नेपाल में सर्वोच्च अदालत ने दिखाई राह, अब ओली के पास कुछ ही दिन
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जब नेपाल के संकटग्रस्त प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली और उनके कुछ कम्युनिस्ट सहयोगियों ने काठमांडू के ऐतिहासिक पशुपतिनाथ मंदिर में प्रार्थना की थी, तो उन्हें इस बात का कोई ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ कि राजनीतिक संकट को कैसे हल किया जाए, मुख्यतः अपने ही पैदा किए संकट को। शायद देवता खुश नहीं हुए होंगे। अब देश के सर्वोच्च न्यायालय ने 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा को भंग कर फिर से चुनाव कराने के ओली सरकार के फैसले को रद्द कर आगे का रास्ता दिखाया है। क्या यह नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी और उसके आंदोलन के लिए बुरा है, यह तो समय ही बताएगा, क्योंकि यह देश की सबसे शक्तिशाली राजनीतिक ताकत है। लेकिन यह निश्चित रूप से ओली के लिए एक बड़ा झटका है, जिन्होंने अपने उन सहयोगियों को परास्त करने के लिए निचले सदन को भंग करने के लिए अपने पद और शक्ति का उपयोग किया, जो केवल उन्हें उस सौदे का सम्मान करने के लिए कह रहे थे, जिसके कारण नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी का एकीकरण हुआ और एक अपराजेय संसदीय शक्ति के रूप में उसका उदय हुआ।
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23 फरवरी को अपने ऐतिहासिक फैसले में शीर्ष अदालत ने प्रतिनिधि सभा को बहाल कर दिया और सरकार को 13 दिनों के भीतर संसद के निचले सदन का सत्र बुलाने का निर्देश दिया। मुख्य न्यायाधीश चोलेंद्र शमशेर जंग बहादुर राणा के नेतृत्व में पांच-न्यायाधीशों की सांविधानिक पीठ ने उन सभी फैसलों को रद्द करने का भी फैसला किया है, जो 20 दिसंबर के बाद की निवर्तमान ओली सरकार ने लिए थे, क्योंकि उसी दिन प्रतिनिधि सभा को भंग कर दिया गया था। ओली के पास बचने का कोई विकल्प नहीं है। उनके पास मात्र आठ मार्च तक का समय है। ओली ने इस साल अप्रैल-मई में चुनाव कराने की बात कही थी। कई लोगों ने संभावित समय-सारिणी पर संदेह किया था, और यह एक सहज मामला होगा। प्रतिनिधि सभा की बहाली से फिलहाल अनिश्चितता खत्म हो गई है। अदालत ने ओली की बार-बार की दलीलों पर ध्यान देने से इन्कार कर दिया कि उनके कम्युनिस्ट सहयोगियों का एक वर्ग उनकी सरकार के कामकाज को बाधित कर रहा था और 'एक समानांतर सरकार' बनाने की कोशिश कर रहा था।
नेपाल अपने सबसे खराब राजनीतिक संकटों में से एक में फंस गया, जब राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने ओली सरकार की सिफारिश पर पिछले साल 20 दिसंबर को सदन को भंग कर दिया था। संविधान के तहत उनकी स्थिति को देखते हुए उसके पास कोई विकल्प नहीं था। हस्तक्षेप का दौर विरोध और उथल-पुथल का रहा है। ओली सरकार, जो अब कार्यवाहक है और चुनाव की योजना बना रही है, विभिन्न तिमाहियों से आर्थिक दबाव में है। कोरोना वायरस के प्रसार और आर्थिक संकट ने स्थिति और भी बदतर बना दी है, खासकर नेपाल की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार पर्यटन महामारी के कारण बुरी तरह प्रभावित हुआ है। ओली स्पष्ट रूप से सत्ता में थे और अपने साथी-कम्युनिस्टों से लड़ रहे थे, जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड और माधव नेपाल शामिल हैं। उन्होंने उनकी दलीलों को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करते हुए उन्होंने मंगलवार को शुरू में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की बैठक बुलाई।
सांविधानिक प्रावधान है कि समग्र राष्ट्रीय हित, सुरक्षा और रक्षा से संबंधित नीतियां तैयार करने और सरकार को नेपाल की सेना को संचालित एवं नियंत्रित करने से संबंधित सिफारिशें देने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की बैठक हो। राजनीतिक संकट और संभावित चुनावों के चलते विभिन्न राजनीतिक दलों ने राजनीतिक दौड़ शुरू कर दी थी और चर्चा यहां तक हो रही थी कि ओली उन ताकतों का सहारा लेंगे, जो पहले की राजशाही की वापसी चाहते हैं। दूसरी ओर, कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर के संकट ने चीनियों को भयभीत कर दिया था और काठमांडू में उनके दूत ओली से मिलते रहे थे, जो गुत्थी सुलझाने में मदद कर रहे थे। चीन की महिला राजदूत की भूमिका को लेकर जो भी चर्चा हो, लेकिन इस तरह से गणतंत्र के लिए खतरा गंभीर था। शीर्ष अदालत के फैसले पर जबर्दस्त और सकारात्मक प्रतिक्रिया है। सभी दलों ने इसका स्वागत किया है। ओली के विरोधी कम्युनिस्टों ने फैसले को ‘ऐतिहासिक’ बताया है। सड़कों पर लोगों की भीड़ इकट्ठा होकर जश्न मना रही है। इससे यह संकेत मिलता है कि नेपाली लोग शांति और प्रगति के लिए तरस रहे हैं और राजनीतिक बेईमानी को कम करना चाहते हैं।
कुल मिलाकर एक लोकतांत्रिक ढंग से चुनी संसद की बहाली का आदेश देकर अदालत ने राजनीतिक अस्थिरता को दूर कर दिया है और नेपाल के लोकतंत्र को पटरी पर लाया है, जो दिशाहीन हो गया था। नेपाल के हर संकट का अनिवार्य रूप से भारत पर असर होता है। इसलिए भारत के पास उस पर बारीक नजर रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। यह और भी जरूरी है, क्योंकि नेपाली कम्युनिस्ट भारत को संदेह की नजर से देखते हैं। प्रचंड की तरह ओली भी भारत विरोधी और भारत मित्र के रूप में झूलते रहते हैं। लेकिन प्रचंड ने चीन के साथ घनिष्ठ संबंध बनाने और भारत को खुले तौर पर परेशान करने के लिए जो किया था, वह उससे बहुत आगे निकल गए थे। उन्होंने सीमा विवाद को बढ़ावा दिया और अपने दावे की मजबूती के लिए नए नक्शे जारी कर दिए। भारत को हर चीज के लिए दोषी बताया जाने लगा, जिसमें भारतीय पर्यटकों द्वारा कोविड-19 फैलाने का आरोप भी शामिल था। लेकिन जब घरेलू संकट गहराया, तो उन्होंने अपना रुख बदला और नक्शों को वापस ले लिया।
नेपाल की ऐसी अस्थिरता को दूर करने के लिए भारत कुछ खास नहीं कर सकता या करना चाहिए। निचले सदन की बहाली के साथ यही उम्मीद कर सकते हैं कि वहां ओली या जिसके भी हाथ में नेतृत्व हो, उनके आग्रह पर, भारत इस पड़ोसी देश को जो भी संभव मदद होगी, वह करेगा।