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अखिलेश के लिए चुनौती: सपा के वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश, कांग्रेस-भाजपा और बसपा डाल रही मुस्लिमों पर डोरे
चंद्रभान यादव, अमर उजाला, लखनऊ
Published by: शाहरुख खान
Updated Thu, 20 Oct 2022 11:07 AM IST
सार
बसपा व कांग्रेस ही नहीं भाजपा भी मुस्लिमों को अपने पाले में लाने के लिए हर जतन कर रही है। मुस्लिमों पर डाले जा रहे डोरे सपा की चुनौती बढ़ा रहे हैं। ऐसे में सियासी हलकों में चर्चा है कि इस लोकसभा चुनाव में मुस्लिम सियासत कौन सी करवट लेगी।
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सांकेतिक तस्वीर
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विस्तार
लोकसभा चुनाव-2024 की तैयारी शुरू होते ही प्रदेश में मुस्लिम सियासत को लेकर नए समीकरण बनने लगे हैं। कल तक सपा से गलबहियां करने वाले कई मुस्लिम नेता अब दूसरी जगह ठौर तलाश रहे हैं। बसपा व कांग्रेस ही नहीं भाजपा भी मुस्लिमों को अपने पाले में लाने के लिए हर जतन कर रही है।
मुस्लिमों पर डाले जा रहे डोरे सपा की चुनौती बढ़ा रहे हैं। ऐसे में सियासी हलकों में चर्चा है कि इस लोकसभा चुनाव में मुस्लिम सियासत कौन सी करवट लेगी। प्रदेश की सियासत में मुसलमानों की हिस्सेदारी करीब 18 फीसदी है। 403 विधानसभा सीट में करीब डेढ़ सौ सीटों पर इनका प्रभाव है। इसमें 50 से ज्यादा सीटों पर यह निर्णायक भूमिका में हैं।
पिछले विधानसभा चुनाव में 98 फीसदी मुस्लिम वोट बैंक सपा के साथ था, लेकिन सत्ता नहीं मिली। अब हालात बदल रहे हैं। लोकसभा चुनाव से पहले सपा के सामने अपने वोट बैंक को बचाने की चुनौती है तो बसपा, कांग्रेस और भाजपा इस बैंक को तोड़ने की जुगत भिड़ा रहे हैं। ऊपर से आम आदमी पार्टी और मुसलमानों की रहनुमाई के नाम पर सक्रिय तमाम मुस्लिम दल भी सक्रिय हैं।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रो. रेहान अख्तर कहते हैं कि मुसलमान पढ़ लिख गया है। वह धर्म के नाम पर नहीं बल्कि विकास की ओर देख रहा है। वह खामोशी से रास्ता तलाश रहा है। उसे विकास, शिक्षा और सेहत की फिक्र है। ऐसे में बिखराव से इन्कार नहीं किया जा सकता है। सपा विधायक जियाउर रहमान बर्क कहते हैं कि मुसलमानों की फिक्र सिर्फ उनकी ही पार्टी ने की है।
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मुस्लिमों पर डाले जा रहे डोरे सपा की चुनौती बढ़ा रहे हैं। ऐसे में सियासी हलकों में चर्चा है कि इस लोकसभा चुनाव में मुस्लिम सियासत कौन सी करवट लेगी। प्रदेश की सियासत में मुसलमानों की हिस्सेदारी करीब 18 फीसदी है। 403 विधानसभा सीट में करीब डेढ़ सौ सीटों पर इनका प्रभाव है। इसमें 50 से ज्यादा सीटों पर यह निर्णायक भूमिका में हैं।
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पिछले विधानसभा चुनाव में 98 फीसदी मुस्लिम वोट बैंक सपा के साथ था, लेकिन सत्ता नहीं मिली। अब हालात बदल रहे हैं। लोकसभा चुनाव से पहले सपा के सामने अपने वोट बैंक को बचाने की चुनौती है तो बसपा, कांग्रेस और भाजपा इस बैंक को तोड़ने की जुगत भिड़ा रहे हैं। ऊपर से आम आदमी पार्टी और मुसलमानों की रहनुमाई के नाम पर सक्रिय तमाम मुस्लिम दल भी सक्रिय हैं।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रो. रेहान अख्तर कहते हैं कि मुसलमान पढ़ लिख गया है। वह धर्म के नाम पर नहीं बल्कि विकास की ओर देख रहा है। वह खामोशी से रास्ता तलाश रहा है। उसे विकास, शिक्षा और सेहत की फिक्र है। ऐसे में बिखराव से इन्कार नहीं किया जा सकता है। सपा विधायक जियाउर रहमान बर्क कहते हैं कि मुसलमानों की फिक्र सिर्फ उनकी ही पार्टी ने की है।
दूसरों ने डर दिखाया है। सपा में ही मुसलमानों का हित है। दूसरी पार्टियों में यह कूबत नहीं है कि वे भाजपा से मुकाबला कर सकें। भाजपा के पसमांदा सम्मेलन समेत अन्य गतिविधियों को मुसलमान समझ रहा है कि आखिर यह सारी कवायद क्यों है?
सामाजिक चेतना फाउंडेशन के अध्यक्ष पूर्व जिला जज बीडी नकवी कहते हैं कि सपा को अपनी रणनीति बदलते हुए अहसास कराना होगा कि वह कल भी मुसलमानों के साथ थी और आज भी है। अब मुलायम सिंह यादव नहीं हैं। पार्टी शीर्ष नेतृत्व को नए सिरे से कोर वोटबैंक को रोकने के लिए रणनीति तैयार करनी होगी।
सपा को बदलनी पड़ेगी रणनीति
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले तमाम मुस्लिम नेता सपा में आए, लेकिन अब लौट रहे हैं। बसपा से सपा में आए शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली ने फिर घर वापसी कर ली। वह आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में मुस्लिम मतदाताओं की लामबंदी के जरिए सपा को मात देने में कामयाब रहे।
पश्चिम में कांग्रेस छोड़कर सपा में आने वाले इमराम मसूद भी बसपा में जा चुके हैं, जबकि मुरादाबाद में इकराम कुरैशी, रिजवान, उतरौला में पूर्व विधायक आरिफ अनवर, फिरोजाबाद में पूर्व विधायक अजीम, पडरौना में पूर्व जिलाध्यक्ष इलियास अंसारी, अयोध्या में अब्बास अली रुश्दी मियां जैसे नेता भी सपा को अलविदा कह चुके हैं। ऐसे में सपा को नए सिरे से रणनीति बनाते हुए कैडर वोट बैंक को बचाए रखना होगा। साथ ही नया वोटबैंक जोड़ने की रणनीति अपनानी होगी।
सामाजिक चेतना फाउंडेशन के अध्यक्ष पूर्व जिला जज बीडी नकवी कहते हैं कि सपा को अपनी रणनीति बदलते हुए अहसास कराना होगा कि वह कल भी मुसलमानों के साथ थी और आज भी है। अब मुलायम सिंह यादव नहीं हैं। पार्टी शीर्ष नेतृत्व को नए सिरे से कोर वोटबैंक को रोकने के लिए रणनीति तैयार करनी होगी।
सपा को बदलनी पड़ेगी रणनीति
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले तमाम मुस्लिम नेता सपा में आए, लेकिन अब लौट रहे हैं। बसपा से सपा में आए शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली ने फिर घर वापसी कर ली। वह आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव में मुस्लिम मतदाताओं की लामबंदी के जरिए सपा को मात देने में कामयाब रहे।
पश्चिम में कांग्रेस छोड़कर सपा में आने वाले इमराम मसूद भी बसपा में जा चुके हैं, जबकि मुरादाबाद में इकराम कुरैशी, रिजवान, उतरौला में पूर्व विधायक आरिफ अनवर, फिरोजाबाद में पूर्व विधायक अजीम, पडरौना में पूर्व जिलाध्यक्ष इलियास अंसारी, अयोध्या में अब्बास अली रुश्दी मियां जैसे नेता भी सपा को अलविदा कह चुके हैं। ऐसे में सपा को नए सिरे से रणनीति बनाते हुए कैडर वोट बैंक को बचाए रखना होगा। साथ ही नया वोटबैंक जोड़ने की रणनीति अपनानी होगी।
विधानसभा में स्थित
प्रदेश की स्थिति देखें तो 1977 से 1985 केबीच सदन में मुस्लिम विधायकों का प्रतिनिधित्व करीब 11 फीसदी रहा। 1989 में सिर्फ 38 मुस्लिम विधायक ही जीत पाए और प्रतिनिधित्व गिरकर 8.9 फीसदी हो गया। वर्ष 1991 में 4.1, 1993 में 5.9, 1996 में 7.8 और वर्ष 2002 में फिर 11.7 फीसदी पर पहुंच गया। यहां से बढ़ोतरी शुरू हुई और 2007 में 13.9, 2012 में 17.1 फीसदी हुई। इस दौरान सदन में 67 मुस्लिम विधायक रहे, लेकिन 2017 में 5.9 फीसदी हो गई। अब 2022 में 34 विधायक सदन पहुंचे हैं। यह करीब 8.4 फीसदी है। इसमें 31 सपा के और बाकी उसके सहयोगी रालोद और सुभासपा के हैं।