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पुण्यतिथि: भारत का संविधान और डॉ. आंबेडकर के सपने तथा आशंकाएं

Shyouraj Singh Bechain श्यौराज सिंह बेचैन
Updated Thu, 04 Dec 2025 06:31 AM IST
सार
डॉ. आंबेडकर जितना इतिहास से वाकिफ थे, उससे अधिक उन्हें भविष्य का भी अनुमान था। संविधान में उनके सपने थे, तो आशंकाएं भी थीं।
 
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Death Anniversary:  Constitution of India and Dr. Ambedkar's Dreams and Fears
डॉ. बीआर आंबेडकर का इसी हफ्ते छह दिसंबर को 69वां महापरिनिर्वाण दिवस - फोटो : AI- ChatGPT

विस्तार
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राष्ट्र के नव निर्माण में अपनी संपूर्ण मेधा लगाने, संविधान बनाने में सेहत की ऊर्जा खपा देने और वंचित व उपेक्षित समाज को सामाजिक न्याय के माध्यम से मुख्य धारा में लाने की प्राण-पण से कोशिशें करने वाले बाबा साहब डॉ. बीआर आंबेडकर का इसी हफ्ते छह दिसंबर को 69वां महापरिनिर्वाण दिवस है। साल 1956 में इसी दिन 26, अलीपुर रोड पर उन्होंने अंतिम सांस ली थी।


अंतिम दिनों में 14 अक्तूबर, 1956 को उन्होंने नागपुर दीक्षा भूमि में पांच लाख अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अंगीकार किया था। इसी वर्ष उन्होंने अपनी आत्मकथा (अम्ही कसोझाला) ‘मैं कैसे बना?’ भी लिखनी शुरू की थी। इसी वर्ष उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत-भारत, समता और जनता समाचार पत्रों की निरंतरता में अपने पांचवें और अंतिम अखबार प्रबुद्ध भारत की शुरुआत की। जिस रात उनका परिनिर्वाण हुआ, उन्होंने अपने अंतिम ग्रंथ बुद्धा एंड हिज धम्मा की भूमिका लिख कर उसे पूरा किया था।


डॉ. आंबेडकर ने बहुत जल्दी पहचान लिया था कि हजारों साल से बहिष्कृत-अछूतों की मुक्ति का मार्ग विद्या से ही निकलेगा, सो उसके लिए उन्होंने बड़ौदा नरेश से सेवा शर्त पर छात्रवृत्ति ली, कोल्हापुर नरेश, छत्रपति शाहू महाराज की आंशिक मदद से लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स तथा कोलंबिया यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की। ज्ञान के जरिये ही भारत की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक दशा सुधारने में उन्होंने अपना अप्रतिम योगदान दिया। संविधान, जो उनकी सबसे बड़ी राष्ट्र सेवा थी, के लागू होने के बाद लोकतंत्र की यात्रा ने कई पड़ाव पार कर लिए हैं। वह जितना इतिहास से वाकिफ थे, उससे अधिक उन्हें भविष्य का भी अनुमान था। उसमें उनके सपने थे, तो आशंकाएं भी थीं। वह सांविधानिक कानूनों को लागू करने के प्रति उदासीनता और वर्ण-जाति भेदभाव वाली परंपराएं हावी होते देख रहे थे। उनका ख्वाब था कि राजकाज की ताकत मतदाताओं के हाथों में आए। भक्तिकाल के संत साहित्य का संरक्षण करने का उन्होंने खुला आह्वान किया था।

अपने साप्ताहिक पत्र जनता के 02 अगस्त, 1952 के अंक में  ‘पुराने साहित्य का पुनरुद्धार’ शीर्षक से संपादकीय में उन्होंने चोखोबा (चोखा मेला) की शिकायत यह काव्य पुन: प्रकाशित किया जाना चाहिए, लिखा था। यशवंत टिपणीस द्वारा लिखित सच्चा ब्राह्मण नाटक की समीक्षा स्वयं उन्होंने लिखी थी। समाज सुधार में ‘संत एकनाथ की भूमिका’ शीर्षक उनका साहित्यिक लेख जनता के 29 मार्च, 1933 अंक में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने कहा था कि मैं साहित्य सामाजिक-सांस्कृतिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए पढ़ता हूं, न कि मनोरंजन या समय बिताने के लिए। मुल्कराज आनंद का अंग्रेजी उपन्यास अनटचेबल 1935 में प्रकाशित हुआ था और डॉ. आंबेडकर की अनटचेबल पुस्तक 1948 में, जिसे उन्होंने चोखामेला, नंदनार और संत रैदास को समर्पित किया था। मुल्कराज ने प्रश्नाकुलता के साथ डॉ. आंबेडकर से मई 1950 में मुंबई में मुलाकात की थी।

आशंकाओं की ओर मुड़कर देखें, तो उनका संविधान समर्पण के समय दिया गया वक्तव्य पढ़ना चाहिए। आशंकाएं वहीं से शुरू हो जाती हैं, जब वह कहते हैं कि 26 जनवरी को हम जिस जीवन का आरंभ कर रहे हैं, वह विरोधाभासों से भरा है। आज हर दिन अस्पृश्यता की कोई न कोई घटना मीडिया में आती है, जो डॉ. आंबेडकर की उस आशंका की पुष्टि करती है। उनकी आशंका कि ‘स्वराज का हमारे ऊपर राज होगा’ हमारी नींद उड़ा ले जाती है। संविधान के अस्तित्व में आने और कांग्रेस का चुनाव जीतने के बाद डॉ. आंबेडकर ने 1953 व 1955 में भारत के मुल्कराज आनंद और प्रो. सत्यबोध हुदलीकर के बाद कई ब्रिटिश पत्रकारों को बहुत से साक्षात्कार दिए। उनमें से कई बीबीसी की आर्काइव में सुरक्षित हैं।

मोरिस-ब्राउन और फ्रांसीसी वैसरन, एचएन ब्रेल्सफोर्ड, व्हेरियर एल्विन द्वारा लिया गया साक्षात्कार उनकी भविष्य दृष्टि पर प्रकाश डालता है। उनसे पूछा गया था कि भारत में लोकतंत्र के असफल होने से आपको क्या खतरा लगता है? वह कहते हैं, ‘जब कोई बहुमंजिला इमारत गिरती है, तो सबसे निचले तल की इमारत, यानी अस्पृश्य, जमींदोज होती है।’ पत्रकार अगला प्रश्न दाग देता है कि क्या अमेरिकी विकास का मॉडल विकल्प हो सकता है? वह जवाब देते हैं कि हो सकता है, पर मुझे नहीं लगता अमेरिका में कभी साम्यवाद आएगा।

साम्यवाद न आने की बात भारत के संदर्भ में और अधिक विश्वास से कही जा सकती है, क्योंकि वामपंथी सवर्णों के जाति आग्रहों ने साम्यवाद की सारी संभावनाएं पहले ही नष्ट कर दी हैं। परंतु प्रत्येक व्यक्ति की आय व मूलभूत जरूरतें पूरी कर भारत सामूहिक विकास का लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। जिस प्रकार डायवर्सिटी अफर्मेटिव एक्शन के द्वारा अमेरिका ने हर क्षेत्र में अश्वेतों की भागीदारी सुनिश्चित की, सभी को कार्य करने के अवसर देकर उनको न्याय दिया और संतोष की वजह पैदा कर देश को विकसित बनाया, उसी प्रकार भारत उससे भी बेहतर कर सकता है। - लेखक, दिल्ली विश्वविद्यालय में पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष तथा वरिष्ठ प्रोफेसर हैं।
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