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MP: 1857 की क्रांति का गवाह बना राहतगढ़ का किला, 24 क्रांतिकारियों को दी गई थी फांसी; गजब रहा इसका इतिहास

न्यूज डेस्क, अमर उजाला, सागर Published by: शबाहत हुसैन Updated Wed, 14 Aug 2024 11:56 AM IST
सार

Independence Day: 15 अगस्त को भारतवर्ष आजाद हुआ था, इस दिवस को हम आजादी के जश्न के तौर पर मानते हैं और याद करते हैं उन वीर शहीदों को जिनके प्रयासों से मुल्क आजाद हुआ। आजादी के लिए लड़ने वाले वीरों की लड़ाइयों से इतिहास भरा पड़ा है। अनेको किस्से कहानियां हम जानते हैं, वही कई कहानियां गुमनाम हैं। इनमें से एक है बुंदेलखंड अंचल के वीर क्रांतिकारियों की गाथा, जिन्होंने सागर जिले के राहतगढ़ किले में साधन संपन्न अंग्रेजी सेना को नाकों चने चबवा दिए थे। 

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Independence Day 2024 Madhya Pradesh Sagar Rahatgarh Fort History Significance in Hindi
राहतगढ़ का किला - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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अंग्रेजों की गुलामी से आजादी पाने की ललक उन दिनों हर भारतवासी के दिलों में थी। भारतीय जनमानस अंदर ही अंदर सुलग रहा था, कभी बात बात पर आपस में लड़ने वाले जमीदार रजवाड़े भी गोरी सरकार की खिलाफत करने लगे थे। अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति का सूत्र पात यूं तो मेरठ छावनी में हुआ था, लेकिन इसकी बुंदेलखंड अंचल में शुरुवात झांसी में 27 जून 1857 को हुई,  जब क्रांतिकारियों ने झोकनबाग इलाके में अंग्रेज बस्तियों पर हमला कर 100 से अधिक अंग्रेजों को मार डाला। इसके बाद ललितपुर में भी गदर का आगाज हो गया। इस स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में सागर हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर ब्रजेश श्रीवास्तव बताते है कि इन घटनाओ से सागर में रहने वाले अंग्रेज घबरा ऊठे और उन्होंने अपने बीबी बच्चों सहित सागर के किले में शरण ले ली।

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सागर के किले में शरण लेने के पीछे अंग्रेजों की सोच थी चूंकि उस समय सागर का किला अभेद्य माना जाता था। अंग्रेजों ने इस स्थान को मध्य भारत की आयुध शाला बना लिया था यहां पर बनाये हथियार पूरे भारतवर्ष में भेजे जाते थे। ब्रिटिश शासन की नजर में सागर का जबलपुर से अधिक महत्व था, क्योंकि भारत वर्ष के मध्य में स्थित इस जगह से वह बेहतर रूप से आस पास के इलाकों की सत्ता चला सकते थे और 1857 के गदर के दिनों यहां की कमान जनरल सेज के हाथ में थी। साथ ही ब्रिटिश इंडियन फोर्स की पल्टन नंबर 42 और 33 यहां तैनात थी।
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सागर में विद्रोह की शुरुआत
बात इन दिनों की है, जब झांसी में अंग्रेजों पर क्रांतिकारियों ने हमला किया। तब सागर में भी देशभक्तों के खून में उबाल आ गया। देखते-देखते सागर में तैनात 42 एवं 33 बटालियन के सैनिकों ने शेख रमजान के नेतृत्व मैं बगावत कर दी, जिससे घबराकर अंग्रेज सागर किले में जा छिपे जहां ब्रिटिश सरकार का बड़ा जखीरा रखा हुआ था, जब क्रांतिकारियों को इन अंग्रेजों के किले में छिपे होने की सूचना मिली, तब इन्होंने इसे घेर लिया। वहीं दूसरी तरफ भोपाल रियासत की गढ़ी अम्बापानी के जागीरदार भाई आदिल मुहम्मद खान तथा फाजिल मुहम्मद खान ने राहतगढ़ पर हमला कर उस पर कब्जा कर लिया।

राहतगढ़ का किला 
सागर भोपाल मार्ग पर सागर से 25 मील दूरी पर स्थित राहतगढ़ को सागर का प्रवेश द्वार माना जाता है। यहां पर पहाड़ी पर 66 एकड़ में फैला विशाल किला है। राहतगढ़ पर एक समय परमार कलचुरी चंदेल गोंड़ मुगल बुंदेला मराठों ने शासन किया है। ब्रिटिश काल में यह किला अंग्रेजों के अधीन था, जिसका संचालन भोपाल रियासत से होता था। क्रांतिकारियों ने इस किले पर अधिकार कर लिया था। क्रांतिकारियों के इन हौसलों का असर आस पास भी हुआ। खुरई खिमलासा मालथौन सहित समूचे बुंन्देलखंड में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत होने लगी। सागर में 370 अंग्रेजों ने भागकर सागर किले में शरण ले ली थी।

सेंट्रल इंडिया फोर्स ने दबाया विद्रोह
बुंन्देलखण्ड की इस क्रांति का दमन करने ब्रिटिश सरकार ने अपने सबसे काबिल शातिर अफसर जनरल ह्यू रोज को भारत बुलाया ओर उसे महू (इंदौर) में सेंट्रल इंडिया फोर्स का संचालक बना कर क्रांति का दमन करने का आदेश दिया। ह्यू रोज भारी सेना लेकर आगे बड़ा उसको भोपाल रियासत से भी सैन्य सहयोग मिला। उसका मकसद राहतगढ़ सागर गढ़ाकोटा सहित समूचे बुंन्देलखण्ड के क्रांतिकारियों से निपट कर झांसी की ओर कूच करना था। भोपाल से ब्रिटिश सेनाएं दो टुकड़ियों में बंटकर भारी साजो सामान के साथ झांसी की ओर निकल पड़ी। एक टुकड़ी गुना चंदेरी के रास्ते झांसी की ओर निकली, जबकि ह्यू रोज की अगुआई वाली टुकड़ी को विदिशा राहतगढ़ होकर झांसी रवाना होना था। क्रांतिकारियों को भी यह सूचना मिल चुकी थी और उन्होंने ह्यू रोज की सेना से राहतगढ़ में टकराने के बारे में सोचा। 

राहतगढ़ में हुआ घमासान
ह्यूरोज सेना लेकर झांसी की ओर बढ़ रहा था। तब उसका सामना बुंदेलखंड के योद्धाओं से हुआ। शाहगढ़,तथा बानपुर के जवानों ने ह्यूरोज के सैनिकों को कड़ी टक्कर दी। ह्यूरोज का लक्ष्य राहतगढ़ का किला था। ह्यूरोज, अन्य अधिकारियों हैमिल्टन व पेंडर गोस्ट की टुकड़ियों के साथ यहां पहुंचा था। इतिहासकार बाबूलाल द्विवेदी द्वारा संपादित पुस्तक 'बानपुर और बुंदेलखंड' व सागर गजेटियर के मुताबिक ब्रिटिश सेना ने रात में ही राहतगढ़ दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया और सुबह होते ही दुर्ग पर गोलाबारी शुरू कर दी।

किले में सागर की 49वीं पैदल सेना के विद्रोही सैनिक थे। वे सहायता के लिए शाहगढ़, बानपुर और राजा मर्दन सिंह को पहले ही मदद के लिए पत्र लिख चुके थे। दुर्ग की सुरक्षा की विद्रोही सैनिकों ने कोई व्यवस्था नहीं की थी। इस वजह से वे किले में घिरकर रह गए। इसके बावजूद राहतगढ़ के किले से विद्रोही सैनिकों ने ब्रिटिश सेना की गोलाबारी का पूरा जवाब दिया। इसी बीच, राहतगढ़ दुर्ग में घिरे सैनिकों का पत्र मिलते ही शाहगढ़ व बानपुर की संयुक्त सेनाएं भी राहतगढ़ की ओर कूच कर चुकी थीं। सुबह से तीन घंटे ही युद्ध चल पाया कि राहतगढ़ पर घेरा डालने वाली ब्रिटिश सेना ने खुद को घिरा हुआ पाया। जवाहर सिंह, हिम्मत सिंह, मलखान सिंह जालंधर वालों ने ब्रिटिश सेना पर चारों ओर से घेरा डालकर हमला शुरू कर दिया था। इस पूरे घटनाक्रम में किले में मौजूद विद्रोही अपने साजो सामान सहित किले से निकलने में सफल रहे थे, लेकिन कुछ क्रांतिकारी अंग्रेजो के हाथ लग गए।

मुख्य द्वार पर 24 क्रांतिकारियों को दी गई थी फांसी
युद्ध के बाद बंदी बनाये गए 24 क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने किले के मुख्य द्वार पर फांसी पर लटका दिया था, जिनमें प्रमुख नाम अम्बापानी के जागीरदार फाजिल मोहम्मद खान का था

सागर किले में कैद अंग्रेज बंदियों को दिलाई मुक्ति
राहतगढ़ में विद्रोह का दमन कर ह्यूरोज ने भारी फौज के साथ रास्ते के विद्रोहों को कुचलते हुए सागर के क्रांतिकारियों पर हमला कर दिया और 7 माह 7 दिनों तक बंधक रहे अंग्रेजों को 3 फरवरी 1858 को आजाद कराया जा सका। इसके पश्चात अंग्रेजी सेना ने झांसी की ओर कूच किया, जहां रास्ते में मालथौन मदनपुर अमझरा तालबेहट बानपुर में क्रांतिकारियों के साथ भीषण युद्ध हुआ, इसमें अंग्रेजों को गद्दारो की भी सहायता मिलती गई और वह क्रांतिकारियों  को हराते हुए झांसी पहुंच गया। 

सागर से कृष्णकांत की रिपोर्ट 
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