{"_id":"692f8e432ad6080ff2073f09","slug":"pending-court-case-state-governments-should-reconsider-developing-robust-litigation-preventive-policies-2025-12-03","type":"story","status":"publish","title_hn":"न्याय व्यवस्था: लंबित मामलों की पहेली, मुकदमेबाजी निवारक ठोस नीतियों पर पुनर्विचार की दरकार","category":{"title":"Opinion","title_hn":"विचार","slug":"opinion"}}
न्याय व्यवस्था: लंबित मामलों की पहेली, मुकदमेबाजी निवारक ठोस नीतियों पर पुनर्विचार की दरकार
निरंतर एक्सेस के लिए सब्सक्राइब करें
सार
विज्ञापन
आगे पढ़ने के लिए लॉगिन या रजिस्टर करें
अमर उजाला प्रीमियम लेख सिर्फ रजिस्टर्ड पाठकों के लिए ही उपलब्ध हैं
अमर उजाला प्रीमियम लेख सिर्फ सब्सक्राइब्ड पाठकों के लिए ही उपलब्ध हैं
फ्री ई-पेपर
सभी विशेष आलेख
सीमित विज्ञापन
सब्सक्राइब करें
देश के न्यायालयों में करीब पांच करोड़ लंबित मामले विचाराधीन हैं
- फोटो :
अमर उजाला प्रिंट
विस्तार
भारत के न्यायालयों में लगभग पांच करोड़ लंबित मामले विचाराधीन हैं। इनका निपटारा करने के लिए वर्तमान न्यायाधीशों की संख्या से दोगुने से भी ज्यादा न्यायाधीशों की आवश्यकता है। इस कानूनी दलदल से निपटने का सबसे सुरक्षित तरीका यही है कि देश की अग्रणी मुकदमेबाज, यानी सरकार, मुकदमों के बढ़ते बोझ को कम करे। एक हालिया अनुमान के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार किए गए सभी मामलों में 73 प्रतिशत के लिए सरकार ही जिम्मेदार है।वर्ष 2023 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक सरकार द्वारा दायर एक अपील को खारिज करते हुए उस पर जुर्माना लगाया। न्यायालय ने कर्नाटक सरकार को उन भूस्वामियों को मुआवजा देने का आदेश दिया, जिनसे उसने जमीन छीन ली थी और भुगतान करने से मना कर दिया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक अन्य मामले में कहा कि यह न्यायालय तुच्छ याचिकाओं पर अप्रिय अनुभव की व्याख्या करने की प्रवृत्ति रखता है, क्योंकि इस न्यायालय का रोस्टर जिम्मेदार सरकारी पदाधिकारियों द्वारा अपनाए जा रहे अज्ञानतापूर्ण रवैये के कारण भरा हुआ है। एक अन्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने मौखिक रूप से कहा कि 40 प्रतिशत तुच्छ मुकदमों के लिए सरकार जिम्मेदार है, ‘जिन मामलों में 700 रुपये प्रतिमाह निर्धारित हैं, उसके लिए राज्य या केंद्र ने सात लाख रुपये खर्च किए होंगे, वह भी सरकारी खजाने से।’
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने भी एक मामले में कहा कि ‘हमें यह कहने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है कि हम केंद्र सरकार द्वारा लंबित मामलों, बढ़ते बकाया, लगातार स्थगन व हमारी अदालतों द्वारा कथित तौर पर ‘व्यापार करने में आसानी’ के नाम पर पैदा की जा रही बाधाओं के बारे में बार-बार के दावों से परिचित हैं। इनमें इस तथ्य को आसानी से नजरअंदाज कर दिया जाता है कि सरकार ही अब तक की सबसे बड़ी वादी है। यही नहीं, सरकार अक्सर अनावश्यक रूप से स्थगन की मांग करती है।’
यह निर्विवाद तथ्य है कि सरकार देश में सबसे बड़ी मुकदमेबाज है। यह विडंबना ही है कि एक ओर सरकार कानूनी सहायता और वैकल्पिक विवाद समाधान को बढ़ावा देती है, वहीं दूसरी ओर वह स्वयं सबसे ज्यादा फिजूलखर्ची वाले मुकदमों में शामिल है। यह आंकड़ा उन अनगिनत सरकारी मुकदमों को दर्शाने के लिए पर्याप्त है, जो पिछले कुछ वर्षों में दायर किए गए हैं और जिन्होंने न्याय प्रशासन को काफी धीमा कर दिया है।
वास्तव में, मामलों को उनकी योग्यता के आधार पर नहीं देखा जाता। यह एक बुनियादी समझ है कि विभागीय अधिकारियों के लिए अदालत के आदेश के तहत अपने दायित्व का निर्वहन करना अधिक न्यायोचित और सुरक्षित है, क्योंकि स्वयं भुगतान करने पर उन्हें अपनी गलती के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण, जो कई कानूनी विभागों में देखा जा सकता है, कानूनी जागरूकता का अभाव है। सरकारी एजेंसियां अक्सर अति-तकनीकी और यांत्रिक तरीके से काम करती हैं। न्यायिक मिसालों या विकसित होते कानूनी मामलों पर ध्यान नहीं देतीं। भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर केवल 21 न्यायाधीश हैं। सभी न्यायालयों में लंबित पांच करोड़ मामलों के वर्तमान अनुमान से निपटने के लिए प्रति 10 लाख लोगों पर कम से कम 50 न्यायाधीशों की आवश्यकता है।
निश्चित रूप से समस्या आंकड़ों से कहीं अधिक गहरी है। भारतीय नौकरशाह व्यक्तिगत दायित्व से बचने के लिए आत्मरक्षा के लिए प्रवृत्त होते हैं। यदि कोई सरकारी अधिकारी मुकदमा न करने का निर्णय लेता है, तो ऐसे फैसले को सरकार के सर्वोत्तम हित में नहीं माना जाता है। अधिकारियों को मुकदमेबाजी का खर्च स्वयं वहन नहीं करना पड़ता, पर उन्हें मुकदमेबाजी न करने के परिणाम भुगतने होते हैं। खराब सेवा रिकॉर्ड के कारण फटकार लगने या संभावित रूप से कलंकित होने का डर वास्तविक है। इस डर को इस तथ्य के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए कि अधिकारियों का नियमित रूप से स्थानांतरण होता रहता है या वे सेवानिवृत्त हो जाते हैं। इसलिए किसी ‘खराब’ मामले को अदालत में लाने का मूल निर्णय संबंधित अधिकारी को प्रभावित नहीं करेगा।
सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना ने हाल ही में राज्य निकायों की आलोचना की है कि वे निराशाजनक मामलों को आगे बढ़ा कर जनता का पैसा बर्बाद कर रहे हैं। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने न्यायपालिका से मध्यस्थता अधिनियम, 2023 को अपनाने का भी आग्रह किया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यह न्याय तक पहुंच बढ़ाने और अदालतों पर बोझ कम करने के संसद के इरादे का प्रतिनिधित्व करता है। उन्होंने मध्यस्थता न्याय को समयबद्ध, सुलभ और न्यायसंगत बताया। उनके अनुसार, ‘मध्यस्थता न केवल न्याय प्राप्त करने का, बल्कि न्याय तक पहुंचने का भी एक नया आयाम है।’ यह टिप्पणी भुवनेश्वर में आयोजित द्वितीय राष्ट्रीय मध्यस्थता सम्मेलन में भारत में मध्यस्थता के लिए पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा देने पर आयोजित एक सत्र के दौरान की गई।
इसी सत्र में सर्वोच्च न्यायालय के एक अन्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति अरविंद कुमार ने कहा कि राज्य और केंद्र सरकारों के लिए मुकदमेबाजी के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलने का समय आ गया है, क्योंकि देश में लंबित लगभग आधे मामले सरकार या उसकी एजेंसियों से संबंधित हैं। उन्होंने भी विवादों को सुलझाने के लिए मुकदमेबाजी का सहारा लेने के बजाय मध्यस्थता का सहारा लेने का आग्रह किया। उन्होंने कहा, ‘सभी मंचों पर लंबित 46.78 प्रतिशत मुकदमे राज्य से संबंधित हैं-चाहे वह केंद्र सरकार हो, राज्य सरकारें हों या वैधानिक निकाय हों, अब समय आ गया है कि हम मध्यस्थता के माध्यम से विवादों को निपटाने के बारे में सोचें।’
केंद्र सरकार ने लंबित मामलों की औसत अवधि को 15 वर्ष से घटाकर तीन वर्ष करने का लक्ष्य रखा था। लेकिन इस लक्ष्य को कम करके भी हासिल करना मुश्किल है। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि राज्यों के पास इस समस्या के समाधान के लिए कोई ठोस योजना नहीं है। वे बड़ी संख्या में मामलों में उलझे हुए हैं। इसलिए समय की मांग है कि विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जमीनी हकीकत के अनुरूप ठोस मुकदमेबाजी-निवारक नीतियों के विकास पर पुनर्विचार किया जाए। edit@amarujala.com