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ईरान से भारत के रिश्ते में अमेरिका का रोड़ा, तेल खरीदने का चुनाव बाद होगा फैसला

मारूफ रजा Published by: मारूफ रजा Updated Thu, 16 May 2019 06:01 AM IST
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US barrier in relations with Iran
मोहम्मद जावाद जारिफ-सुषमा स्वराज

चार तेल टैंकरों पर हमले के बाद खाड़ी क्षेत्र में तनाव बढ़ गया है। अमेरिका और उसके करीबी सहयोगी सऊदी अरब ने इन हमलों के लिए ईरान को जिम्मेदार ठहराया है। उनका आरोप है कि ये हमले खाड़ी क्षेत्र में कच्चे तेल की आपूर्ति सुरक्षा को कमजोर करते हैं। दूसरी ओर भारत का समर्थन प्राप्त करने के लिए ईरान के विदेश मंत्री जावाद जरीफ नई दिल्ली के दौर पर हैं, क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान पर प्रतिबंध और कड़े करने का फैसला किया है। इस घटनाक्रम ने भारत के लिए एक महत्वपूर्ण रणनीतिक चुनौती पेश कर दी है, जिसका एक तरफ अमेरिका, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ बेहतर संबंध है, तो दूसरी तरफ ईरान से भी। इस प्रकार खाड़ी में तनाव के इस नवीनतम दौर में भारत का बहुत कुछ दांव पर है, जो कच्चे तेल की आपूर्ति से परे है। इसका संबंध भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और विदेश नीति के विकल्पों से भी है। भारत की तरफ से ईरान के विदेश मंत्री को फिलहाल भरोसा दिलाया गया है कि तेल खरीदने का फैसला चुनाव के बाद लिया जाएगा।


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ईरान के साथ भारत का रिश्ता सदियों पुराना है, लेकिन अमेरिका के लिए वह कोई मायने नहीं रखता है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि चीन के बाद भारत ईरान के कच्चे तेल का दूसरा सबसे बड़ा खरीदार है। इस प्रकार भारत समेत आठ देशों को तेल आयात की छूट खत्म करने के ट्रंप के फैसले से भारत के तेल आयात और घरेलू बाजार में तेल की कीमतों पर असर पड़ना निश्चित है। भले ही अधिकारियों ने पुष्टि कर दी है कि भारत अब ईरान से कच्चे तेल का आयात बंद कर देगा और नई दिल्ली को उम्मीद है कि सऊदी अरब और अन्य ओपेक देश ईरान से होने वाले आयात की भरपाई कर देंगे, लेकिन जमीनी स्तर पर कठोर वास्तविकता अलग हो सकती है।

पिछले वर्ष 22 अक्तूबर को सऊदी अरब के ऊर्जा मंत्री खालिद अल-फलिह ने कहा था कि उनका देश अतिरिक्त उत्पादन करके ईरान से निर्यात होने वाले तीस लाख बैरल तेल की क्षतिपूर्ति नहीं कर पाएगा। इस तरह कच्चे तेल की कीमत में बड़ा उछाल आने की आशंका है, जिसकी मौजूदा कीमत 75 डॉलर प्रति बैरल है। इससे पहले 2014 में कच्चे तेल की कीमत सौ डॉलर प्रति बैरल के उच्च स्तर पर थी। इससे निश्चित रूप से  अमेरिकी तेल कंपनियां खुश होंगी, जिन्होंने वर्ष 2016 में 27 डॉलर प्रति बैरल कच्चे तेल की कीमत को बढ़ाने के लिए ट्रंप प्रशासन के साथ तगड़ी पैरवी की थी, क्योंकि उन्हें करीब 3,35,000 नौकरियों का नुकसान उठाना पड़ा था।

अमेरिकी तेल कंपनियों को फायदा कराने के अलावा ट्रंप का उद्देश्य ईरान की अर्थव्यवस्था को अलग-थलग और ध्वस्त करना भी है, ताकि वह अपने कट्टरपंथी घरेलू मतदाताओं को खुश कर सकें, क्योंकि अमेरिका में ईरान को एक ऐसे दुश्मन के रूप में देखा जाता है, जिसे 1979 में तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर हमला करने के लिए अवश्य दंडित किया जाना चाहिए, जब अमेरिका के मुख्य सहयोगी ईरान के शाह को हटा दिया गया था, क्योंकि क्रांति के बाद कट्टरपंथी अयातुल्लाह सत्ता में आए थे। तब से ईरानियों ने इस्लामी दुनिया में सऊदी शासन के प्रभुत्व को एक चुनौती पेश की है और अमेरिका तथा उसके मुख्य क्षेत्रीय सहयोगी इस्राइल के लिए रणनीतिक चुनौती बढ़ा दी है। राष्ट्रपति ट्रंप अपने संकीर्ण एजेंडे पर काम कर रहे हैं, जिसे कहीं भी समर्थन नहीं मिल रहा है।

यूरोपीय संघ, खासकर ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी स्पष्ट रूप से ट्रंप प्रशासन के कामकाज के तरीकों से चिंतित है, जो कट्टरपंथियों के साथ काम कर रहा है। इन देशों ने अमेरिका से किसी भी तरह के तनाव को और नहीं बढ़ाने की अपील की है। वास्तव में ब्रिटेन ने यहां तक चेतावनी दी है कि अगर ईरान को और अलग-थलग किया गया और उसने होर्मुज जलडमरूमध्य को अवरुद्ध करने का फैसला किया, तो खाड़ी क्षेत्र में संघर्ष का खतरा है, जहां से वैश्विक तेल की जरूरत का पांचवां हिस्सा गुजरता है। अमेरिका ने पहले ही खाड़ी क्षेत्र में एक विमान वाहक समूह (जमीन पर हमलों के लिए समुद्र में सचल नौसेना बेस) तैनात कर दिया है। अमेरिका की गंभीरता को दिखाने के लिए उसके एफ-15, एफ-35 लड़ाकू जेट और बी-52 बॉम्बर्स ने हवाई गश्त शुरू कर दी है।

लेकिन ईरानियों के आसानी से झुकने की संभावना नहीं है। वे बीते चार दशकों से लगातार अमेरिकी दबाव में हैं और उनकी पीढ़ियां अगलाव और प्रतिबंधों के साथ जी रही हैं। और अब यूरोपीय संघ के देशों, जिन्होंने साथ मिलकर ईरान के साथ बहुराष्ट्रीय परमाणु समझौता तैयार किया था और जिसे अब अमेरिका ने वापस ले लिया है, और रूस व चीन ने उन देशों और उनकी संस्थाओं के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों की अनदेखी शुरू कर दी है, जो ईरान के साथ व्यवसाय जारी रखेंगे।

इसका एक कारण यह है कि अमेरिका को भरोसा है कि ईरान को आर्थिक रूप से दंडित करने के उसके प्रयास सफल होंगे (भले ही तेहरान ने परमाणु समझौते (जेसीपीओए) की आवश्यकताओं का अनुपालन किया हो) क्योंकि अमेरिका बैंकों और कॉर्पोरेट संस्थाओं द्वारा उपयोग किए जाने वाले वैश्विक वित्तीय संदेश प्रणाली (एसडब्ल्यूआईएफटी) को नियंत्रित करता है।

हालांकि, जेसीपीओए पर हस्ताक्षर करने वाले यूरोपीय देशों (ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी) ने अब अपनी कंपनियों को अमेरिकी डॉलर आधारित बैंकिंग प्रणाली से बाहर ईरान के साथ व्यापार करने में सक्षम बनाने के लिए एक विकल्प (आईएनएसटीईएक्स) बनाया है।

इसलिए भारत के पास ईरान के साथ अपने गैर-डॉलर आधारित व्यापार को जारी रखने या अन्य स्रोतों से 'भारतीय रिफाइनरियों को कच्चे तेल की पर्याप्त आपूर्ति करने के लिए एक मजबूत योजना' चुनने का विकल्प है, जैसा कि मोदी सरकार के तेल मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने आश्वस्त किया। इस बात की संभावना है कि भारत इस बाद के विकल्प को चुनेगा, क्योंकि नई दिल्ली अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में अन्य देशों से कच्चे तेल प्राप्त करने की योजना बना रही है, हालांकि यह ईरान से आयातित तेल से महंगा होगा, जो भारत का सबसे निकटतम आपूर्तिकर्ता है और भारत को 60 दिन की क्रेडिट लाइन देता है।  लेकिन यह वह कीमत है, जो हमें चुकानी है, क्योंकि भारत अमेरिका के कूटनीतिक फांस के और करीब होता जा रहा है।

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