पाकिस्तान देश नहीं, एक विचारधारा है: पड़ोसी देश की शत्रुता-घृणा के पीछे भारत नहीं, तनाव का प्रमुख कारण काफिर..
निरंतर एक्सेस के लिए सब्सक्राइब करें
अमर उजाला प्रीमियम लेख सिर्फ रजिस्टर्ड पाठकों के लिए ही उपलब्ध हैं
अमर उजाला प्रीमियम लेख सिर्फ सब्सक्राइब्ड पाठकों के लिए ही उपलब्ध हैं


विस्तार
भारत-पाकिस्तान तनाव चरम पर है। पहलगाम में हुए जिहादी हमले के खिलाफ पूरा देश आक्रोशित और एकजुट है। इस संकटमयी क्षण में कांग्रेसी शीर्ष नेतृत्व ने मोदी सरकार के साथ खड़े होने की प्रतिबद्धता जताई है, परंतु पाकिस्तान एक अलग ही नैरेटिव गढ़ रहा है। पाकिस्तानी रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने पहलगाम हमले को ‘हिंदुत्व प्रदत्त शोषण’ के खिलाफ ‘अल्पसंख्यकों का व्यापक विद्रोह’ बताया है। यह दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस प्रोपेगेंडा को भारत के एक वर्ग द्वारा प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन मिल रहा है। नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य, कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा के व्यवसायी पति रॉबर्ट वाड्रा के लिए पहलगाम में हिंदुओं को चुन-चुनकर मारना, ‘दुर्बल-शोषित मुस्लिमों’ का ‘प्रधानमंत्री मोदी के प्रति आक्रोश’ है। कुछ इसी प्रकार की भाषा का प्रयोग कर्नाटक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, महाराष्ट्र कांग्रेस के वरिष्ठ नेता विजय वडेट्टीवार और कश्मीर में कांग्रेसी नेता सैफुद्दीन सोज ने भी किया है। लब्बोलुआब यह है कि पाकिस्तान और भारत में एक वर्ग दोनों देशों के बीच अशांति के लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहा है।
वास्तव में, भारत-पाकिस्तान के रिश्ते इस बात से तय नहीं होते कि दिल्ली या इस्लामाबाद में कौन शासन कर रहा है। गांधी जी, पंडित नेहरू, सरदार पटेल, बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर और मोहम्मद अली जिन्ना के जीवित रहते दोनों देशों के बीच पहला युद्ध हुआ। इसके बाद दोनों के बीच कई संधियां हुईं, जिनमें सबसे प्रमुख 1960 का सिंधु जल समझौता है। इसमें भारत ने नहर-सिंचाई आदि निर्माण कार्यों के लिए पाकिस्तान को दस किस्तों में 6.2 करोड़ पाउंड स्टर्लिंग (वर्तमान समय में लगभग 700 करोड़ रुपये) का अनुदान दिया था। इसके बदले पाकिस्तान ने वर्ष 1965 में भारत के खिलाफ फिर युद्ध छेड़ दिया। तब भारत में कांग्रेसी प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री थे, तो पाकिस्तान की सत्ता की बागडोर सैन्य तानाशाह अयूब खान के हाथों में थी।
भारत के प्रति पाकिस्तान की घृणा कितनी गहरी है, यह 1965 में तत्कालीन पाकिस्तानी विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो, जो बाद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी बने— के संयुक्त राष्ट्र में दिए भाषण से स्पष्ट है। तब उन्होंने भारत के खिलाफ ‘अगले एक हजार वर्षों तक युद्ध लड़ने’ का एलान किया था। भुट्टो की मानसिकता इससे भी समझी जा सकती है कि 1943 में उन्होंने केवल 15 वर्ष की आयु में मोहम्मद अली जिन्ना को पत्र लिखकर ‘हिंदुओं को कुरान और पैगंबर का घातक दुश्मन’ बताया था। इसी चिंतन का घिनौना स्वरूप 1971 के युद्ध में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में तब दिखा, जब बंगाली अस्मिता से जन्मे मुक्तिवाहिनी विद्रोह को कुचलने के नाम पर पाकिस्तानी सैनिकों ने चुन-चुनकर लाखों हिंदुओं को मारा और उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया। तब भारत में इंदिरा गांधी का शासन था और पाकिस्तान में याह्या खान की सैन्य तानाशाही। जब 1999 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी मित्रता का संदेश लेकर बस से लाहौर पहुंचे, तब इसके दो माह बाद ही पाकिस्तान ने भारत की पीठ में छुरा घोंपते हुए कारगिल पर हमला कर दिया। तब पाकिस्तान में नवाज शरीफ के रूप में निर्वाचित सरकार थी। असंख्य आतंकवादी हमलों (मुंबई 1993 और 26/11 सहित) में भी पाकिस्तान का प्रत्यक्ष-परोक्ष हाथ रहा है।
स्पष्ट है कि पाकिस्तान में किसी भी विचारधारा, दल या रंग की सरकार हो, वह उस शाश्वत वैमनस्य से बंधा है, जिसमें इस्लाम पूर्व भारतीय संस्कृति-परंपरा (हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख) के प्रति घृणा है। पाकिस्तान में भारत के प्रति शत्रुता और घृणा, भारत के कुछ कहने-करने से उत्पन्न नहीं होती। इसके लिए भारत की सनातन पहचान, उसकी बहुलतावादी संस्कृति और आस्था के प्रतीक ही पर्याप्त हैं। इसी विषाक्त चिंतन से पाकिस्तानी शैक्षणिक पाठ्यक्रम भी भरा है। गत 16 अप्रैल को पाकिस्तानी सेना के जनरल असीम मुनीर ने भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों की उपस्थिति में इसी भारत-हिंदू विरोधी मानस का खुला प्रदर्शन किया था।
पाकिस्तान कोई देश नहीं, बल्कि वह विचारधारा है, जिसे किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। भारतीय उपमहाद्वीप की 99 प्रतिशत आबादी या तो हिंदू है या उन हिंदुओं की वंशज है, जिन्होंने कालांतर में किन्हीं कारणों से धर्मांतरण किया। इनमें अधिकांश ने तलवार के बल पर अपनी पूजापद्धति और पहचान बदली थी।
यह पाकिस्तानी अस्तित्व का विरोधाभास भी है। एक ओर पाकिस्तान वैदिक सिंधु घाटी सभ्यता, संस्कृताचार्य पाणिनि, सम्राट पोरस, ऋषि पतंजलि तथा गांधार कला को अपना गौरवशाली अतीत बताता है। दूसरी तरफ, वह अपनी मूल भारतीय जड़ों से कटकर उन इस्लामी आक्रांताओं को अपना नायक-आदर्श मानता है, जिन्होंने अपने दौर में वैदिक दर्शन, उससे जुड़ी परंपराओं और मानबिंदुओं को नष्ट किया था। यही कारण है कि पाकिस्तान ने अपनी मिसाइलों-युद्धपोतों के नाम— गजनवी, गौरी, अब्दाली और बाबर आदि के नाम पर रखे हैं, तो वह अपनी बुनियाद वर्ष 712 में तब से बताता है, जब आततायी मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध के हिंदू राजा दाहिर को पराजित किया था। यही अंतर्विरोध उसके "कौमी तराने" में परिलक्षित होता है, जो फारसी भाषा में है—जबकि 24-25 करोड़ की आबादी वाले पाकिस्तान की एक प्रतिशत जनसंख्या भी फारसी नहीं बोलती।
भारत-पाकिस्तान में नैरेटिव गढ़ा जाता है कि मोदी सरकार में मुसलमान स्वयं को 'कमजोर' और 'असुरक्षित' अनुभव करते हैं। क्रूर मुगल औरंगजेब की मृत्यु (1707) के उपरांत जब भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लामी राजनीतिक वर्चस्व का अवसान हुआ, तबसे मुस्लिम समाज का एक वर्ग ‘असुरक्षित’ अनुभव कर रहा है। इस भावना को गांधी जी, पंडित नेहरू और सरदार पटेल भी दूर नहीं कर पाए। 1946 के प्रांतीय चुनाव में मुस्लिम लीग को व्यापक समर्थन इसी ‘असुरक्षा’ की ही अभिव्यक्ति थी। यह दिलचस्प है कि विभाजन पूर्व जो लोग पाकिस्तान के लिए आंदोलित थे और हिंसा का सहारा ले रहे थे, उनमें से कई (राजनीतिज्ञ सहित) अपने ‘सपनों के देश’ नहीं गए। इस बात को सरदार पटेल ने जनवरी, 1948 में कोलकाता और लखनऊ की अपनी सभाओं में प्रमुखता से उठाया था।
स्पष्ट है कि ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा और स्वयं को भारतीय जड़ों से काटने की छटपटाहट— भारत-पाकिस्तान तनाव का प्रमुख कारण है। यदि यह चिंतन समाप्त हो जाए, तो क्या पाकिस्तान का भारत से अलग राष्ट्र बने रहने का कोई औचित्य रहेगा?