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व्रत और उपवास में क्या होता है अंतर, रखने से पहले जरूर जान लें ये नियम

आचार्य राजीव नारायण शर्मा, ज्योतिषविद् Published by: Madhukar Mishra Updated Fri, 02 Aug 2019 06:58 AM IST
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know significance and kinds of fasting upvas
vrat - फोटो : Rohit Jha
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दुनिया के लगभग सभी देशों तथा धर्मों में व्रत का महत्वपूर्ण स्थान है। हिंदू संस्कृति के विद्वानों के अनुसार व्रत-क्रिया को संकल्प, सत्कर्म अनुष्ठान भी कहा जाता है। व्रत करने से मनुष्य की अंतरात्मा शुद्ध होती है। इससे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रता की वृद्धि होती है, अकेला एक उपवास/व्रत अनेकों शारीरिक रोगों का नाश करता है। नियमतः व्रत तथा उपवासों के पालन से उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु प्राप्त होती है - यह सर्वथा निर्विवाद है। शास्त्रों में कहा गया है, 'व्रियते स्वर्गं व्रजन्ति स्वर्गमनेन वा' अर्थात् जिससे स्वर्ग में गमन अथवा स्वर्ग का वरण होता हो।

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व्रत और उपवास में अंतर
ऋषियों, आचार्यों ने तपस्या, संयम और नियमों को व्रत का समानार्थक माना है। वास्तव में व्रत और उपवास दोनों एक ही हैं। संस्कृत में 'उप' मायने समीप और 'वास' का अर्थ बैठना यानि परमात्मा का ध्यान लगाना, उनकी जप-स्तुति करना है। इनमें एक अंतर और भी है कि व्रत में भोजन किया जाता है और उपवास में निराहार रहना पड़ता है। व्रत, उपवास हिंदू संस्कृति एवं धर्म के प्राण हैं, व्रतों पर वेद, धर्मशास्त्रों, पुराणों तथा वेदाङ्गों में बहुत कुछ कहा गया है। व्रतों पर व्रतराज, व्रतार्क, व्रतकौस्तुभ, जयसिंह कल्पद्रुम, मुक्तक संग्रह, हेमाद्रिव्रतखण्ड आदि अनेक लेख और निबंध लिखे गये हैं।

व्रत करने के लाभ 
मनुष्यों के कल्याण के लिए, उनके अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों को दूर करने के लिए, हमारे तपस्वी ऋषियों ने अनेक साधन नियत किए हैं। उनमें से एक साधन व्रत-उपवास भी है। नियमित व्रत करने से हमारा अच्छे स्वास्थ्य के कारण शारीरिक बल के साथ साथ मनोबल और आत्मबल भी बढ़ता है। हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है। हमारे अंदर के काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, नफरत, स्वार्थ जैसे अनेक विकार दूर होते हैं और हमारे अंदर दया, करुणा, प्रेम, सहनशीलता, सहयोग की भावना बढ़ती है। जिससे हम स्वयं के साथ साथ, देश, समाज, विश्व और समस्त मानव-जाति के कल्याण में भागीदार बनने में समर्थ होते हैं।

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कितने प्रकार के होते हैं व्रत
शास्त्रों के अनुसार, यज्ञ, तप और दान ही मनुष्य के जीवन के प्रमुख और महत्वपूर्ण कर्म माने गये हैं। व्रत और उपवास के नियम-पालन से शरीर को तपाना ही 'तप' है। व्रत अनेक हैं और अनेक व्रतों के प्रकार भी अनेक हैं। ये कायिक, वाचिक, मानसिक, नित्य, नैमित्तिक, काम्य, एकभुक्त, अयाचित, मितभुक, चांद्रायण और प्रजापत्य के रूप में किये जाते हैं।

1. कायिक (physical)व्रत : किसी भी प्रकार की हिंसा का त्याग, नियमित और उचित भोजन करना, धन संग्रह न करना, ब्रह्मचर्य इत्यादि।

2. वाचिक (through speech)व्रत : सत्य, और मधुर बोलना, निंदा-कटुता का त्याग और मौन रहना।

3. मानसिक(Mind control) व्रत: राग और द्वेष का त्याग करके वैराग्य का अभ्यास, भक्ति, मानसिक-जप, स्वाध्याय (वेद, पुराण, उपनिषदों, गीता, रामायण और ऋषियों, विद्वानों के द्वारा लिखित अन्य पॉजिटिव साहित्य), ईश्वर की शरणागति और दीन-दुखियों की सेवा। 

4. पुण्यसंचय के एकादशी आदि 'नित्य' व्रत, पापों के नाश के लिये, मन के स्वामी चंद्रमा की प्रसन्नता के लिये चांद्रायण (चंद्र तिथियों के अनुसार) आदि 'नैमित्तिक' व्रत, सुख-सौभाग्यादि के वटसावित्री आदि 'काम्य' व्रत माने गये हैं।

5. 'एकभुक्त' व्रत के स्वतंत्र (दिनार्ध होने पर), अन्याङ्ग (मध्याह्न में) और प्रतिनिधि (आगे-पीछे कभी भी)। 

6. 'नक्तव्रत', रात्रि होने पर किया जाता है, परन्तु संन्यासी, विधवा को सूर्य के रहते हुए। 

7. 'अयाचितव्रत' में बिना मांगे जो कुछ मिले, उसी का निषेधकाल बचाकर दिन या रात में केवल एक बार भोजन करें। 'मितभुक्त' में प्रतिदिन एक नियमित मात्रा (लगभग 10 ग्राम) में भोजन किया जाता है। ये दोनों व्रत परम सिद्धि देने वाले होते हैं।

8. 'प्राजापत्य' 12 दिनों का होता है। हिंदू धर्म में पांच महाव्रत माने गये हैं। ये हैं संवत्सर (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा), रामनवमी (चैत्र शुक्ल नवमी), कृष्णजन्माष्टमी (भाद्रपद अष्टमी), शिवरात्रि (फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी) और दशावतार (भाद्रपद शुक्ल दशमी) शास्त्रों के अनुसार सभी प्रकार के व्रतों में, मास, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण, समय यानि काल और देवपूजा का बहुत महत्व है।


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