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विरोधाभास: अमेरिका को जरूरत है दोस्तों की, मगर ट्रम्प की नीतियों से दूर हो रहे हैं मित्र

द न्यूयॉर्क टाइम्स का एडिटोरियल बोर्ड Published by: लव गौर Updated Sat, 20 Dec 2025 07:18 AM IST
सार
बीजिंग से मुकाबला करने के लिए अमेरिका को ऐसे गठबंधन बनाने होंगे, जो सिर्फ सैन्य सहयोग तक सीमित न हों, बल्कि चीन की औद्योगिक ताकत का मुकाबला करने के लिए आर्थिक और तकनीकी स्तर पर भी साथ काम करें। लेकिन ट्रंप की नीतियां, उन्हें भारत समेत सभी दोस्तों से भी दूर कर रही हैं।
 
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America needs friends, but Trump's policies are driving away its allies
प्रतीकात्मक तस्वीर - फोटो : अमर उजाला प्रिंट

विस्तार
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अमेरिका के हथियारों के जखीरे में टॉमहॉक क्रूज मिसाइल सबसे अहम हथियारों में से एक है, जो एक हजार मील से भी ज्यादा दूर तक जाकर लक्ष्य के बेहद करीब एक हजार पाउंड तक का विस्फोटक गिरा सकती है। जून में, अमेरिकी सेना ने अपने एक भी सैनिक को खतरे में डाले बगैर ऐसी 30 मिसाइलें दागकर ईरान की परमाणु सुविधाओं के कुछ हिस्सों को नष्ट किया। यूरोप, पश्चिमी एशिया और एशिया में बढ़ते खतरों को देखते हुए, अमेरिका और उसके सहयोगियों को इन मिसाइलों की बड़ी जरूरत है। अगर युद्ध लंबे समय तक चलता है, तो अमेरिका के अपने सैनिकों के लिए ही टॉमहॉक मिसाइलें कम पड़ सकती हैं।


पिछले साल अमेरिका, जापान की एक फैक्टरी में टॉमहॉक मिसाइलों के सह-उत्पादन के समझौते के काफी करीब पहुंच गया था, जिससे इन मिसाइलों का उत्पादन लगभग दोगुना हो सकता था। पर बात बन नहीं सकी। इसकी वजह जापान नहीं, बल्कि खुद अमेरिकी अंतर्विरोध था। यह कहा गया कि अमेरिका के बाहर मिसाइल के उत्पादन से अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचेगा और तकनीक में अमेरिकी बढ़त भी खतरे में पड़ सकती है। लेकिन, यह प्रकरण अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े एक केंद्रीय सवाल की ओर इशारा करता है। अमेरिका अकेले अपने दम पर चीन की तेजी से बढ़ती औद्योगिक ताकत का मुकाबला नहीं कर सकता। दुनिया के कुल विनिर्माण में चीन की हिस्सेदारी करीब 28 प्रतिशत है, जबकि अमेरिका की भागीदारी लगभग 17 फीसदी ही है। अब अमेरिका के सामने वही खतरा खड़ा है, जैसा 19वीं सदी के अंत में ब्रिटेन और 20वीं सदी में जर्मनी व जापान के सामने था, यानी एक तेजी से उभरती औद्योगिक ताकत के मुकाबले सैन्य रूप से पीछे रह जाना। हालांकि, यह भी है कि भले ही अमेरिका अकेले चीन का मुकाबला नहीं कर सकता, लेकिन जब उसके सबसे करीबी सहयोगी, जिनमें जापान, दक्षिण कोरिया, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय संघ शामिल हैं, उसके साथ मिल जाएं, तो वह चीन की उत्पादन क्षमता का मुकाबला बेहद आसानी से कर सकता है।


बहुत लंबे अरसे से, कई सहयोगी देशों ने अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी अमेरिका पर ही छोड़ रखी थी। इन देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था का बहुत छोटा हिस्सा रक्षा पर खर्च किया और ज्यादातर अमेरिका पर निर्भर रहे। लेकिन एशिया में चीन की बढ़ती आक्रामकता और यूरोप में रूस के युद्ध के खतरे को देखते हुए अब ऐसा संभव नहीं है। अमेरिका को भी ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और जापान जैसे भरोसेमंद दोस्तों पर ज्यादा विश्वास करना चाहिए। साथ ही, अमेरिका को ऐसे गठबंधन बनाने होंगे, जो सिर्फ सैन्य सहयोग तक सीमित न हों, बल्कि चीन की औद्योगिक ताकत का मुकाबला करने के लिए आर्थिक और तकनीकी स्तर पर भी एकसाथ काम करें। लेकिन इसके उलट, अमेरिकी राष्ट्रपति खुद ही इन गठबंधनों की बुनियाद को कमजोर कर रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की ग्रीनलैंड पर कब्जा करने की धमकियों के बाद, डेनमार्क ने कहा कि वह अमेरिकी कंपनियों के बजाय यूरोपीय कंपनियों से मिसाइल रक्षा प्रणाली खरीदेगा। इस साल की शुरुआत में जब डोनाल्ड ट्रंप ने कुछ समय के लिए यूक्रेन को दी जाने वाली सैन्य और खुफिया मदद पर रोक लगा दी थी, तो कुछ सहयोगियों ने कहा कि वे एफ-35 का इस्तेमाल करने पर फिर से विचार करेंगे।

ट्रंप इसी तरह एशिया में अमेरिका के लिए जरूरी रिश्तों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। उन्होंने जापान के साथ बातचीत को सैन्य उत्पादों पर केंद्रित करने के बजाय चावल जैसी वस्तुओं पर किया। ट्रंप ने भारत के साथ चीन के खिलाफ गठबंधन बनाने की 25 साल की कोशिशों को तब कमजोर कर दिया, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के साथ तनाव कम करने का श्रेय उन्हें देने से इन्कार कर दिया, जिसके बाद ट्रंप ने भारत पर टैरिफ लगा दिए।

इस दौरान चीन अपने औद्योगिक क्षेत्र में बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है। बराबरी बनाए रखने के लिए, अमेरिका को अपने सहयोगियों की मदद की जरूरत है। पिछले छह दशकों में, अमेरिका ने अपनी जीडीपी का तीन प्रतिशत से 9.4 प्रतिशत तक रक्षा पर खर्च किया है, जबकि अमेरिका के कई सहयोगी देशों का खर्च तो एक प्रतिशत से भी कम रहा है। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में हालात बदलने लगे हैं। जापान ने कहा है कि वह अपनी जीडीपी का दो प्रतिशत रक्षा पर खर्च करेगा। यूरोप ने भी ज्यादा खर्च करने की इच्छा दिखाई है। रूस द्वारा यूक्रेन पर किए गए युद्ध और साथ ही ट्रंप की नाटो से बाहर निकलने की धमकियों ने नाटो के सदस्य देशों को आने वाले वर्षों में अपनी जीडीपी का लगभग पांच प्रतिशत रक्षा पर खर्च करने का वादा करने के लिए प्रेरित किया है। बिजली उत्पादन और जहाज निर्माण जैसे क्षेत्रों में, मजबूत गठबंधन चीन के साथ प्रतिस्पर्धा में काफी हद तक फर्क ला सकते हैं।

इन सबके बावजूद, 21वीं सदी में अमेरिका जो गठबंधन बनाएगा, वे पुराने दौर के गठबंधनों से अलग ही होंगे। अब देशों के पास दूसरे विकल्प भी मौजूद हैं। साथ ही, अमेरिका को विकासशील देशों में अपने रिश्तों को फिर से मजबूत करने की कोशिश शुरू करनी होगी, जहां सहायता में कटौती और दूसरे सॉफ्ट पावर साधनों के कमजोर पड़ने से चीन को आगे बढ़ने का मौका मिला है। चीन कोई अजेय देश नहीं है। उसके सामने भी कई बड़ी समस्याएं हैं, जैसे आबादी का तेजी से बूढ़ा होना, संपत्ति की कीमतों में गिरावट और गहराई तक फैला भ्रष्टाचार आदि। फिर भी, अगर बीजिंग किसी मोड़ पर लड़खड़ाता है, तो भी वह आने वाली सदी तक ताकतवर बना रहेगा। इसकी बड़ी वजह उसकी विशाल आबादी, बड़ा भौगोलिक विस्तार और मजबूत आर्थिक आधार है। आदर्श स्थिति तब होगी, जब अमेरिका के सभी सहयोगी उसके साथ मिलकर काम करें। ऐसा संभव भी है।

हाल के वर्षों में, जब पश्चिमी सहयोगी टैंक नहीं दे पाए, तो दक्षिण कोरिया ने पोलैंड को टैंक मुहैया कराए। जब उत्तर कोरिया ने रूसी सेनाओं के समर्थन में यूक्रेन में सैनिक भेजे, तो सियोल ने नाटो देशों के पास खुफिया अधिकारियों का एक दल भेजा। दरअसल, बात सिर्फ सैन्य सहयोग की नहीं है। जिस तरह यूरोप को 20वीं सदी के अधिनायकवाद से अमेरिका की औद्योगिक शक्ति की वजह से बचाया गया था, उसी तरह वाशिंगटन को आने वाली प्रतिस्पर्धा में जहां भी संभव हो, साझा मकसद ढूंढना होगा। चीन की आर्थिक, व्यापार और मैन्युफैक्चरिंग शक्ति के लिए ऐसे गठबंधनों की जरूरत होगी, जो युद्ध के मैदान से परे भी एकसाथ खड़े रहें। लंबे समय तक बीजिंग की ताकत का मुकाबला करने के लिए, अमेरिका को जितने दोस्त मिल सकते हैं, उन सभी की जरूरत होगी।
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