पुनर्गठन करना होगा।

युवाओं, महिलाओं और ग्रामीण मतदाताओं के लिए ठोस नीति पेश करनी होगी। राहुल गांधी को भी अपनी भूमिका स्पष्ट करनी होगी। क्या वे केवल वैचारिक मार्गदर्शक रहेंगे या सत्ता के दावेदार बनेंगे? यह अस्पष्टता जितनी लंबी चलेगी, कांग्रेस का क्षरण उतना तेज होगा।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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