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Ideal Daughters: आदर्श बेटियों की प्रेरणादायक कहानी, जो बेटों को पछाड़ बनीं माता पिता का सहारा
लाइफस्टाइल डेस्क, अमर उजाला
Published by: शिवानी अवस्थी
Updated Fri, 20 Jun 2025 10:05 AM IST
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सार
Ideal Daughters : बेटियां परंपरागत सोच के विपरीत अपने माता-पिता की देखभाल में किसी से पीछे नहीं हैं और दूसरों के लिए प्रेरणा बन गई हैं। ये बेटियां उन लोगों के लिए मिसाल हैं, जो अपने माता-पिता को वृद्धावस्था में अकेला छोड़ देते हैं।

बेटियां बनीं माता पिता का सहारा (सांकेतिक तस्वीर)
- फोटो : Adobe stock
विस्तार
Ideal Daughters : माता-पिता का आभार व्यक्त करना जरूरी नहीं, बल्कि अपने अभिभावक का सहारा बनना आवश्यक है। आज के समय में समाज में कई ऐसे बेटे-बेटियों की मिसालें मौजूद हैं, जो अपने माता-पिता का सच्चा सहारा बनकर उनकी सेवा कर रहे हैं। ये संतानें अपने माता-पिता की जरूरतों को समझते हुए न केवल आर्थिक, बल्कि भावनात्मक रूप से भी उनका साथ निभा रही हैं। बेटियां परंपरागत सोच के विपरीत अपने माता-पिता की देखभाल में किसी से पीछे नहीं हैं और दूसरों के लिए प्रेरणा बन गई हैं। ये बेटियां उन लोगों के लिए मिसाल हैं, जो अपने माता-पिता को वृद्धावस्था में अकेला छोड़ देते हैं।
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लिवर देकर बचाई पिता की जान
हैदराबाद की रोहिणी दीप्ति नट्टी ने अपने पिता को लिवर देकर उनकी जान बचाई। वह बताती हैं, “2019 में मुझे पिता नट्टी शिवा प्रसाद राव के लिवर कैंसर के बारे में पता चला तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। पिता को स्वस्थ होने के लिए लिवर ट्रांसप्लांट की आवश्यकता थी। मेरे माता-पिता ने तब उम्मीद खो दी, जब उन्हें पता चला कि लिवर ट्रांसप्लांट के लिए एक जीवित लिवर दाता की आवश्यकता है। परिवार के सभी लोग बहुत परेशान थे और मुझे भी कुछ समझ नहीं आ रहा था। मेरा और पिता जी का ब्लड ग्रुप एक ही था, इसलिए तब मैंने उन्हें लिवर का एक हिस्सा देने का फैसला किया।
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इस फैसले में ससुराल पक्ष के लोगों ने भी सहमति जताई। सबसे ज्यादा पति ने हौसला दिया। जब मुझे लगा कि ट्रांसप्लांट की प्रक्रिया में मेरी जान को भी खतरा हो सकता है तो मेरे अंदर एक अजीब-सा डर समा गया, क्योंकि उस समय मेरा बेटा केवल दो साल का ही था। उसी दौरान पता चला कि पिता के दिल में ब्लॉकेज भी है और उन्हें ओपन हार्ट सर्जरी की भी आवश्यकता पड़ेगी।
उस क्षण मैंने संकल्प लिया कि पिता को स्वस्थ देखने के लिए जो भी करना पड़े, करूंगी। एक तरफ पति और दूसरी तरफ बेटी की एक साथ सर्जरी होने से मेरी मां चिंतित थीं, लेकिन मैं अपने निर्णय पर अडिग थी। सौभाग्य से सब कुछ ठीक हो गया। 14 घंटे की सर्जरी के बाद मैंने पिता को गले लगाया। आज हम सब खुशियों से भरी जिंदगी जी रहे हैं।”
बुढ़ापे में मां की लाठी
उत्तराखंड के देहरादून की सरिता बोस ऐसे समय में मां का सहारा बनीं, जब मां थापा देवी को चलने-फिरने के लिए किसी सहारे की जरूरत थी। वह बताती हैं, “1996 में लंबी बीमारी के कारण पिता चल बसे और 2012 में भाई की भी आकस्मिक मृत्यु हो गई। इन दुखद घटनाओं के बाद मेरी मां मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार रहने लगीं।
पिता ने घर का निर्माण कराया था, जो भाई के नाम हो चुका था और उसकी मृत्यु के बाद बहू इसकी वारिस बन गई। मां का सहारा अब उनकी बहू थी, लेकिन भाभी ने पल्ला झाड़ते हुए मां की देखभाल करने से मना कर दिया। इसके बाद मैंने और मेरी छोटी बहन ने मां की देखभाल की जिम्मेदारी ली।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, मां का स्वास्थ्य बिगड़ता गया। बहुत इलाज और प्रयास के बाद भी हम दोनों बहनें मां का तनाव कम नहीं कर पा रही थीं। ऐसे में छोटी बहन ने भी देखभाल करने से मना कर दिया। इसलिए मैंने पूरी तरह मां की देखभाल करने का निर्णय लिया। मैं एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका हूं। मेरे लिए पूरा समय मां की देखभाल करना मुमकिन नहीं था, इसलिए मां की देखभाल के लिए एक सेविका रख ली। आज माँ और मैं साथ-साथ खुशी से रहते हैं।”
मां को मेरी जरूरत है!
लखनऊ की रहने वाली पल्लवी मित्तल एक बैंकर हैं। उनका मायका और ससुराल एक शहर में होने के कारण वह अक्सर अपने माता-पिता की तकलीफ में उनके साथ खड़ी रहती हैं। पल्लवी बताती हैं, “मेरी मां शशि प्रभा गोयल को वर्षों से सीवियर आर्थराइटिस है, जिसकी वजह से वह हर रोज असहनीय दर्द से गुजरती हैं।
साल 2019 में मां का आर्थराइटिस काफी बढ़ गया। समय के साथ-साथ उनकी तकलीफ और ज्यादा बढ़ती गई। एक समय बाद वह दर्द और अकड़न के कारण बिस्तर से उठ भी पाती थीं। ऐसे में मैंने मां की देखभाल करने का फैसला किया। मैं हर रोज समय निकालकर मां के पास जाती और उनकी देख-रेख करती। मैं नई-नई मां बनी थी, इसलिए बेटे और मां की देखभाल करने के लिए ससुराल से मायके जाना मेरे लिए काफी थका देने वाला काम बन गया। तब मैंने मायके में रहकर ही मां की देखभाल की बात सोची। इसमें मेरे पति शांतनु मित्तल और ससुराल वालों ने भी सहमति जताई।
आज मैं अपने बेटे और पति के साथ मायके में ही रहकर मां और पिता जी की भी देखभाल कर रही हूं। मां का स्वास्थ्य अब काफी हद तक ठीक है और अब वह मेरे कार्यों में हाथ भी बंटाती हैं।
बेटियां बन रहीं मिसाल
ऐसे ही कई उदाहरण हैं, जहां बेटियों ने पढ़ाई-नौकरी या शादी की जिम्मेदारियों के साथ अपने माता-पिता को संभाला। भारतीय समाज में जहां बेटे को बुढ़ापे का सहारा कहा जाता है, वहां बेटियों ने वह सहारा बन एक आदर्श मिसाल पेश की। उन्होंने समझाया कि अपने माता-पिता का ख्याल रखना, उनका सहारा बनना या बुढ़ापे में उनकी जिम्मेदारी उठाना सिर्फ एक बेटे नहीं, बल्कि बेटी का भी कर्तव्य होता है और बेटियां यह कर्तव्य बखूबी निभाती हैं।
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