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जाति जनगणना: रोजगार सृजन के बगैर प्रतीकात्मक ही रहेगी यह कवायद
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जाति जनगणना
- फोटो :
freepik
विस्तार
ऐसा कोई अर्थशास्त्र नहीं है, जिसकी जड़ें राजनीति में न हों। दूसरी ओर, राजनीति भी अर्थशास्त्र पर आधारित होती है-खासकर उन सार्वजनिक नीतियों को लेकर, जो लोगों को अवसरों तक पहुंच प्रदान करती हैं। इस हफ्ते मोदी सरकार ने आगामी जनगणना में जाति की गणना की घोषणा की। आम तौर पर, सार्वजनिक चर्चा इस बात पर केंद्रित होती है कि कौन जाति जनगणना के पक्ष में था और कौन इसके खिलाफ था। दावों और प्रतिदावों से परे, जाति जनगणना की घोषणा देश के राजनीतिक गणित में जाति की सर्वव्यापकता को रेखांकित करती है। यह नौकरियों की जरूरत, स्थायी आय और एक दशक में दुनिया की 11वीं से पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की भारत की स्थिति के बीच व्यापक अंतर को भी दर्शाती है।
पिछले दशक में समग्र प्रगति का माप देश भर में संपन्न और वंचितों के बीच के अंतर को छिपाता है। भारत की प्रति व्यक्ति आय 2.15 लाख रुपये है। कर्नाटक 3.80 लाख रुपये के साथ इस सूची में सबसे ऊपर है, उत्तर प्रदेश 1.07 लाख रुपये के साथ और बिहार 66,828 रुपये के साथ पीछे है। बिहार के भीतर, शिवहर जिले की प्रति व्यक्ति आय 19,561 रुपये है। निश्चित रूप से भारत की प्रति व्यक्ति औसत आय बढ़ी है, लेकिन जैसा कि नोबेल पुरस्कार विजेता एंगस डीटन ने कहा है, ‘औसत आय उन लोगों के लिए कोई सांत्वना नहीं है, जो पीछे रह गए हैं।’
हैरानी नहीं कि जाति की गणना करने का विचार बिहार से आया है, या यह पहल आगामी चुनावों के मद्देनजर है। बिहार लगभग 12 करोड़ लोगों का घर है, और 10.97 लाख करोड़ रुपये के साथ, यह भारत के 331.03 लाख करोड़ रुपये की जीडीपी का बमुश्किल तीन प्रतिशत है। कर्नाटक और बिहार के बीच अंतर सशक्तीकरण और रोजगार को लेकर है। राजनीतिक वर्ग ने जाति जनगणना को समावेशी आरक्षण प्रणाली के लिए रामबाण के रूप में पेश किया है। आरक्षण योद्धा रोहिणी आयोग के निष्कर्षों का हवाला देते हुए बताते हैं कि ‘आरक्षित नौकरियों और सीटों का 97 प्रतिशत हिस्सा 25 प्रतिशत ओबीसी उप-जातियों के पास चला गया है।’ यह सच है कि आरक्षण का फॉर्मूला आंकड़ों द्वारा समर्थित होना चाहिए। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जाति जनगणना अधिकतम समावेशन के लिए एक ढांचा होगा, न कि रोजगार सृजन में विस्तार करेगा। रोजगार सृजन के बिना यह महज प्रतीकात्मक सुधार ही होगा। खबरों और आंकड़ों में संकट साफ दिखाई देता है।
शिक्षा पर संसदीय स्थायी समिति ने अपनी मार्च, 2025 की रिपोर्ट में कहा है कि ‘2021-22 और 2023-24 के बीच आईआईटी और आईआईआईटी में प्लेसमेंट में भारी गिरावट आई है।’ अक्तूबर में टीमलीज की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि इस साल केवल 10 प्रतिशत इंजीनियरिंग स्नातकों को ही नौकरी मिलेगी। मार्च, 2025 में प्रकाशित एक अन्य सर्वेक्षण से पता चला कि 83 प्रतिशत इंजीनियरिंग स्नातकों के पास कोई नौकरी नहीं है। आजादी के सात दशक बाद, खेतों से मजदूरों को कारखानों में भेजने के लिए गठित कई आयोगों और समितियों के बाद मुश्किल से 11 प्रतिशत मजदूर विनिर्माण क्षेत्र में और 45.5 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में कार्यरत हैं। जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान 14 प्रतिशत है, जबकि कृषि क्षेत्र का 18 प्रतिशत है। लगभग आधा कार्यबल राष्ट्रीय आय के छठे हिस्से पर निर्भर है। खराब नीतियों ने खेती को अव्यावहारिक बना दिया है। हैरानी नहीं है कि हर प्रमुख भूमि-स्वामी जातिगत आरक्षण के लिए आंदोलन कर रहा है, जैसे महाराष्ट्र में मराठा।
जनसांख्यिकीय लाभांश को प्रभावित करने वाले अवसरों की कमी खबरों में झलकती है। उत्तर प्रदेश में कॉन्स्टेबल के 60,244 पदों के लिए 48 लाख लोगों ने आवेदन दिए। बिहार में होमगार्ड के 15,000 पदों के लिए आठ लाख से ज्यादा लोगों ने आवेदन दिया। राजस्थान में चपरासी के 53,749 पदों के लिए 24 लाख से ज्यादा लोगों ने आवेदन भरे, जिनमें कुछ पीएचडी, एमबीए और लॉ की डिग्रीधारक भी हैं। जम्मू-कश्मीर में पुलिस विभाग में 4,002 पदों के लिए साढ़े पांच लाख से ज्यादा लोगों ने आवेदन किया। केंद्र सरकार के 17,727 पदों के लिए 36 लाख से ज्यादा लोगों ने आवेदन दिया। लोकप्रिय धारणा है कि यह भीड़ सरकारी नौकरी के प्रति जुनून के कारण है। विडंबना यह है कि रेवड़ी बांटने की संस्कृति के कारण सरकार के पास रिक्त पदों को भरने के लिए संसाधन नहीं हैं। अनुमान है कि राज्यों में पुलिस, स्वास्थ्य एवं शिक्षा विभागों में करीब 20 लाख पद रिक्त हैं। पूरे भारत में पुलिस के 5.8 लाख से ज्यादा पद खाली हैं। अदालतों में पांच करोड़ से ज्यादा मामले लंबित होने के बावजूद, उच्च न्यायालयों में जजों के 359 पद और निचली न्यायपालिका में न्यायिक अधिकारियों के 5,238 पद खाली हैं।
सरकारी नौकरियों के लिए होड़ निजी क्षेत्र में नौकरियों की कमी से भी प्रेरित है-विशेष रूप से शिक्षित लोगों के लिए। मूल बात रोजगार सृजन के लिए सुधारों की कमी है। अधिकांश सुधार राज्यों को करने हैं, पर राज्य निवेशक शिखर सम्मेलन करने की होड़ में मेमोरेंडम को निवेश और नौकरियों में बदलने के लिए आवश्यक सुधारों पर काम नहीं करते हैं। छोटे उद्यमों के लिए ऋण तक बेहतर पहुंच रोजगार और निर्यात, दोनों को बढ़ावा दे सकती है। कृषि कानूनों को उदार बनाकर और किसानों को निर्यात में सक्षम बनाकर भारत वैश्विक स्तर पर अन्न भंडार बन सकता है। नए शहरों के निर्माण से रोजगार पैदा होंगे और विकास को बढ़ावा मिलेगा।
अर्थशास्त्र और भू-राजनीति द्वारा नए सिरे से वैश्विक अर्थव्यवस्था तैयार की जा रही है। बाधाओं की उभरती हुई तिकड़ी-भू-राजनीति, जलवायु परिवर्तन और प्रौद्योगिकी को अपनाना-रोजगार सृजन को कठिन बना देगा, क्योंकि पूंजीपति श्रम घटाने के लिए प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करेंगे। ट्रंप प्रशासन की टैरिफ धमकी चेतावनी की घंटी है। चीन से कंपनियों के मोहभंग का लाभ उठाने के बारे में काफी बातें हो रही हैं। लेकिन सफलता के लिए धारणाओं से हटकर काम करने की जरूरत है। राजनीतिक वर्ग जब तक सुधारों के प्रति आम सहमति बनाने पर राजी नहीं होगा, जाति जनगणना का सुझाव केवल एक तृष्णा ही साबित होगा।