पं. जयगोविंद शास्त्री, ज्योतिषाचार्य
अर्थात जो समस्त गणों तथा जीव-जगत के स्वामी हैं, वही गणेश हैं। इनका जन्म भादो शुक्ल चतुर्थी सोमवार को स्वाति नक्षत्र, सिंह लग्न और अभिजित मुहूर्त में हुआ। उस समय इनकी जन्म कुंडली में शुभग्रहों द्वारा पंचग्रही योग बना हुआ था और पापग्रह अपने-अपने कारक भाव में बैठे थे। पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) में ये जलतत्व के अधिपति हैं।
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आध्यात्मिक स्वरूप
ज्योतिष शास्त्र में अश्विनी आदि सभी नक्षत्रों के अनुसार, देवगण, मनुष्यगण और राक्षसगण, इन तीनों गणों के ईश गणेश ही हैं। ‘ग’ ज्ञानार्थवाचक और ‘ण’ निर्वाणवाचक है, ‘ईश’ अधिपति हैं अर्थात ज्ञान-निर्वाणवाचक गण के ईश गणेश ही परब्रह्म हैं। योग-शास्त्रीय साधना में शरीर में मेरुदंड के मध्य जो सुषुम्ना नाड़ी है, वह ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करके मष्तिष्क के नाड़ी समूह से मिल जाती है, जिसका आरंभ ‘मूलाधार चक्र’ है। इसी मूलाधार चक्र को गणेश स्थान कहते हैं। ये चराचर जगत की आत्मा हैं, सबके स्वामी हैं, हर प्राणी के हृदय की बात समझ लेने वाले सर्वज्ञ हैं। समस्त इंद्रियों का स्वामी होने से भी इन्हें गणेश कहा गया है। इनका सिर हाथी का और वाहन मूषक है। मूषक का कर्म है, चोरी करना, ये प्राणियों के भीतर छुपे हुए काम, क्रोध, मद, लोभादि पाप-कर्म की जो वृत्तियां हैं, उनका प्रतीक है, गणेश जी उस पर सवार होकर इन वृत्तियों को दबाए रहते हैं। इनके भजन-पूजन से पाप-कर्म की ये वृत्तियां दबी रहती हैं, जिसके फलस्वरूप जीवात्मा की चिंतन-स्मरण शक्ति तीक्ष्ण बनी रहती है। अतः मूषक वाहन का तात्पर्य अपने भीतर की दुष्टवृत्तियों का दमन करना ही है। ‘गजमुख’ में गज का अर्थ आठ होता है, जिसका तात्पर्य है- आठों दिशाओं की आठों प्रहर रक्षा करने वाला। ये पाश, अंकुश और वरमुद्रा धारण करते हैं, पाश मोह का प्रतीक है, जो तमोगुण प्रधान है, अंकुश वृत्तियों का प्रतीक है, जो रजोगुण प्रधान है, वरमुद्रा सत्वगुण का प्रतीक है। इनकी कृपा से प्राणी त्रिगुणातीत हो जाता है।
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Ganeshotsav 2025: घर घर विराजे भगवान गणेश, जानें आध्यात्मिक स्वरुप और नाम का प्रभाव
Ganesh Utsav 2025: श्रीगणेश हमारे घर आ चुके हैं। इस उत्सव में हम सब उनकी अराधना में जुटे हैं। जैसे सृष्टि का कोई भी शुभ कार्य जल के बिना पूर्ण नहीं हो सकता, वैसे ही गणेश पूजन के बिना कोई भी जप-तप, अनुष्ठान आदि कर्म पूर्ण नहीं हो सकता है।


क्या है महत्व?
10 दिनों तक चलने वाली इस पूजा में प्रदक्षिणा का बहुत महत्व है। नारद पुराण के अनुसार, सूर्य और अग्नि की सात-सात, विष्णु की चार, गणेश की तीन, दुर्गा जी की एक और शिव की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

नामों का प्रभाव
श्रीगणेश जी के मुख पर करोड़ों सूर्य के समान तेज है, जिनमें चंद्रमा की संपूर्ण कलाएं विद्यमान हैं, अतः उनके मुख की शोभा का मूर्तिमान नाम ‘सुमुख’ है। परशुराम जी ने फरसे के प्रहार से गणेश जी के एक दांत का बिच्छेद कर दिया था, जिसके कारण इनका ‘एकदंत’ नाम पड़ा। यह ब्रह्म की एकरूपता का प्रतीक है। ‘कपिल’ कपिलागाय के एक रंग का प्रतीक है। गायों में सभी देवी-देवताओं का वास है। इनके इस पवित्र नाम का उच्चारण करने से सभी देवी-देवताओं की स्तुति हो जाती है। ‘गजकर्ण’ अर्थात जिनके कान हाथी के कान के समान हों, जिनका तात्पर्य है अति धीर, गंभीर और सूक्ष्म बुद्धि वाला, सबकी सुनने वाला। इनकी आराधना से प्राणियों में यही गुण आ जाते हैं। ‘लंबोदर’ संकेत देता है कि दूसरों की कही गई भली-बुरी बातों को अपने अंदर ही रखें, उनको सार्वजनिक न करें, अन्यथा आप उपहास का पात्र बन सकते हैं। ‘विकट’ का अर्थ है ‘भयंकर’। गणेश जी दुष्टों के लिए काल समान हैं। इस नाम से हमें यह शिक्षा मिलती है कि दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए। ‘विघ्ननाशक’ अर्थात भक्तों के कार्य में आ रही सभी बाधाओं का नाश करने वाला। ‘विनायक’ नाम का तात्पर्य है, सभी नायकों के स्वामी। विनायक की कृपा से व्यक्ति समाज के सर्वोच्च पद पर आसीन होता है। उसके नेतृत्व शक्ति की शत्रु भी सराहना करते हैं। भगवान शंकर ने इनका नामकरण करते समय कहा था- “हे पार्वती! यह कुमार मुझ नायक के बिना ही उत्पन्न होकर पुत्र बना है, अतः इसका नाम ‘विनायक’ ही संसार में विख्यात होगा।” ‘धूम्रकेतु’ का अर्थ है, सफलताओं का परचम लहराने वाला अर्थात गणेश के धूम्रकेतु नाम के स्मरण मात्र से ही प्राणी सफलताओं के चरम पर होता है। वह जहां भी जाता है, लोग उसी का अनुसरण करने लगते हैं। ‘गणाध्यक्ष’ का तात्पर्य है, सभी गणों के स्वामी अर्थात श्रेष्ठों के भी श्रेष्ठ। इनकी कृपा से कार्य-व्यापार में उन्नति और नौकरी में पदोन्नति मिलती है। ‘भालचंद्र’ अर्थात जिनके मस्तक पर चंद्रमा विराजमान हों। चंद्रमा विराट पुरुष के मन से उत्पन्न हुए हैं, अतः इनकी आराधना से प्राणियों का मन मस्तिष्क एकाग्र रहता है, साधक जितेंद्रिय होकर संसार में पूजित होता है। इनके बारहवें नाम ‘गजानन’ का तात्पर्य है, लंबे-चौड़े कान गर्दन वाला, जिनमें ग्रहण करने की पूर्ण क्षमता हो। इन नामों का स्मरण करने से नामानुसार कहे गए फल शीघ्रता से प्राप्त होते हैं।

प्रदक्षिणा से बनेंगे काम
भाद्रपद माह श्रीगणेश को सर्वाधिक प्रिय है। जिस प्रकार श्रावण में प्राणी शिवमय और आश्विन में शक्तिमय हो जाता है, उसी प्रकार भाद्रपद में गणपतिमय हो जाता है। पूरा वातावरण गणेश जी की पूजा-आराधना, मंत्रों से गूंजता रहता है। किसी भी धार्मिक अनुष्ठान, पूजा-पाठ, अथवा मंदिर दर्शन के समय हम अंत में प्रदक्षिणा जरूर करते हैं, क्योंकि सभी वेदों, शास्त्रों तथा पुराणादि का मानना है कि जितना फल किसी देवता की पूजा से प्राप्त होता है, उतना ही फल उस देव की प्रदक्षिणा करने से मिलता है। प्रदक्षिणा का शास्त्रीय और व्यावहारिक अर्थ है, अपने आपको उसके प्रति समर्पित कर देना, सर्वोच्च मानना, पूज्य मानना। घर में माता-पिता की, सकाम अनुष्ठान में आचार्य की, श्राद्ध में पंडा की, विद्या मंदिर-स्कूल आदि में गुरु की, मंदिर जाने पर मंदिर की और विवाह के समय अग्नि की प्रदक्षिणा का विशेष महत्व है।
प्रदक्षिणा का मंत्र है-
ॐ यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च। तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणा पदे-पदे।।
नारद पुराण के अनुसार, सूर्य और अग्नि की सात-सात, विष्णु की चार, गणेश की तीन, दुर्गा जी की एक और शिव की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए। शिवलिंग की निर्मली, जल की नाली को ‘सोम सूत्र’ कहा जाता है, उसे कभी नहीं लांघना चाहिए। यदि निर्मली ढकी हो और गुप्त रूप से बनी हो तो पूरी परिक्रमा करने पर भी दोष नहीं लगता।

प्रदक्षिणा का आरंभ आदिकाल में गणेश जी ने किया। इसके पीछे बड़ी रोचक कथा है। एक बार श्रीगणेश और कार्तिकेय, दोनों भाइयों में बहस शुरू हो गई कि हम दोनों में बुद्धिमान कौन? इसका निर्णय करने के लिए दोनों माता-पिता के पास गए तो शिव-पार्वती ने कहा कि जो संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले पहुंचेगा, वही बड़ा और श्रेष्ठ बुद्धिमान माना जाएगा। कार्तिकेय मुस्कुराए कि मेरा वाहन मयूर है और गणेश का चूहा, अब तो मेरी जीत सुनिश्चित हो गई।
शर्त के अनुसार, कार्तिकेय जी ने तुरंत अपने वाहन मयूर पर सवार होकर पृथ्वी की परिक्रमा आरंभ कर दी। गणेश जी ने थोड़ी देर शांत बैठकर माता-पिता को अंतर्मन में प्रणाम करते हुए सही मार्ग निकालने की प्रार्थना की। उन्हें उपाय मिल गया। उन्होंने माता-पिता का हाथ पकड़कर ऊंचे आसन पर बिठाया। पत्र-पुष्प से उनके श्रीचरणों की पूजा की और उन्हीं की प्रदक्षिणा करने लगे। पहली प्रदक्षिणा हुई तो प्रणाम किया, दूसरी प्रदक्षिणा लगाकर भी प्रणाम किया। इस प्रकार कुल सात बार प्रदक्षिणा की।
शिव-पार्वती ने पूछा, “पुत्र, हम दोनों की प्रदक्षिणा क्यों कर रहे हो? तुम्हें तो पृथ्वी की सात प्रदक्षिणा करनी थी।” बुद्धि के स्वामी श्रीगणेश जी ने जवाब दिया, “सर्वतीर्थमयी माता, सर्वदेवमयो पिता" अर्थात मां में सभी तीर्थों और पिता में सभी देवताओं का वास है। सारी पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य होता है, वही पुण्य माता-पिता की प्रदक्षिणा करने से हो जाता है। पांच तत्वों में प्रधान आकाश से ऊंचा पिता का स्थान है। सभी जीवों, नदियों, तीर्थों आदि को धारण करने वाली पृथ्वी मां से भी ऊंचा जन्मदात्री मां का स्थान है। यह शास्त्र वचन है। अतः माता-पिता का पूजन करने से सभी देवी-देवताओं का पूजन हो जाता है। पिता देवस्वरूप और मां देवीस्वरूप हैं। आपकी सात परिक्रमा करके मैंने संपूर्ण पृथ्वी की सात परिक्रमाएं पूरी कर ली हैं।” गणेश जी के इस प्रकार शास्त्र सम्मत और तर्कपूर्ण वचन सुनकर शिव-पार्वती प्रसन्न हुए और उन्हें विजयी घोषित किया।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं, ज्योतिष, पंचांग, धार्मिक ग्रंथों आदि पर आधारित है। यहां दी गई सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है।
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