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मनरेगा बनाम वीबी-जी राम जी: गरीबों की जीवन रेखा पर सियासत और सनातन प्रश्न
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सार
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मनरेगा की फाइल फोटो
- फोटो :
पीटीआई
विस्तार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सत्तारूढ़ भाजपा सरकार से एक सवाल पूछा जाना चाहिए- आपने महात्मा गांधी के नाम पर बने एकमात्र सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम को खत्म क्यों कर दिया? उनके नाम पर चलने वाला यह कार्यक्रम था- महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा), जिसे एक अधिनियम का संरक्षण प्राप्त था।सरकार ने अब संसद में विधेयक संख्या 197, 2025 पारित कर उस अधिनियम और योजना को निरस्त कर दिया है। विधेयक की धारा 37 (1) में कहा गया है- “केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचना के माध्यम से निर्धारित तिथि से महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 और उसके तहत बनाए गए सभी नियम, अधिसूचनाएं, योजनाएं, आदेश और दिशा-निर्देश समाप्त माने जाएंगे।” बात यहीं खत्म नहीं होती। विधेयक की धारा 8 (1) में प्रत्येक राज्य सरकार को बाध्य किया गया है कि वह ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक परिवार को एक वित्तीय वर्ष में 125 दिनों के मजदूरी आधारित रोजगार की गारंटी देने के लिए एक नई योजना बनाए। यह योजना विधेयक की अनुसूची-1 में वर्णित न्यूनतम विशेषताओं के अनुसार होनी चाहिए। अनुसूची-1 में बताई गई पहली विशेषता यह है कि धारा 8 के अंतर्गत सभी राज्यों द्वारा अधिसूचित इस योजना का नाम होगा- ‘विकसित भारत रोजगार और आजीविका गारंटी मिशन (ग्रामीण) : वीबी-जी राम जी योजना’। यह नाम कठिन और बोझिल है। गैर हिंदी भाषी नागरिकों के लिए इसका कोई स्पष्ट अर्थ नहीं है। इस नाम से नागरिकों के प्रति असंवेदनशीलता व्यक्त होती है।
मनरेगा में क्या था
मनरेगा में एक साल में करीब 12 करोड़ परिवारों के लिए 100 दिनों की मजदूरी आधारित रोजगार की गारंटी थी। इस योजना ने सुनिश्चित किया कि कोई भी गरीब परिवार भूखा और निराश होकर सोने के लिए मजबूर नहीं होगा। यह योजना विशेष रूप से गरीबों, महिलाओं और उन बुज़ुर्गों के लिए वरदान साबित हुई, जिनके पास नियमित रोजगार नहीं था। योजना से महिलाओं के हाथ में सीधा पैसा पहुंचा, जिससे उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता का अहसास हुआ। वह स्वतंत्रता, जिसका अनुभव पहली पीढ़ियों ने कभी नहीं किया था। गरीबों के लिए मनरेगा ने सामाजिक सुरक्षा कवच के रूप में काम किया, लेकिन यह नया विधेयक इन लाभों से वंचित कर देगा।
यूपीए सरकार के पहले बजट (2004–05) में मैंने कहा था, “योजना के फंड पर पहला अधिकार गरीबों का होगा... राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम पर काम शुरू हो चुका है। इसक लक्ष्य हर गरीब परिवार के एक सक्षम व्यक्ति को साल में 100 दिनों का रोजगार देना है।” इस अधिनियम की आत्मा थी- ‘गारंटीकृत आजीविका सुरक्षा’। इसके प्रमुख तत्व इस प्रकार थे-
- यह योजना सार्वभौमिक, मांग आधारित और साल भर उपलब्ध थी।
- मजदूरी की गारंटी केंद्र सरकार द्वारा दी जाती थी।
- योजना का वित्त पोषण मुख्य रूप से केंद्र सरकार करती थी, राज्यों का योगदान केवल सामग्री लागत का 25 प्रतिशत था।
- अगर किसी व्यक्ति को काम देने से इनकार किया जाता था तो उसे बेरोजगारी भत्ता पाने का अधिकार था।
- समय के साथ योजना में महिला श्रमिकों के पक्ष में एक सकारात्मक झुकाव दिखाई दिया।
मूल भावना के विपरीत
हाल में पास विधेयक और इसके अंतर्गत प्रस्तावित नई योजना मनरेगा की मूल भावना के विपरीत है। यह योजना अब राज्य विशेष की होगी। इसका खर्च केंद्र और राज्य 60:40 के अनुपात में उठाएंगे। केंद्र सरकार प्रत्येक राज्य के लिए धन का एक ‘मानक आवंटन’ तय करेगी। यदि किसी राज्य का वास्तविक खर्च इस आवंटन से अधिक हुआ तो उसकी जिम्मेदारी पूरी तरह राज्य सरकार पर होगी। इसके अलावा किन क्षेत्रों में यह योजना लागू होगी, यह भी केंद्र सरकार ही तय करेगी। इससे यह योजना मांग आधारित से आपूर्ति आधारित योजना में बदल गई है।
राज्य सरकारों से कहा जाएगा कि वे 125 दिनों के रोजगार की ‘गारंटी’ दें। यह एक मुश्किल काम होगा। कृषि में फसल के व्यस्त चक्र (बुवाई, कटाई), जो साल में करीब 60 दिन होता है, में किसी प्रकार का काम उपलब्ध नहीं कराया जाएगा। बेरोजगारी भत्ते में कटौती का अनुमान है। इसे 25 प्रतिशत तक सीमित किया जा सकता है। बेरोजगारी भत्ते को राज्य की क्षमता और कई अन्य शर्तों से जोड़ दिया गया है। सभी अंतिम फैसले केंद्र सरकार के होंगे, जिससे यह विधेयक संघीय ढांचे के खिलाफ हो जाता है। सच्चाई यह है कि प्रस्तावित योजना ‘गारंटीकृत आजीविका सुरक्षा’ की मूल अवधारणा को उलट देती है। संभव है, भाजपा शासित राज्य आर्थिक असमानता का हवाला देकर कम आवंटन मांगें और योजना को सीमित क्षेत्र में लागू करके धीरे-धीरे इसे महत्वहीन बना दें।
स्मृति से मिटाने की कोशिश
28 फरवरी, 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में कहा था- “मेरी राजनीतिक समझ मुझे मनरेगा को खत्म करने की सलाह नहीं देती। यह आपकी (यूपीए की) विफलताओं का जिंदा स्मारक है।” पिछले कुछ वर्षों में मनरेगा को हाशिये पर रखा गया। हालांकि योजना में 100 दिन के रोजगार का वादा किया गया था, लेकिन एक परिवार में औसत रोजगार 50 दिन के आसपास ही सिमटकर रह गया।
आंकड़े बताते हैं कि 8.61 करोड़ जॉब कार्ड धारकों में से 2024-25 में 40.75 लाख परिवार ही 100 दिन का काम पा सके। 2025-26 में यह संख्या घटकर मात्र 6.74 लाख परिवारों तक रह गई। राज्य सरकारों द्वारा दिए जाने वाले बेरोजगारी भत्ते की किसी ने सुध नहीं ली। मनरेगा बजट की बात करें तो यह 2020-21 में 1,11,170 करोड़ से घटकर 2025-26 में 86,000 करोड़ रुपये रह गया। जिन परिवार को काम मिल रहा है, उनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है। 2020-21 में 7.55 करोड़ परिवारों को काम मिला था। 2024-25 में यह संख्या गिरकर 4.71 करोड़ रुपये रह गई। अवैतनिक मजदूरी का बकाया बढ़कर 14,300 करोड़ रुपये पहुंच गया। खामियों के अलावा रोजगार गारंटी का यह नया विधेयक देश की स्मृति से मिटाने का एक सोचा समझा प्रयास लगता है। इस तरह की गंभीर ऐतिहासिक गलतियों को क्या माफ किया जा सकता है?
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