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टाइम मशीन: एकाधिकार के जख्म, भारत से लेकर अमेरिका तक... और इतिहास के सबक
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सार
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इंडिगो संकट के दौरान की तस्वीर
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अमर उजाला प्रिंट
विस्तार
वर्ष 1994 में भारत ने एविएशन सेक्टर में सरकारी एकाधिकार खत्म किया था। फिर निजी एयरलाइंस आईं। तब से आज तक कई एयरलाइंस आईं, उड़ीं और डूबीं, मगर इस दिसंबर जैसा हाल कभी नहीं हुआ। इंडिगो ने अकेले एक दिन में पूरे देश को घुटनों पर ला दिया। इंडिगो के पास घरेलू विमानन बाजार का करीब 65 प्रतिशत हिस्सा है, इसलिए पूरा एविएशन सेक्टर बैठ गया। जहाज जमीन पर थे, मगर हवाई किराये आसमान छूने लगे।भारत ने पहली बार देखा और झेला कि एकाधिकार कितने निर्मम होते हैं। इंडिगो के प्रकरण से सरकार ने क्या समझा या सीखा, यह तो पता नहीं। मगर हम आपको ले चलते हैं एक ऐसे सफर पर, जहां दिखेगा कि बाजार में जब कोई एक कंपनी बला की ताकतवर हो जाती है, तो फिर जो संकट आता है, वह उस कंपनी का नहीं रहता-वह आम आदमी की जिंदगी को जकड़ लेता है। ऐसी हालत में सरकारों को क्या करना पड़ता है, इसे जानने के लिए, टाइम मशीन में पकड़िए अपनी सीट।
यह वर्ष 1872 है। टाइम मशीन पहुंच गई है क्लीवलैंड, ओहायो। सर्दी की हवा, बर्फीली सड़कें, घोड़ागाड़ियां और कच्चे तेल की तेज गंध तो आप भी महसूस कर रहे होंगे। उधर देखिए, शांत चेहरा, ठंडी आंखें और शानदार सूट पहने जो आदमी अपने ऑफिस से निकल रहा है, उसका नाम है जॉन डी रॉकफेलर, उम्र महज 32 साल। दो साल पहले उसने स्टैंडर्ड ऑयल कंपनी शुरू की थी। छोटा-सा प्लांट। वह अपने एक सहयोगी को बता रहा है कि कॉम्पिटिशन अराजकता लाता है, जबकि कंसोलिडेशन व्यवस्था। आगे आपको पता चलेगा कि रॉकफेलर ने ऐसा क्यों कहा है।
ओहायो के कारोबारी गलियारों से आ रही खबरों को सुनिए। रॉकफेलर ने रेल कंपनियों से गुप्त डील की है, उन्हें सीक्रेट छूट दी गई है। उसने कारोबार कब्जाने का एक अनोखा मॉडल बनाया है। स्टैंडर्ड ऑयल का तेल सस्ते में बाजार पहुंचता है, बाकी सब का महंगा। यदि तेल की दर 1.50 डॉलर प्रति बैरल है, स्टैंडर्ड को रेल कंपनी 0.50 डॉलर तक छूट देती, यानी उसे सिर्फ एक डॉलर देना पड़ता। लेकिन असली खेल ‘ड्रॉबैक’ में था-जब कोई प्रतिद्वंद्वी अपना तेल उसी रेल से भेजता, तो उसकी पूरी फ्रेट (1.50 डॉलर) में से 25-50 सेंट स्टैंडर्ड ऑयल को वापस मिल जाता। मतलब, प्रतिद्वंद्वी जितना ज्यादा तेल भेजता, स्टैंडर्ड को उतना ही मुफ्त पैसा। नतीजा यह कि रॉकफेलर के प्रतिस्पर्धियों का तेल महंगा होता गया है। कुछ ही महीनों में छोटी रिफाइनरी बिक गईं या बंद हो गईं। यह डील एक किस्म की रिश्वत है। देखते-देखते स्टैंडर्ड ऑयल का बाजार हिस्सा 90 फीसदी पर पहुंच गया है। यह बिजनेस नहीं, रणनीतिक कब्जा है। 1872 की शुरुआत में क्लीवलैंड में 26 रिफाइनरियां थीं। महज छह हफ्तों में 22 स्टैंडर्ड ऑयल की हो गईं। इतिहास इसे क्लीवलैंड मैसाकर के नाम से दर्ज करेगा।
अब आगे बढ़ते हैं, मिलते हैं एक पत्रकार इडा टारबेल से। साल है 1900 का। उनके पिता भी छोटे तेल व्यापारी थे, जिनका कारोबार स्टैंडर्ड ऑयल ने डुबो दिया। वर्षों बाद टारबेल अब अपनी कलम से जवाब दे रही हैं। रॉकफेलर की स्टैंडर्ड ऑयल को लेकर टारबेल की खबरों से अमेरिका के उद्योग जगत में सनसनी फैल गई है। इडा ने 1900 से 1902 तक के हजारों दस्तावेज खंगाले और कई दस्तावेज पढ़े। रॉकफेलर के पार्टनर हेनरी फ्लैगलर ने उसे इंटरव्यू दिया, यह सोचकर कि तारीफ लिखेगी। पर टारबेल ने लिखा कि स्टैंडर्ड ऑयल कॉम्पिटिशन नहीं, उद्योग का कैरेक्टर खत्म कर रही है। टारबेल का खुलासा बड़े मौके पर आया है। 19वीं सदी के मध्य से अमेरिका में रेलरोड्स और स्टील जैसे उद्योगों में विशाल एकाधिकार बनने लगे थे, जो कीमतें तय करते थे, छोटे कारोबारियों को कुचलते थे और आम आदमी की जेब पर बोझ डालते थे। इन विशाल कंपनियों या ट्रस्ट को ‘रॉबर बैरंस’ कहा जाने लगा है। दो जुलाई, 1890 को राष्ट्रपति बेंजामिन हैरिसन ने शर्मन एंटी ट्रस्ट एक्ट पर हस्ताक्षर किए। यह अमेरिका का पहला संघीय कानून है, जो एकाधिकार को अवैध घोषित करता है।
इडा टारबेल ने रॉकफेलर के एकाधिकार के बखिये खोल दिए हैं। मैक्लर्स मैगजीन में 19 लेख छपे। फिर टारबेल की किताब आई, जो इतनी प्रभावशाली है कि इसे 20वीं सदी के टॉप 100 जर्नलिज्म लेखन में पांचवां स्थान मिला। पहली बार लोगों ने समझा कि दुनिया की सबसे दक्ष और सक्षम कंपनी स्टैंडर्ड ऑयल, दरअसल दूसरों की गर्दन पर पैर रखकर इतनी बड़ी बनी थी। रॉकफेलर टारबेल को ‘पॉइजनस वुमन’ कह रहे हैं, लेकिन टारबेल ने अमेरिका के इस सुपर रिच को अदालत पहुंचा दिया है। जनता बेहद गुस्से में है। 1906 में थियोडोर रूजवेल्ट की सरकार ने शर्मन एंटी ट्रस्ट एक्ट के तहत स्टैंडर्ड ऑयल पर मुकदमा दायर किया है। आरोप है-बाजार को जबरन कब्जाने के लिए रिश्वत, प्राइस फिक्सिंग व प्रतिद्वंद्वियों को कुचलना।
यह 15 मई, 1911 है। सुप्रीम कोर्ट ने 9-0 से फैसला दिया कि रॉकफेलर की स्टैंडर्ड ऑयल एक अवैध मोनोपॉली है। स्टैंडर्ड ऑयल को 34 अलग कंपनियों में तोड़ा गया। एक्जॉन, मोबिल, शेवरॉन कोनाको इसी से निकलीं। मगर आपको पता है कि मोनोपॉली टूटने से रॉकफेलर और ज्यादा अमीर हो जाएंगे।
टाइम मशीन आगे बढ़ती है। हम 1913 में हैं और अमेरिका में हैं। टेलीफोन का जमाना है। थियोडोर वेल ने एटीएंडटी की कमान संभालते ही सरकार से कहा है कि इतनी सारी टेलीकॉम कंपनियां किस काम की! यूनिफाइड सिस्टम जरूरी है। सरकार मान गई है। एटीएंडटी को कानूनी मोनोपॉली मिल गई है।
टाइम मशीन 1940 की तरफ बढ़ रही है। इस मोनोपॉली की शुरुआत अच्छी रही। 1920 से 1940 तक फोन गांवों तक पहुंचे, कनेक्शन तेज हुए। लेकिन अब अमेरिका को लग रहा है मोनोपॉली का पेट बड़ा होता जा रहा है, नवाचार की भूख छोटी। 70 साल बीत गए हैं, एक ही ब्लैक रोटरी फोन है। अमेरिकी लोगों को फोन भी एटीएंडटी की सब्सिडियरी वेस्टर्न इलेक्ट्रिक से खरीदना पड़ता है और वह भी महंगी कीमत पर। रॉकफेलर की तरह वेल ने भी ‘वन सिस्टम, वन पॉलिसी, यूनिवर्सल सर्विस’ का नारा दिया।
टाइम मशीन 1980 के दशक में है। अमेरिका के अखबार एटीएंडटी पर एंटी ट्रस्ट कार्रवाई का इशारा कर रहे हैं। अमेरिकी जस्टिस डिपार्टमेंट 1956 से ही एटीएंडटी की मोनोपॉली पर नजर रख रहा था। असली ट्रिगर 1974 में आया-नया मुकदमा दायर हुआ। आरोप यह था कि एटीएंडटी ने नई कंपनियों को अपने नेटवर्क से ब्लॉक किया, उपकरणों की आपूर्ति रोकी और कॉम्पिटिशन को खत्म कर दिया। मुकदमे की कमान जज हैरॉल्ड ग्रीन को मिली है। सुनवाई आठ साल चली। एटीएंडटी को तोड़ने का आदेश हो गया। यह एक जनवरी, 1984 की आधी रात है। दुनिया की सबसे बड़ी टेलीकॉम कंपनी टूट रही है। एटीएंडटी से ‘बेबी बेल्स’-बेल अटलांटिक, साउथवेस्टर्न बेल, नैनेक्स जैसी सात कंपनियां बनीं। एक झटके में 143 अरब डॉलर की मोनोपॉली खत्म।
अब शुरू हो रहा है इतिहास का सबसे तेज तकनीकी विकास। कॉल्स सस्ती हो जाएंगी। फैक्स पॉपुलर होंगे। मोडेम आएंगे। घर-घर इंटरनेट कंपनियां जन्मेंगी। सिस्को, स्प्रिंट, एमसीआई जैसी कंपनियां बढ़ेंगी। फिर आ जाएंगे मोबाइल फोन। मानो 70 साल की मोनोपॉली ने इनोवेशन को कैद रखा था, जो अब आजाद होने वाली है।
टाइम मशीन मुंबई के हवाई अड्डे पर उतर रही है। मोनोपॉली हमेशा यह कहती है कि मैं जरूरी हूं। इतिहास हमेशा यह जवाब देता है कि एकाधिकार कभी जरूरी नहीं होता, प्रतिस्पर्धा जरूरी होती है। सनद रहे कि मोनोपॉली खुद नहीं टूटती, उसे तोड़ना पड़ता है। भारतीय एविएशन पर इंडिगो के एकाधिकार से देश सकते में है। क्या भारतीय नियामकों को पर्याप्त नसीहत मिल गई है या वक्त फिर खुद को दोहराएगा किसी और क्षेत्र में? फिर मिलते हैं अगले सफर पर...