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खाद्य सुरक्षा: स्वस्थ आहार की लागत और पोषण के लिए विविधता की जरूरत
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सार
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विस्तार
दुनिया जिन विविध संकटों का सामना कर रही है, उनमें पर्यावरणीय, सामाजिक, तकनीकी एवं आर्थिक संकट प्रमुख हैं। इनका संयुक्त प्रभाव भविष्य में अधिक तीव्रता के साथ अप्रत्याशित झटकों का कारण बन सकता है। ऐसे में कई विशेषज्ञों का कहना है कि भारत उच्च विकास दर और मध्यम दर्जे की मुद्रास्फीति के साथ नए वर्ष 2024 में प्रवेश कर रहा है।
मगर आशावादियों को भी मानना होगा कि भारत बेशक प्रगति की राह पर अग्रसर है, पर आम लोगों को अपनी वास्तविक क्षमता का उपयोग करने का अवसर प्रदान करने के लिए अभी हमें लंबा रास्ता तय करना होगा। हमारे भविष्य की तस्वीर इसी बात पर निर्भर करेगी कि हम किन चीजों पर बात करते हैं, हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं।
हाल के दशकों में भारत ने महत्वपूर्ण आर्थिक प्रगति की है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि देश के एक बड़े वर्ग को इसका लाभ नहीं मिल पाया है। जब हम भविष्य की तरफ देखते हैं, तो कई सवाल खड़े होते हैं। एक महत्वपूर्ण मुद्दा भोजन है। हम आज जो खाते हैं, वह व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर हमारे भविष्य से जुड़ा हुआ है। हालांकि शहरी भारत में बढ़ते मोटापे और इसके परिणामस्वरूप जीवन शैली से जुड़ी बीमारियों को काफी महत्व दिया जाता है, पर सच्चाई यह है कि कुल मिलाकर हम अल्पपोषित लोगों का देश हैं। इस अल्पपोषण का प्रभाव स्वास्थ्य एवं पोषण से परे आर्थिक एवं सामाजिक स्तर पर भी पड़ता है।
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा एशिया ऐंड पैसिफिक-रीजनल ओवरव्यू ऑफ फूड सिक्योरिटी ऐंड न्यूट्रीशन, 2023 शीर्षक से जारी रिपोर्ट से पता चलता है कि भोजन, चारा और ईंधन की कीमतों और वैश्विक महामारी से उबरने की धीमी गति ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में पहले से ही कमजोर लाखों लोगों के स्वास्थ्य एवं आजीविका को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया है।
एफएओ की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2021 में दक्षिण एशिया में ऐसे लोगों की संख्या सर्वाधिक (1.4 अरब) थी, जो स्वस्थ आहार का खर्च वहन नहीं कर सकते थे। भारत में वर्ष 2020 में 76.2 फीसदी लोग स्वस्थ भोजन का खर्च उठाने में असमर्थ थे। हालांकि 2021 में स्थिति थोड़ी सुधरी, लेकिन तब भी 74.1 फीसदी भारतीय स्वस्थ एवं पोषक आहार पाने में असमर्थ थे।
अगर हम एक विकसित राष्ट्र बनना चाहते हैं, तो हमें खुद को बेहतर देशों से बेहतर बनने की कोशिश करनी चाहिए, न कि अपने से खराब या दक्षिण एशिया के अन्य देशों से तुलना करनी चाहिए। हम पद्धतियों और परिभाषाओं पर बहस कर सकते हैं, लेकिन जब तक हम यह स्वीकार नहीं करते कि हर भारतीय को स्वस्थ आहार उपलब्ध कराने के लिए हमें जमीनी स्तर पर बहुत काम करना होगा, जब तक हम अपने भविष्य को कमजोर करते रहेंगे।
मोदी सरकार द्वारा चलाई गई मुफ्त राशन योजना 80 करोड़ से ज्यादा लोगों की मदद कर रही है। इसने बहुत से लोगों को भुखमरी और अकाल से दूर किया है। लेकिन बच्चों और वयस्कों को बढ़ने और विकास करने के लिए आहार में विविधता की जरूरत होती है। उन्हें प्रोटीन और सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है।
कटु सच्चाई यह है कि अधिकांश भारतीय (चाहे वे शाकाहारी हों या मांसाहारी) स्वस्थ आहार नहीं लेते हैं, क्योंकि वे इसका खर्च वहन नहीं कर सकते। कितने भारतीय पर्याप्त मात्रा में और नियमित रूप से फल, दूध, हरी पत्तेदार सब्जियां, मेवे आदि खरीद सकते हैं?
भारत आर्थिक रूप से विकास कर रहा है, लेकिन उस विकास का लाभ सभी लोगों तक नहीं पहुंच रहा है। लाखों लोग खाद्य-असुरक्षा का सामना करते हैं, क्योंकि वे उतना कमा नहीं पाते कि घर के सभी सदस्यों के लिए स्वस्थ आहार का खर्च वहन कर सकें। बेशक यह सिर्फ भारत के लिए नहीं, बल्कि कई देशों के लिए सच है। चाहे कोई भी पार्टी चुनाव में जीतकर सत्ता में आए, हमें इसे गंभीरता से लेना चाहिए।
यह देश के प्रत्येक राज्य के लिए स्वागत योग्य कदम होगा कि वे स्वस्थ आहार की लागत का पता लगाएं और फिर स्वस्थ आहार के विकल्पों को सुलभ एवं किफायती बनाने के लिए विभिन्न मोर्चों पर पहल करें। किफायती स्वस्थ आहार के बारे में व्यापक जन जागरूकता भी जरूरी है।