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मुद्दा: गणना कर लेना ही काफी नहीं, जाति-गणना के आंकड़ों की स्वीकार्यता असली अग्निपरीक्षा, राज्य-समाज पर नजर
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विस्तार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली राजनीतिक मामलों की कैबिनेट समिति ने जातिगत जनगणना को मंजूरी दे दी है, जिसकी मांग समाजवादी नेताओं द्वारा दशकों से की जा रही थी। इस मांग में भाजपा के कई वरिष्ठ ओबीसी नेता भी शामिल रहे हैं, जिनमें गोपीनाथ मुंडे का नाम उल्लेखनीय है। उत्तर भारत में कोटा-पॉलिटिक्स की शुरुआत सर्वप्रथम जननायक कर्पूरी ठाकुर ने की थी, जिसे कमजोर करने के उद्देश्य से बाद में बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया था। मंडल आयोग ने जाति आधारित आंकड़ों के अभाव का उल्लेख किया था।
वर्ष 1990 के बाद से भारतीय राजनीति में ओबीसी वर्ग के इर्द-गिर्द विमर्श केंद्रित होने लगा और जातिगत जनगणना की मांग भी बलवती हुई। शैक्षणिक संस्थानों में वर्ष 2006 में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने ओबीसी आरक्षण लागू किया, तब जातिगत आधार पर जनसंख्या आंकड़ों को अकादमिक स्तर पर मान्यता मिलनी शुरू हुई, क्योंकि शैक्षणिक संस्थाओं में ओबीसी छात्रों का प्रवेश होने लगा था।
हमारे समाज में जाति न केवल राजनीतिक गठबंधनों के निर्माण में, बल्कि मतदाताओं की जातिगत लामबंदी और नीतिगत प्राथमिकताओं के निर्धारण में भी गहरी भूमिका निभाती है। पिछले तीन दशकों में सामाजिक न्याय की राजनीति ने राजनीति की दिशा और प्रकृति, दोनों को प्रभावित किया है। हालांकि इसने एक जटिल चुनौती को भी जन्म दिया है, जहां प्रतिनिधित्व की राजनीति सीमित होकर कुछ चुनिंदा जातियों और वर्गों तक सिमट गई है। नतीजतन, बड़ी संख्या में अदृश्य अति पिछड़ी जातियां राजनीतिक विमर्श से बाहर रह गई हैं और सत्ता व संसाधनों में उनकी भागीदारी नगण्य बनी हुई है। चुनावी राजनीति में ये जातियां लंबे समय से उपेक्षा की शिकार बनी हुई हैं। इन्हें ओबीसी की मान्यता मिलने के बावजूद न तो आरक्षण का समुचित लाभ मिल रहा है और न लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व में समुचित भागीदारी हासिल हो पा रही है।
इन असंतुलनों को केवल जातिगत जनगणना और व्यापक सामाजिक-सांख्यिकीय विश्लेषण के माध्यम से ही उजागर और संबोधित किया जा सकता है। हालांकि यह प्रक्रिया केवल जातियों की गणना तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि प्रत्येक जाति की शैक्षणिक उपलब्धियों, सेवाओं में भागीदारी, शिक्षा तक पहुंच, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, पंचायत स्तर पर उपस्थिति तथा पुलिस-प्रशासन से लेकर न्यायपालिका तक में उनकी स्थिति का समग्र अध्ययन आवश्यक है। यदि जातिगत जनगणना में इन पहलुओं को समाहित किया जाता है, तभी यह प्रक्रिया सामाजिक न्याय को साकार कर सकती है, अन्यथा, इसका औचित्य सीमित और प्रतीकात्मक बनकर रह जाएगा। जाति जनगणना निश्चित रूप से कुछ समुदायों हेतु आरक्षण की सीमा में संशोधन तथा जातिगत उप-वर्गीकरण की मांग को नई वैधता प्रदान करेगी। वर्तमान परिदृश्य में भाजपा और कांग्रेस जैसे प्रमुख राष्ट्रीय दलों को यह मानना पड़ा है कि जाति मात्र एक सांस्कृतिक पहचान नहीं, बल्कि एक राजनीतिक श्रेणी भी है, जिसे केवल राजनीतिक संरक्षण की दृष्टि से नहीं, बल्कि संरचनात्मक पुनर्वितरण के संदर्भ में समझे जाने की आवश्यकता है। इन दलों के दृष्टिकोण में आया यह परिवर्तन मुख्यतः राजनीतिक बाध्यताओं, चुनावी गणित तथा गठबंधन-राजनीति के दबावों का परिणाम है।
विशेष रूप से, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में, जहां सामाजिक न्याय की राजनीति की जड़ें गहरी हैं। बिहार में नीतीश कुमार सरकार द्वारा कराए गए जातीय सर्वेक्षण ने इस बहस को और अधिक धार प्रदान की है। इससे संकेत मिलता है कि जाति आधारित आंकड़े और उनके विश्लेषण अब केवल सामाजिक अध्ययन की वस्तु नहीं रह गए हैं, बल्कि वे नीति निर्माण, संसाधन आवंटन, और राजनीतिक वैधता के निर्धारण में एक केंद्रीय कारक बनते जा रहे हैं। यह विशेषतः वंचित और अदृश्य अति पिछड़े समुदायों को न केवल सामाजिक दृश्यता प्रदान करेगा, बल्कि उन्हें राजनीतिक भागीदारी के वास्तविक अधिकार से भी जोड़ने का काम करेगा।
लेकिन सवाल यह है कि क्या राज्य और नागरिक समाज इन आंकड़ों से प्राप्त निष्कर्षों को स्वीकार करने के लिए आवश्यक राजनीतिक साहस और नीतिगत प्रतिबद्धता प्रदर्शित कर पाएगा। यदि ऐसा होता है, तभी डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा परिकल्पित सामाजिक लोकतंत्र को साकार किया जा सकेगा, जिसमें सामाजिक सम्मान, आर्थिक समानता और राजनीतिक प्रतिनिधित्व एक-दूसरे के पूरक माने गए हैं।
यदि यह नीति न्याय, समानता और ऐतिहासिक वंचनाओं की पुनःपरीक्षा के सिद्धांतों के साथ लागू की जाती है, तो यह न केवल एक प्रशासनिक सुधार होगा, बल्कि सामाजिक पुनर्गठन की दिशा में एक ऐतिहासिक और निर्णायक कदम सिद्ध होगा, जिसमें सबसे कमजोर और अदृश्य अति पिछड़े वर्गों के लिए भी समान अवसर और प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सकेंगे। -साथ में पंकज चौरसिया।