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कश्मीर के प्रतिनिधि : पहलगाम हमले से हमने क्या सीखा, घाटी के लोगों की प्रतिक्रिया ने दिया उत्तर
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पहलगाम आतंकी हमला
- फोटो :
अमर उजाला प्रिंट
विस्तार
भीषण त्रासदी के बीच आशा की तलाश करना सबसे बड़ी मानवीय भावनाओं में एक है। पहलगाम में आतंकवादियों द्वारा मारे गए पर्यटकों में से एक केरल के एन रामचंद्रन भी थे। घर लौटने पर उनकी बेटी आरती सारथ ने बेहद भावुक अंदाज में बताया कि इस घटना के बाद किस तरह से दो युवकों ने उनकी मदद की। सारथ ने ‘द हिंदू’ अखबार को जो बताया, उसके अनुसार, “दो शख्स, एक मुसाफिर और एक अन्य स्थानीय ड्राइवर समीर सही मायनों में कश्मीर के प्रतिनिधि हैं, जो सुबह तीन बजे तक मेरे साथ थे। उन्होंने मेरे साथ छोटी बहन जैसा व्यवहार किया। कश्मीर ने अब मुझे दो भाई दिए हैं।”
दूसरे अखबारों की रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है कि मुसाफिर और समीर का व्यवहार इस बात को दर्शाता है कि पूरे कश्मीर ने किस तरह से इस बर्बरता पर प्रतिक्रिया दी, जिसमें कई निर्दोष लोगों की जान चली गई। हमले की जगह पर मौजूद कई पर्यटकों की जान कश्मीरी मुसलमान गाइड ने बचाई। इन तीन गाइडों में एक, जो मुस्लिम था, वह भी आतंकी हमले में मारा गया। पर्यटक डर के मारे भाग रहे थे, तब मौलानाओं ने मस्जिदों के दरवाजे खोल दिए, ताकि उन लोगों के लिए बिस्तर की व्यवस्था की जा सके, जिनके पास होटल बुकिंग नहीं थी। टैक्सी चालकों ने श्रीनगर हवाई अड्डे तक जाने वाले यात्रियों से किराया लेने से इनकार कर दिया।
हमले के अगले दिन पूरे कश्मीर में हड़ताल का माहौल दिखा। सभी दुकानें, होटल, स्कूल-कॉलेज हिंसा पीड़ितों के प्रति संवेदना व्यक्त करने के उद्देश्य से बंद रखे गए थे। सभी राजनीतिक दलों, चाहे वह सत्ता में हो या विपक्ष में, ने सीमा पार से होने वाले इस हमले की
निंदा की।
इस इतिहासकार को हमले के बाद की स्थिति आजादी और विभाजन के बाद पाकिस्तान की ओर से घाटी पर किए गए पहले हमले के बाद कश्मीरियों के इसी तरह के अनुकरणीय व्यवहार की याद दिलाती है। उसके बाद 1947 में जब पूर्वी और पश्चिमी पंजाब में खासकर खूनी घटनाएं हो रही थीं, तब भी कश्मीर सांप्रदायिक सौहार्द का गढ़ बना हुआ था, क्योंकि मुस्लिम, हिंदू और सिख, सभी आक्रमणकारियों के खिलाफ एकजुटता से खड़े थे। इस बात में कोई दो राय नहीं कि आतंकवादियों ने हिंदुओं की टारगेट किलिंग के जरिए पूरे भारत के हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ भड़काने का काम किया। वे अपने इस मकसद में कामयाब नहीं हो पाए, कम से कम कश्मीर के मामले में तो नहीं। अब यह बाकी दूसरे राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में रहने वाले लोगों पर निर्भर है कि वे भी इसी तरह का व्यवहार दिखाएं। यह बहुत दुखद है कि इस घटना के बाद प्रधानमंत्री का पहला सार्वजनिक भाषण बिहार में हुआ। इस राज्य में कुछ ही महीनों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं, जो महज एक संयोग नहीं है। अपने उस भाषण और बाद में ‘मन की बात’ में प्रधानमंत्री मोदी ने इस बात को दोहराया कि सभी भारतीय एकजुट हैं, भले ही वे कोई भी भाषा बोलते हों। एक बेहतर राजनीतिक दृष्टिकोण तो यह होता कि धर्म की बहुलता को स्वीकारा और सराहा जाता। यह हमारे देश को भी अलग पहचान देती है। कश्मीरियों के इस प्रशंसनीय आचरण के मद्देनजर यह चूक परेशान करने वाली थी, जिसके बारे में प्रधानमंत्री अनभिज्ञ नहीं थे। इस आतंकी हमले के लिए आयोजित सर्वदलीय बैठक में शामिल न होना पीएम मोदी का लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति असम्मान को ही दिखाता है।
प्रधानमंत्री का बहुलवाद चयनात्मक है। यह भाषा को तो गले लगाता है, लेकिन धर्म को नहीं। अन्य भाजपा नेताओं की संकीर्ण सोच के बीच रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का बयान प्रशंसनीय था। उन्होंने कहा कि पहलगाम में हुए बर्बर हमले के बाद सभी भारतीय धर्म से परे एकजुट हैं। सीमा पार से किए गए पिछले आतंकवादी हमलों की तरह यह हमला भी दो अलग-अलग प्रकार की चुनौतियां लेकर आया है- एक, भारतीय राज्य के लिए और दूसरा, भारतीय लोगों के लिए। दिल्ली में बैठे अखबार के स्तंभकारों और टीवी एंकर्स, जो युद्ध कब और कैसे शुरू किया जाए, इस पर राय देते रहते हैं, के साथ ही मेरे पास भी इस मामले को लेकर कोई मौलिक विचार नहीं है। हालांकि लोकतंत्र और बहुलवाद के सांविधानिक मूल्यों के रक्षक के रूप में मेरे पास यह विचार है कि मेरे साथी नागरिकों को किस प्रकार प्रतिक्रिया देनी चाहिए। यह भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विचारों से बहुत हद तक मेल खाता है, जैसा कि उन्होंने 15 अक्तूबर, 1947 को विभाजन के ठीक दो महीने बाद राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखा था- ‘हमारे यहां मुस्लिम अल्पसंख्यक इतनी बड़ी संख्या में हैं कि वे चाहकर भी कहीं और नहीं जा सकते। उन्हें भारत में ही रहना है। पाकिस्तान की तरफ से कितना भी क्यों न उकसाया जाए या वहां गैर मुस्लिमों पर कितने भी जुल्म क्यों न किए जाएं, हमें इस अल्पसंख्यक समुदाय के साथ सभ्य तरीके से पेश आना होगा। उसे सुरक्षा और समान नागरिक अधिकार देना होगा।’
आज भारत में नेहरू को बहुत कम समझा जाता है और बदनाम किया जाता है। कुछ आलोचनाएं उचित हैं, जैसे कि प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू को 1950 के दशक के अंत तक अर्थव्यवस्था पर राज्य के नियंत्रण को समाप्त करना शुरू कर देना चाहिए था और उन्हें चीन पर इतने भोलेपन से भरोसा नहीं करना चाहिए था। दूसरी तरफ हम भारतीयों को अब पहले से कहीं अधिक मजबूत, अडिग, धार्मिक और भाषायी बहुलवाद की रक्षा की आवश्यकता है। इस संबंध में नेहरू के विचारों की प्रासंगिकता को हाल के कुछ सप्ताहों में पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर की कुछ टिप्पणियों से बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। आतंकी हमले से कुछ दिनों पहले इस व्यक्ति ने जोर देकर कहा था कि कश्मीर पाकिस्तान के ‘गले की नस’ है। वहीं पहलगाम में भारतीय पर्यटकों की हत्या के कुछ दिनों बाद उसने पाकिस्तानी सैन्य अकादमी के स्नातक कैडेट्स को संबोधित करते हुए कहा कि ‘भारत और पाकिस्तान हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र सिद्धांत की बुनियाद पर आधारित हैं।’ उसने जोर देते हुए कहा, ‘मुसलमान जीवन के सभी पहलुओं- धर्म, रीति-रिवाज, परंपरा, सोच और आकांक्षाओं में हिंदुओं से अलग हैं।’
जैसा कि सभी जानते हैं कि वीडी सावरकर जैसे हिंदू दक्षिणपंथी विचारधारा वाले लोगों ने इस तरह की सोच की पूरी तरह से नकल की। उन्होंने दो राष्ट्र सिद्धांत का अपना संस्करण प्रस्तुत किया। उन्होंने माना कि हिंदू और मुस्लिम दोनों अपने विचारों में भिन्न हैं। उनका दावा था कि हिंदू और मुसलमान एक ही राजनीतिक इकाई में कभी भी एक साथ शांतिपूर्ण तरीके से नहीं रह सकते। आज की परिस्थिति में हिंदुत्ववादी विचारधारा इस बात पर जोर देती है कि विभाजन के बाद वाले भारत में रहने वाले मुसलमानों को आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से हिंदुओं के अधीन रहना होगा।
जवाहरलाल नेहरू इस तरह की खतरनाक ध्रुवीय सोच के विरोध में अडिग खड़े रहे। जब आजादी के कुछ महीनों बाद पाकिस्तान अपने ही राज्य के गैर मुस्लिमों पर अत्याचार कर रहा था, तब नेहरू ने कहा था कि “भारत सरकार अल्पसंख्यक मुसलमानों के साथ सभ्य व्यवहार करेगी और उनके लोकतांत्रिक हितों की रक्षा करेगी।” अब जबकि पाक समर्थित आतंकियों ने कश्मीर में भारतीय और हिंदू पर्यटकों की बर्बरतापूर्ण तरीके से हत्या की है, ऐसे में हम, जो इस गणतंत्र के भविष्य की चिंता करते हैं, इसके आधारभूत मूल्यों को बनाए रखना चाहते हैं, तब हमें उन भारतीयों के साथ सम्मान और गरिमा से पेश आने तथा उन्हें पूर्ण भारतीय नागरिक मानने के अपने प्रयासों को दोगुना करना होगा, जो आस्था से मुसलमान हैं।