पर्यावरण दिवस: अभी नहीं जागे तो वो दिन दूर नहीं जब खरीदनी पड़ेंगी सांसें
पर्यावरण मानव के जीवन का अभिन्न अंग है। मानव के जीवन को विकसाने में पर्यावरण की भूमिका एक निर्माणकारी तत्व की है। यदि पर्यावरण नहीं होता तो मानव जीवन ही नहीं अपितु पादप व प्राणी जीव के जीवन की कल्पना करना भी दूभर था। संतुलित व मानव अनुकूल पर्यावरण ने अपने आंचल में प्रत्येक प्राणी को जीवन व्यतीत करने के लिए वे समस्त संसाधन उपलब्ध कराएं जो जीवन जीने के लिए अनिवार्य होते हैं। लेकिन एक समय के बाद मानवीय जीवन में हुई विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की प्रगति व तकनीकी घुसपैठ ने न कि केवल मानवीय जीवन की दिशा को परिवर्तित करके रख दिया अपितु पर्यावरण और प्रकृति का शुद्ध-सात्विक रूप भी काफ़ी हद तक विकृत कर दिया।
कथित विकास को प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा में मनुष्य ने पर्यावरण को सर्वाधिक क्षति पहुंचाने का कार्य किया हैं। यहां कथित विकास शब्द का प्रयोग इसलिए करना उचित होगा कि वास्तविक विकास का प्रतिमान कतई पर्यावरण अवनयन की इजाजत नहीं देता है। इसके विपरीत आधुनिक कथित विकास तो पर्यावरण अवनयन एवं प्रदूषण की बिसात पर ही टिका है। आज कथित विकास का पैमाना तो यह हो चुका है कि जितना ज़्यादा जो देश पर्यावरण का अवनयन करेगा वह उतना ही विकसित देशों की श्रेणी में अग्रणी गिना जाएगा।
यहीं कारण है कि आज विभिन्न राष्ट्रों के मध्य विकास की एक ऐसी निरर्थक होड़ मची हुई हैं जिसमें पर्यावरण को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। इस क्रम में केवल विकसित राष्ट्र ही नहीं अपितु विकासशील राष्ट्रों को भी कथित रूप से विकसित होने का ऐसा चस्का लग चुका हैं कि वे भी दिन-रात पर्यावरण का गला घोंटने में प्रयासरत नर आ रहे हैं। विकसित राष्ट्रों को यह चिंता है कि उन्होंने यदि पर्यावरण अवनयन के संकट के कारण अपने को विकसित बनाने वाले उद्योगों व कल-कारखानों को बंद कर दिया तो उनका राष्ट्र अधिक समय तक विकसित नहीं रह पाएगा।
वहीं, विकासशील राष्ट्र तो पहले से ही विकसित बनने के लिए हर संभव तरीके से पर्यावरण को नुकसान पहुंचा ही रहे हैं। पर्यावरण समस्या की यह स्थिति इतनी जटिल होती जा रही है कि वैश्विक स्तर पर पर्यावरणीय संस्थाओं द्वारा आयोजित कराए गये पर्यावरण संरक्षण के कार्यक्रमों में बनायी गयी योजनाओं व नियमों की अनुपालना भी सही ढंग से नहीं हो पा रही हैं। भले वह स्टॉकहोम सम्मेलन हो या रियो डि जेनेरो का पृथ्वी सम्मेलन, मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल हो या क्योटो प्रोटोकॉल, सभी में विकृत होते पर्यावरण व प्रकृति को लेकर कई योजनाएं बनी और कई कार्यक्रम संचालित करने का निर्णय हुआ लेकिन मीनी धरातल पर इन सारी योजनाओं और कार्यक्रमों का अब तक उचित क्रियान्वयन नहीं होने के कारण पर्यावरण संरक्षण की कवायद अंजाम तक नहीं पहुंच सकीं।
अकेले भारत में पर्यावरण संस्था के लिये 200 कानून मौजूद होने के बावजूद भी विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 15 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में हमारे 14 शहर शामिल हैं। सच तो यह है कि हम प्रकृति के हित की बातें भी एयरकंडिशनर चैंबर्स में बैठकर करना उचित समझते हैं। कहने को तो हमारे ग्रंथों व पुराणों में ''माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या'' अर्थात् धरती को माता का दर्जा दिया गया है और उसके प्रति सारे मनुष्यों को पुत्र (संतान) के जैसा आचरण करने की बात बतायी गयी है। लेकिन इसके विपरीत आज के मनुष्य का आचरण तो कदापि भी धरती के प्रति माँ के समरूप दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है।
धरती तो आज भी मां के समान पालन पोषण के लिए अन्न से लेकर कई महत्वपूर्ण संसाधन मानव को उपलब्ध करा रही है लेकिन बदले में मानव कलियुगी पुत्र बनकर उसके साथ छलावा पर छलावा ही करता जा रहा है। वस्तुतः पॉलिथीन के बढ़ते प्रयोग व हानिकारक रासायनिक तत्वों के उपयोग के कारण आज धरती अपनी उर्वरक क्षमता खोकर कैंसर की बीमारी से जूझ रही है। वर्षा के बरसने के उपरांत भी पॉलिथीन के कारण धरती के हलक तक पानी नहीं पहुंच पा रहा है। जब पानी हलक तक ही नहीं पहुंच पायेगा तो उसकी कोख में भू-जल संग्रहण कैसे हो पायेगा? परिणामतया आज धरती बंजर होकर अपनी हरी-भरी चुनर को छोड़कर संकट के कारण लाल चुनर ओढ़े जा रही है। असंतुलित होते पर्यावरण के कारण आज न केवल मनुष्य के जीवन पर आपदाएं आ रही हैं बल्कि इस आपदा के फेर में फंसकर कई पशु-पक्षियों की प्रजातियां सदैव के लिए लुप्तप्राय-सी होती जा रही हैं।
इधर, हरित ग्रह प्रभाव के कारण भूमि का तापमान प्रत्येक वर्ष वृद्धि करता जा रहा है। कार्बन डाई आक्साइड, नाइट्रस आक्साइड, मीथेन इत्यादि भूमंडलीय ऊष्मीकरण के लिए उत्तरदायी गैसों का उत्सर्जन सूर्य से आने वाले किरणों के अवशोषण में बाधक तत्व बन रहा है। वहीं क्लोरो-फ्लोरो कार्बन गैस के बढ़ने के कारण ओजोन (रक्षा कवच) का अवक्षय हो रहा है। परिणामतया मानव शरीर के लिए हानिकारक सूर्य की पराबैंगनी किरणें धरती पर पहुंचकर कई बीमारियों को न्यौता दे रही हैं। इसी हरित ग्रह प्रभाव के कारण जलवायु भी परिवर्तित हो रही है। जिसके कारण हमें सर्दी में गर्मी और गर्मी में सर्दी का अहसास हो रहा है।
वहीं, कारखानों की चिमनियों, बसों व स्वचालित वाहनों के विषैले धुएं के रूप में निकलने वाली सल्फर डाइआक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी गैसें जल के साथ क्रिया करके नाइट्रिक अम्ल और गंधक का तेजाब बनकर अम्ल वर्षा के रूप में धरती पर बरस रही है। जिसके कारण जलीय प्राणियों की मृत्यु, खेतों और पेड़-पौधों की वृद्धि में गिरावट के साथ ही तांबा और सीसा जैसे घातक तत्वों का पानी में मिल जाने के कारण मानव के स्वास्थ्य पर कई प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहे हैं।
यदि अब भी हम सचेत नहीं हुए तो वह समय दूर नहीं जब हमें सांसे भी खरीदने पड़ेगी। अब पर्यावरण के संकेत को समझकर इसकी हत्या बंद कर देने में ही हमारी भलाई हैं। क्योंकि जो पर्यावरण जीवन को विकसित करने में सहायक सिद्ध हो सकता हैं वह समय आने पर विनाश का ताडंव भी कर सकता है। आए दिन आने वाले भूकंप, बाढ़, तूफान, चक्रवात, भूस्खलन, ज्वालामुखी विस्फोट, सुनामी जैसी भीषण प्राकृतिक आपदाएं प्रकृति के विरुद्ध छेड़ी गई मानव की जंग का ही नतीजा है। आज ज़रूरत है कि हम निश्चयवाद (प्रकृति ही सर्वश्रेष्ठ है) व संभववाद (मानव के लिए सब संभव है) की अवधारणा से आगे बढ़कर नव निश्चयवाद यानी 'रुको-और-जाओ' की विचारधारा अर्थात् ''वातावरण के प्रति समन्वय करने के लिए पहले रुको अर्थात् सोच विचार करो, वातावरण के प्राकृतिक संसाधनों का मूल्यांकन करो और उपलब्ध संभावनाओं में से अनुकूल का चयन कर विकास प्रोग्राम की पूर्ति करो'' का अनुसरण करें।
यदि सही मूल्यांकन किए बिना अंधाधुंध प्रकृति से छेड़छाड़ करते रहे और उसकी सीमाओं का उल्लंघन करते रहे तो कुछ भी हाथ नहीं आएगा। साथ ही, आमजन में पर्यावरण शिक्षा एवं अवबोध को लेकर जागरूकता लायी जाएं। प्रकृति के पारंपरिक ऊर्जा के स्रोत (गैस, तेल और कोयला) के सीमित उपयोग के साथ ही यथासंभव उनके स्थान पर उर्जा के गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्त्रोत (सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा, बायोगैस और परमाणु ऊर्जा) के उपयोग को लेकर ध्यान आकर्षित किया जाएं। यहां हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि पर्यावरण प्रदूषण का प्रमुख कारण जनसंख्या में वृद्धि होना भी है। इस बढ़ती जनसंख्या के लिए भरण पोषण एवं जीवन की सामान्य सुविधाएं उपलब्ध कराने की दृष्टि से वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान का उपयोग करते हुए संसाधनों का तीव्र गति से अंधाधुंध दोहन किया जा रहा हैं। इसीलिए जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में कदम उठाने की आज महती आवश्यकता है। साल में केवल एक दिन 5 जून को ''विश्व पर्यावरण दिवस'' के नाम पर पर्यावरण की चिंता और कोरी भाषणबाजी करने से पर्यावरण संरक्षण संभव नहीं हो सकता है। पर्यावरण तब ही संरक्षित व सुरक्षित होगा जब हम बड़ी-बड़ी योजनाओं की बजाय सहभागिता के साथ छोटी-छोटी कोशिशों को अंजाम देने लगेंगे।
अंततः आज हमें सर्व सहभागिता के साथ पर्यावरण संरक्षण को लेकर सच्चे मन से प्रयास करने ही होंगे वरना देर तो पहले ही हो चुकी है कई बहुत देर हमें संरक्षण का भी अवसर नहीं दे पाये इसलिए अब जाग जाना चाहिए। हमारे पूर्वजों ने वन्य जीवों को देवी-देवताओं की सवारी मानकर तथा पेड़-पौधों को भी देवतुल्य समझकर उनकी पूजा की इस हेतु उन्हें संरक्षण भी प्रदान किया। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रकृति और पर्यावरण के लिए हर उस काम से परहेज़ करें जिससे उसे हानि का सामना करना पड़े। व्यापक पैमाने पर वृक्षारोपण करने हेतु अभियान चलाने, जन-जागृति लाने जैसी मुहिम इस दिशा में सार्थक पहल होगी। हमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के इस कथन पर विचार करना चाहिए- ''पृथ्वी हमें अपनी ज़रुरत पूरी करने के लिए पूरे संसाधन प्रदान करती है लेकिन लालच पूरा करने के लिए नहीं।'