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Samwad: योगेश्वर बोले- पदक के लिए कॉरपोरेट जगत को भी साथ आना होगा; जैस्मिन बोलीं- हर मैच को फाइनल की तरह खेलें
स्पोर्ट्स डेस्क, अमर उजाला, गुरुग्राम
Published by: स्वप्निल शशांक
Updated Wed, 17 Dec 2025 12:34 PM IST
सार
अमर उजाला संवाद के मंच पर ओलंपिक पदक विजेता पहलवान योगेश्वर दत्त और विश्व चैंपियन महिला मुक्केबाज जैस्मिन लंबोरिया भी नजर आए। इन दोनों ने 'खेलों पर बात' सत्र में हिस्सा लिया। योगेश्वर और जैस्मिन ने इस दौरान अपने करियर, संघर्ष और एक एथलीट के लिए सही खान-पान कितना जरूरी है, इस पर अपनी राय रखी। आइए जानते हैं योगेश्वर और जैस्मिन के साथ सवाल-जवाब का दौर किस प्रकार चला...
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योगेश्वर दत्त और जैस्मिन लंबोरिया
- फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
हरियाणा इस बार खेल, संस्कृति और संवाद का बड़ा मंच बना है। अमर उजाला संवाद 2025 का आयोजन गुरुग्राम में चल रहा है, जहां खेल, मनोरंजन और राजनीति जगत की दिग्गज हस्तियां शिरकत कर रही हैं। खास बात यह है कि इस मंच पर ओलंपिक पदक विजेता पहलवान योगेश्वर दत्त और विश्व चैंपियन महिला मुक्केबाज जैस्मिन लंबोरिया भी नजर आए। इन दोनों ने खेलों पर बात सत्र में हिस्सा लिया। योगेश्वर और जैस्मिन के साथ सवाल-जवाब का दौर इस प्रकार चला...
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जैस्मिन लंबोरिया
- फोटो : अमर उजाला
सवाल - आखिर कैसे हरियाणा खिलाड़ियों के अंदर जोश की वजह क्या है?
योगेश्वर: सभी को राम राम पहले तो मैं धन्यवाद देता हूं अमर उजाला को, कि आपने खेल सेशन को रखा। जब बात हरियाणा की आती है तो सबसे पहले हमारे ग्रामीण खेल हैं, कुश्ती है, कबड्डी है, बॉक्सिंग है, हॉकी है, इसकी आती है। हरियाणा के लोगों में जुनून है। ये आती है हमारी संस्कृति से। हमें पुरखों से मिली है संस्कृति। वो चाहे खेल में हो, किसानी हो, समाज सेवा में हो, सेना में हो। आगे बढ़ना का जज्बा विरासत में मिला है। बड़ों से सीखा है। हमने ओलंपिक में अगर छह पदक जीते तो तीन हरियाणा से हैं। एशियन गेम्स में भी आधे पदक हरियाणा लाता है। जो खिलाड़ी के कोच का बड़ा योगदान रहता है। सरकार का भी रोल रहता है। हरियाणा की मिट्टी में जो जोश है और संघर्ष है, उससे हमें पदक मिलते हैं।
सवाल - कैसा है ये जोश?
जैस्मिन: अभी जो लड़कियां हैं वो बहुत अच्छा कर रही हैं। सिर्फ बॉक्सिंग नहीं, बहुत से खेल है, चाहे वो बैडमिंटन हो रेसलिंग हो। हम जो समर्थन मिल रहा परिवार का, क्योंकि हमारे सीनियर ने एक मंच तैयार किया है। हमें एक पहचान दिखाई है कि हरियाणा खेलों में कितना अच्छा है। मतलब भारत का एक छाप छोड़ा है, वो हमारे लिए लाभदायक हो रहा है। परिवार वाले भी समझ रहे हैं, कि लड़कियां कर रही हैं और उन्हें भी समर्थन देना चाहिए। काफी अच्छा लगता है जब हम बाहर निकलते हैं और हरियाणा को अपनी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं।
सवाल - जब आप चैंपियनशिप या मेडल जीतती हैं तो अपने ईर्द गिर्द बदलाव देखती हैं, जो लड़कियां आपसे मिलने आती हैं?
जैस्मिन: जो यूथ लड़कियां हैं, वो भी हमसे ही सीख रही हैं। इसलिए हमारा दायित्व है कि हम अच्छा करें। हमारी वजह से अगर 10 लड़कियां और अच्छा करना चाह रही हैं तो हम और अच्छा करें ताकि आने वाला जनरेशन मोटिवेशन ले। काफी अच्छा लगता है जब बच्चे हमसे पूछते हैं और सीखते हैं। आगे भी मेरा यही प्रयास रहेगा कि मैं देश के लिए कुछ कर पाऊं।
सवाल - कुश्ती में जो भारत ने धाक जमाई, उनमें से आप एक चेहरा हैं। आपके लिए काफी मुश्किलें भी आई होंगी। जो बच्चा अब कोशिश करना चाहता है उसे क्या करना चाहिए? क्या रास्ता है?
योगेश्वर: सुधार की गुंजाइश हमेशा रहती है। मैंने 1988-89 में कुश्ती शुरू किया था। तब मेरी उम्र सात साल थी। उस समय में गर्मियों में या बरसात में दिक्कत का सामना करना पड़ता था। हमारे पास गांव में मैट नहीं होता था, किट नहीं होती थी। पर उस टाइम और अब बहुत सुविधाएं हैं, लेकिन ग्रास रूट पर बहुत काम करने की जरूरत है। हमें हमेशा सुधार करते रहना चाहिए। हम अगर चाहते हैं कि 2036 ओलंपिक भारत में हो तो उसमें हर खेल पर फोकस करना होगा। सभी खिलाड़ियों का इतिहास गांव से और मध्य वर्ग परिवार से हैं। हमें ग्रासरूट पर तैयारी करनी चाहिए। जो बच्चा अभी 10 साल का है वो 2036 में हमें कितने पदक दिला सकता है। वो चीजें हमें सोचनी हैं। और हर खेल की अलग कैटेगरी बनानी होगी। तो हम ज्यादा अच्छा प्रदर्शन कर पाएंगे। हमारे खिलाड़ियों में पूरा जोश है। मेहनत के मामले में हमसे ज्यादा कोई नहीं है पूरी दुनिया में। खेलों में हम तभी आगे बढ़ेंगे जब एक साथ आगे बढ़ेंगे।
सवाल - जो मां बाप की सोच है खेल को लेकर,उसमें अभी हम पीछे हैं क्या?
योगेश्वर: नहीं नहीं उससे हम आगे निकल चुके हैं। लड़के हो या लड़कियां हों। अब एक सोच तो हट चुकी है कि हमें लड़कों को ही खेल में डालना है, लड़कियों को नहीं डालना है। अब दोनों एक जैसे हैं। माता पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा कोई न कोई खेले। माइंडसेट अब मजबूत है। माता पिता का माइंडसेट बदला है। वो चाहते हैं कि बच्चा खेल में आगे बढ़े। वो खुद मैदान में ले जाते हैं। हम कुश्ती अकेले करते थे। अब बच्चों के माता पिता अखाड़े भी जाते हैं।
सवाल - जब मेडल आया विश्व चैंपियन में गोल्ड, तो क्या चल रहा था दिमाग में?
जैस्मिन: मैंने 2022 में विश्व चैंपियनशिप खेली वहां क्वार्टर फाइनल में हारी, 2023 में भी खेली, वहां भी मैंने क्वार्टर फाइनल में हारी। तो मैं मेडल के पड़ाव पर ही कहीं न कहीं रुक जा रही थी। इस बार था कि करना है। मैंने हर फाइट को फाइनल की तरह लेकर चला। फाइनल फाइट भी काफी टफ रही थी। मैंने प्रेशर नहीं लिया। वो भी खिलाड़ी है और मैं भी हूं। बेस्ट देना है रिजल्ट चाहे जो भी आए। मैंने अपना गेम खेला। काफी अच्छा लगता है जब हम भारत के लिए इतना करते हैं।
सवाल - हरियाणा की बेटियां इतने मुश्किल कैसे चुन लेती हैं? कुश्ती मुक्केबाजी जैसे खेल?
जैस्मिन: मेरा तो ये था कि मैंने तो अपने घर में ही देखा है। भिवानी बॉक्सिंग का हब बोला जाता है। हमारे आसपास सभी खेलते थे। मैंने खुद अपने दोनों चाचा को खेलते हुए देखा। तो हम उनकी फाइट्स देखते थे, मेडल्स देखते थे। इक्विपमेंट्स देखते थे। तो वो सब हम चीजें देख रहे थे तो हमें प्रेरणा मिली कि हम भी खेलेंगे। तो मुझे तो वहीं से प्रेरणा मिली। हरियाणा के लोगों में अलग तरह का जोश रहता है कि नहीं ये तो करना है। हमें ये चीजें पहले से मिलीं। इसी वजह से हम फाइटिंग गेम्स चुन पा रहे हैं।
सवाल - बहुत सी बच्चियां आपको आइडल मानती हैं। तो जो बच्चियां तैयारी कर रही हैं, उन्हें बताइए कि क्या चैलेंजेज आते हैं?
जैस्मिन: कुछ भी हम करते हैं, उसमें स्ट्रगल रहता है अपने अपने लेवल का। किसी को फाइनेंसियल रहती हैं, या किसी का स्पोर्ट का रहता है। कभी अच्छे पार्टनर नहीं मिलते हैं। सपने बड़े हों और सपोर्ट मिल रहा हो तो ये सब कवर होता जाता है। स्ट्रगल रहता है तो लेकिन जब बात सपनों की आती है तो ट्रेनिंग सामने आता है कि नहीं बस करते जाओ जाओ।
सवाल - योगेश्वर जब 2012 में मेडल जीता। उस मोमेंट के लिए क्या प्लान किया था?
योगेश्वर: 2012 मेरा तीसरा ओलंपिक था। 2004 और 2008 में मैं बिना पदक के आया था। एक टीस थी एक आग थी कि मेडल जीतना है। लिएंडर पेस ने जब 1996 में मेडल जीता था तो एक आग थी कि अब तो पदक जीतना है। उसके बाद लंबा सफर तय किया है। दो ओलंपिक में जब नजदीक आकर मेडल नहीं आए तो ज्यादा तकलीफ हुई। 2012 में जब मेडल जीता तो एक ये था कि सपना पूरा हुआ। उससे पहले मेरा ऑपरेशन भी हुआ था। जब सपना पूरा करने में लगते हो तो न नींद सुख चैन सब छिन जाता है। एक सपने के पीछे भागना बड़ा अजीब होता है। रुकावटें भी आईं, लेकिन जिंदगी इसी का नाम है। एक खिलाड़ी कभी हार नहीं मानता। हार न मानने की जिद ने मुझे पदक दिलाया, नहीं तो मुझे काफी चोटों लगी थीं। एक खिलाड़ी जब पदक जीतता है तो उसके पीछे काफी योगदान होता है उन चेहरों का जो दिखाई नहीं पड़ते। मेरे घर वाले, कोच सबका बहुत योगदान था।
सवाल - चोटों से रिकवर होने में काफी मेहनत लगती है, शरीर के साथ दिमाग का भी खेल है। आपने खुद फेस किया है। इस बारे में बताइए...
योगेश्वर: खिलाड़ी के लिए सबसे बुरी चीज इंजरी होती है। किसी प्रतियोगिता के समय लग जाए तो प्रतियोगिता से दूर कर देती है। मेरे पांच ऑपरेशन हुए पैरों के। डिश स्लिप भी हुई थी। इंजरी खिलाड़ी के लिए सबसे बड़ी मुसीबत होती है। आपको नहीं पता कि कल आपको ओलंपिक में हिस्सा लेना है और आज इंजरी हो जाए तो आप उससे दूर हो जाते हैं। एक ऑपरेशन ठीक होने में लगभग एक साल लेता है। तो मेरे इतने लंबे करियर में कई ऑपरेशन हुए। चार ओलंपिक मैं खेला। खिलाड़ी का गहना है इंजरी, लेकिन यह गहना सबसे ज्यादा तकलीफ देता है। परेशानी रुकावटें आपको रोक नहीं सकतीं।
जैस्मिन: मुझे कभी इंजरी हुई नहीं। हम देखते हैं कि हमारे आसपास के बहुत से खिलाड़ी इंजर्ड हुए। इससे उनके छह सात महीने निकल जाते हैं। हमने तो देखा है। उस टाइम पर निगेटिव विचार भी आते हैं। वो अकेले अकेले सोच के खुद भी परेशान होते हैं। लेकिन वो फिर भी करते रहते हैं। मैं ठीक होऊंगा। उस टाइम पर इतनी खुशी थी कि मैं बता नहीं सकती। जो सपोर्ट हमे मिला था उसको हम याद कर पाते हैं कि इनकी वजह से ये सब हो पाया।
सवाल - प्रोफेशनल कुश्ती और पारंपरिक अखाड़ा सिस्टम में आपको सबसे बड़ा फर्क क्या लगता है?
योगेश्वर: मिट्टी की कुश्ती और मैट की कुश्ती में बड़ा फर्क होता है। अगर हमें ओलंपिक मेडल जीतना है तो मैट पर ही कुश्ती करनी होगी। मिट्टी और मैट में जब बच्चा दोनों पर ट्रेनिंग करता है तो उसका फायदा होता है। मिट्टी की कुश्ती में जोर आजमाइश ज्यादा लगती है। सारे बच्चे मिट्टी में ही खेलकर आगे बढ़े हैं। बिना मिट्टी में प्रैक्टिस किए आपको अपनी मिट्टी अपने देश से प्यार नहीं हो सकता।
सवाल - कुश्ती में ताकत जरूरी होती है या तकनीक जरूरी होती है?
योगेश्वर: जितने भी काउंटर स्पोर्ट्स हैं उसमें माइंडसेट का खेल है। दिमाग का खेल होता है। ताकत के साथ साथ दिमाग की भी जरूरत है। सेकंड में हमें अपना डिसीजन लेना होता है और डिसाइड करना होता कि कौन सा दांव लगाना है। डिफेंस भी करना होता है। ताकत के साथ तकनीक भी जरूरी है। डाइट भी जरूरी है। वेट कैटेगरी की वजह से। मैं चार ओलंपिक में तीन अलग अलग वेट कैटेगरी में खेला हूं।
सवाल - एक नॉर्मल और एक पहलवान में ये दूध का फैक्टर कितना जरूरी है?
योगेश्वर: पहलवानों के लिए दूध और घी बहुत जरूरी है। हमारे बड़े बुजुर्गों ने जो नुस्खा अपनाया, उसको छोड़कर अगर हम दूसरी चीज में जाएंगे तो फायदा नहीं होगा। तो बचपन से हमें ये चीजें मिली हैं। आजकल तो डॉक्टर भी इनके लिए मना नहीं करते। दूध और घी खूब खाइए, लेकिन मेहनत भी करिए। बिना मेहनत के कुछ नहीं हो सकता।
सवाल - पिछले कुछ वक्त में कुश्ती में जो हमने ऊंचाइयां छुईं थीं उसमें एक रुकावट नजर आती है। हम कहां लूज कर रहे हैं?
योगेश्वर: कुश्ती में बिल्कुल रुकावट नहीं है क्योंकि पिछले पांच ओलंपिक से कुश्ती में हमें पदक मिले हैं। आप ओवरऑल खेलों की बात करो तो बिल्कुल हम उन ऊंचाइयों तक नहीं पहुंच सके जहां तक हमें होना चाहिए था। सरकार काफी खेलों पर काफी पैसा खर्च करती है, लेकिन मेरा मानना है कि खेलों को अगर और ऊंचाइयों तक ले जाना है तो कॉरपोरेट जगत को भी आगे आना चाहिए। खेलों में मदद करनी चाहिए। कुछ ऐसे भी हैं। जो पर्सनल एकेडमी चलाते हैं तो हमें उन पर ज्यादा फोकस करने की जरूरत है। सरकार जैसे टॉप्स स्कीम के आधार पर बच्चों की मदद कर रही है, वैसे ही हम सभी को एक टीम के तौर पर काम करना होगा तभी हम ओलंपिक मेडल जीत सकते हैं। हम उतने मेडल नहीं जीत पाए जितने होने चाहिए थे। टोक्यो में हमारे सात पदक थे, लेकिन पेरिस में छह। हमारा मानना है कि 2036 ओलंपिक अगर हम करवाते हैं तो अगर 10-15 मेडल आएं या फिर हम शीर्ष पांच देशों में रह पाएं तो यह खेलों के लिए बहुत अच्छा होगा। साथ ही कॉरपोरेट जगत को आगे आना चाहिए। जो पर्सनल एकेडमी चलाते हैं, वो मदद करें और उन पर फोकस करें।
खेल ज्यादा आसान है या राजनीति ज्यादा आसान है?
योगेश्वर: जिंदगी मुश्किल है। यहां खेल और राजनीति की बात नहीं है। अगर हम यहां तक आएं हैं तो संघर्ष करना पड़ेगा। आपने मुझे खेल की वजह से यहां पर बुलाया है और खेल की वजह से ही मैं राजनीति में आया हूं। राजनीति अलग है और खेल अलग है। खेल हमें खुशी देता है, लेकिन राजनीति हम कुछ अलग से करते हैं ताकि समाज की मदद कर सकें। हम राजनीति इसलिए करते हैं ताकि बच्चों की मदद कर सकें और खेलों में आगे बढ़ा सकें। समाज के लिए कुछ अच्छा करने का जरिया है। कुश्ती में दांव आमने-सामने लगते हैं, लेकिन राजनीति में पीछे से लगते हैं।
योगेश्वर: सभी को राम राम पहले तो मैं धन्यवाद देता हूं अमर उजाला को, कि आपने खेल सेशन को रखा। जब बात हरियाणा की आती है तो सबसे पहले हमारे ग्रामीण खेल हैं, कुश्ती है, कबड्डी है, बॉक्सिंग है, हॉकी है, इसकी आती है। हरियाणा के लोगों में जुनून है। ये आती है हमारी संस्कृति से। हमें पुरखों से मिली है संस्कृति। वो चाहे खेल में हो, किसानी हो, समाज सेवा में हो, सेना में हो। आगे बढ़ना का जज्बा विरासत में मिला है। बड़ों से सीखा है। हमने ओलंपिक में अगर छह पदक जीते तो तीन हरियाणा से हैं। एशियन गेम्स में भी आधे पदक हरियाणा लाता है। जो खिलाड़ी के कोच का बड़ा योगदान रहता है। सरकार का भी रोल रहता है। हरियाणा की मिट्टी में जो जोश है और संघर्ष है, उससे हमें पदक मिलते हैं।
सवाल - कैसा है ये जोश?
जैस्मिन: अभी जो लड़कियां हैं वो बहुत अच्छा कर रही हैं। सिर्फ बॉक्सिंग नहीं, बहुत से खेल है, चाहे वो बैडमिंटन हो रेसलिंग हो। हम जो समर्थन मिल रहा परिवार का, क्योंकि हमारे सीनियर ने एक मंच तैयार किया है। हमें एक पहचान दिखाई है कि हरियाणा खेलों में कितना अच्छा है। मतलब भारत का एक छाप छोड़ा है, वो हमारे लिए लाभदायक हो रहा है। परिवार वाले भी समझ रहे हैं, कि लड़कियां कर रही हैं और उन्हें भी समर्थन देना चाहिए। काफी अच्छा लगता है जब हम बाहर निकलते हैं और हरियाणा को अपनी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं।
सवाल - जब आप चैंपियनशिप या मेडल जीतती हैं तो अपने ईर्द गिर्द बदलाव देखती हैं, जो लड़कियां आपसे मिलने आती हैं?
जैस्मिन: जो यूथ लड़कियां हैं, वो भी हमसे ही सीख रही हैं। इसलिए हमारा दायित्व है कि हम अच्छा करें। हमारी वजह से अगर 10 लड़कियां और अच्छा करना चाह रही हैं तो हम और अच्छा करें ताकि आने वाला जनरेशन मोटिवेशन ले। काफी अच्छा लगता है जब बच्चे हमसे पूछते हैं और सीखते हैं। आगे भी मेरा यही प्रयास रहेगा कि मैं देश के लिए कुछ कर पाऊं।
सवाल - कुश्ती में जो भारत ने धाक जमाई, उनमें से आप एक चेहरा हैं। आपके लिए काफी मुश्किलें भी आई होंगी। जो बच्चा अब कोशिश करना चाहता है उसे क्या करना चाहिए? क्या रास्ता है?
योगेश्वर: सुधार की गुंजाइश हमेशा रहती है। मैंने 1988-89 में कुश्ती शुरू किया था। तब मेरी उम्र सात साल थी। उस समय में गर्मियों में या बरसात में दिक्कत का सामना करना पड़ता था। हमारे पास गांव में मैट नहीं होता था, किट नहीं होती थी। पर उस टाइम और अब बहुत सुविधाएं हैं, लेकिन ग्रास रूट पर बहुत काम करने की जरूरत है। हमें हमेशा सुधार करते रहना चाहिए। हम अगर चाहते हैं कि 2036 ओलंपिक भारत में हो तो उसमें हर खेल पर फोकस करना होगा। सभी खिलाड़ियों का इतिहास गांव से और मध्य वर्ग परिवार से हैं। हमें ग्रासरूट पर तैयारी करनी चाहिए। जो बच्चा अभी 10 साल का है वो 2036 में हमें कितने पदक दिला सकता है। वो चीजें हमें सोचनी हैं। और हर खेल की अलग कैटेगरी बनानी होगी। तो हम ज्यादा अच्छा प्रदर्शन कर पाएंगे। हमारे खिलाड़ियों में पूरा जोश है। मेहनत के मामले में हमसे ज्यादा कोई नहीं है पूरी दुनिया में। खेलों में हम तभी आगे बढ़ेंगे जब एक साथ आगे बढ़ेंगे।
सवाल - जो मां बाप की सोच है खेल को लेकर,उसमें अभी हम पीछे हैं क्या?
योगेश्वर: नहीं नहीं उससे हम आगे निकल चुके हैं। लड़के हो या लड़कियां हों। अब एक सोच तो हट चुकी है कि हमें लड़कों को ही खेल में डालना है, लड़कियों को नहीं डालना है। अब दोनों एक जैसे हैं। माता पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा कोई न कोई खेले। माइंडसेट अब मजबूत है। माता पिता का माइंडसेट बदला है। वो चाहते हैं कि बच्चा खेल में आगे बढ़े। वो खुद मैदान में ले जाते हैं। हम कुश्ती अकेले करते थे। अब बच्चों के माता पिता अखाड़े भी जाते हैं।
सवाल - जब मेडल आया विश्व चैंपियन में गोल्ड, तो क्या चल रहा था दिमाग में?
जैस्मिन: मैंने 2022 में विश्व चैंपियनशिप खेली वहां क्वार्टर फाइनल में हारी, 2023 में भी खेली, वहां भी मैंने क्वार्टर फाइनल में हारी। तो मैं मेडल के पड़ाव पर ही कहीं न कहीं रुक जा रही थी। इस बार था कि करना है। मैंने हर फाइट को फाइनल की तरह लेकर चला। फाइनल फाइट भी काफी टफ रही थी। मैंने प्रेशर नहीं लिया। वो भी खिलाड़ी है और मैं भी हूं। बेस्ट देना है रिजल्ट चाहे जो भी आए। मैंने अपना गेम खेला। काफी अच्छा लगता है जब हम भारत के लिए इतना करते हैं।
सवाल - हरियाणा की बेटियां इतने मुश्किल कैसे चुन लेती हैं? कुश्ती मुक्केबाजी जैसे खेल?
जैस्मिन: मेरा तो ये था कि मैंने तो अपने घर में ही देखा है। भिवानी बॉक्सिंग का हब बोला जाता है। हमारे आसपास सभी खेलते थे। मैंने खुद अपने दोनों चाचा को खेलते हुए देखा। तो हम उनकी फाइट्स देखते थे, मेडल्स देखते थे। इक्विपमेंट्स देखते थे। तो वो सब हम चीजें देख रहे थे तो हमें प्रेरणा मिली कि हम भी खेलेंगे। तो मुझे तो वहीं से प्रेरणा मिली। हरियाणा के लोगों में अलग तरह का जोश रहता है कि नहीं ये तो करना है। हमें ये चीजें पहले से मिलीं। इसी वजह से हम फाइटिंग गेम्स चुन पा रहे हैं।
सवाल - बहुत सी बच्चियां आपको आइडल मानती हैं। तो जो बच्चियां तैयारी कर रही हैं, उन्हें बताइए कि क्या चैलेंजेज आते हैं?
जैस्मिन: कुछ भी हम करते हैं, उसमें स्ट्रगल रहता है अपने अपने लेवल का। किसी को फाइनेंसियल रहती हैं, या किसी का स्पोर्ट का रहता है। कभी अच्छे पार्टनर नहीं मिलते हैं। सपने बड़े हों और सपोर्ट मिल रहा हो तो ये सब कवर होता जाता है। स्ट्रगल रहता है तो लेकिन जब बात सपनों की आती है तो ट्रेनिंग सामने आता है कि नहीं बस करते जाओ जाओ।
सवाल - योगेश्वर जब 2012 में मेडल जीता। उस मोमेंट के लिए क्या प्लान किया था?
योगेश्वर: 2012 मेरा तीसरा ओलंपिक था। 2004 और 2008 में मैं बिना पदक के आया था। एक टीस थी एक आग थी कि मेडल जीतना है। लिएंडर पेस ने जब 1996 में मेडल जीता था तो एक आग थी कि अब तो पदक जीतना है। उसके बाद लंबा सफर तय किया है। दो ओलंपिक में जब नजदीक आकर मेडल नहीं आए तो ज्यादा तकलीफ हुई। 2012 में जब मेडल जीता तो एक ये था कि सपना पूरा हुआ। उससे पहले मेरा ऑपरेशन भी हुआ था। जब सपना पूरा करने में लगते हो तो न नींद सुख चैन सब छिन जाता है। एक सपने के पीछे भागना बड़ा अजीब होता है। रुकावटें भी आईं, लेकिन जिंदगी इसी का नाम है। एक खिलाड़ी कभी हार नहीं मानता। हार न मानने की जिद ने मुझे पदक दिलाया, नहीं तो मुझे काफी चोटों लगी थीं। एक खिलाड़ी जब पदक जीतता है तो उसके पीछे काफी योगदान होता है उन चेहरों का जो दिखाई नहीं पड़ते। मेरे घर वाले, कोच सबका बहुत योगदान था।
सवाल - चोटों से रिकवर होने में काफी मेहनत लगती है, शरीर के साथ दिमाग का भी खेल है। आपने खुद फेस किया है। इस बारे में बताइए...
योगेश्वर: खिलाड़ी के लिए सबसे बुरी चीज इंजरी होती है। किसी प्रतियोगिता के समय लग जाए तो प्रतियोगिता से दूर कर देती है। मेरे पांच ऑपरेशन हुए पैरों के। डिश स्लिप भी हुई थी। इंजरी खिलाड़ी के लिए सबसे बड़ी मुसीबत होती है। आपको नहीं पता कि कल आपको ओलंपिक में हिस्सा लेना है और आज इंजरी हो जाए तो आप उससे दूर हो जाते हैं। एक ऑपरेशन ठीक होने में लगभग एक साल लेता है। तो मेरे इतने लंबे करियर में कई ऑपरेशन हुए। चार ओलंपिक मैं खेला। खिलाड़ी का गहना है इंजरी, लेकिन यह गहना सबसे ज्यादा तकलीफ देता है। परेशानी रुकावटें आपको रोक नहीं सकतीं।
जैस्मिन: मुझे कभी इंजरी हुई नहीं। हम देखते हैं कि हमारे आसपास के बहुत से खिलाड़ी इंजर्ड हुए। इससे उनके छह सात महीने निकल जाते हैं। हमने तो देखा है। उस टाइम पर निगेटिव विचार भी आते हैं। वो अकेले अकेले सोच के खुद भी परेशान होते हैं। लेकिन वो फिर भी करते रहते हैं। मैं ठीक होऊंगा। उस टाइम पर इतनी खुशी थी कि मैं बता नहीं सकती। जो सपोर्ट हमे मिला था उसको हम याद कर पाते हैं कि इनकी वजह से ये सब हो पाया।
सवाल - प्रोफेशनल कुश्ती और पारंपरिक अखाड़ा सिस्टम में आपको सबसे बड़ा फर्क क्या लगता है?
योगेश्वर: मिट्टी की कुश्ती और मैट की कुश्ती में बड़ा फर्क होता है। अगर हमें ओलंपिक मेडल जीतना है तो मैट पर ही कुश्ती करनी होगी। मिट्टी और मैट में जब बच्चा दोनों पर ट्रेनिंग करता है तो उसका फायदा होता है। मिट्टी की कुश्ती में जोर आजमाइश ज्यादा लगती है। सारे बच्चे मिट्टी में ही खेलकर आगे बढ़े हैं। बिना मिट्टी में प्रैक्टिस किए आपको अपनी मिट्टी अपने देश से प्यार नहीं हो सकता।
सवाल - कुश्ती में ताकत जरूरी होती है या तकनीक जरूरी होती है?
योगेश्वर: जितने भी काउंटर स्पोर्ट्स हैं उसमें माइंडसेट का खेल है। दिमाग का खेल होता है। ताकत के साथ साथ दिमाग की भी जरूरत है। सेकंड में हमें अपना डिसीजन लेना होता है और डिसाइड करना होता कि कौन सा दांव लगाना है। डिफेंस भी करना होता है। ताकत के साथ तकनीक भी जरूरी है। डाइट भी जरूरी है। वेट कैटेगरी की वजह से। मैं चार ओलंपिक में तीन अलग अलग वेट कैटेगरी में खेला हूं।
सवाल - एक नॉर्मल और एक पहलवान में ये दूध का फैक्टर कितना जरूरी है?
योगेश्वर: पहलवानों के लिए दूध और घी बहुत जरूरी है। हमारे बड़े बुजुर्गों ने जो नुस्खा अपनाया, उसको छोड़कर अगर हम दूसरी चीज में जाएंगे तो फायदा नहीं होगा। तो बचपन से हमें ये चीजें मिली हैं। आजकल तो डॉक्टर भी इनके लिए मना नहीं करते। दूध और घी खूब खाइए, लेकिन मेहनत भी करिए। बिना मेहनत के कुछ नहीं हो सकता।
सवाल - पिछले कुछ वक्त में कुश्ती में जो हमने ऊंचाइयां छुईं थीं उसमें एक रुकावट नजर आती है। हम कहां लूज कर रहे हैं?
योगेश्वर: कुश्ती में बिल्कुल रुकावट नहीं है क्योंकि पिछले पांच ओलंपिक से कुश्ती में हमें पदक मिले हैं। आप ओवरऑल खेलों की बात करो तो बिल्कुल हम उन ऊंचाइयों तक नहीं पहुंच सके जहां तक हमें होना चाहिए था। सरकार काफी खेलों पर काफी पैसा खर्च करती है, लेकिन मेरा मानना है कि खेलों को अगर और ऊंचाइयों तक ले जाना है तो कॉरपोरेट जगत को भी आगे आना चाहिए। खेलों में मदद करनी चाहिए। कुछ ऐसे भी हैं। जो पर्सनल एकेडमी चलाते हैं तो हमें उन पर ज्यादा फोकस करने की जरूरत है। सरकार जैसे टॉप्स स्कीम के आधार पर बच्चों की मदद कर रही है, वैसे ही हम सभी को एक टीम के तौर पर काम करना होगा तभी हम ओलंपिक मेडल जीत सकते हैं। हम उतने मेडल नहीं जीत पाए जितने होने चाहिए थे। टोक्यो में हमारे सात पदक थे, लेकिन पेरिस में छह। हमारा मानना है कि 2036 ओलंपिक अगर हम करवाते हैं तो अगर 10-15 मेडल आएं या फिर हम शीर्ष पांच देशों में रह पाएं तो यह खेलों के लिए बहुत अच्छा होगा। साथ ही कॉरपोरेट जगत को आगे आना चाहिए। जो पर्सनल एकेडमी चलाते हैं, वो मदद करें और उन पर फोकस करें।
खेल ज्यादा आसान है या राजनीति ज्यादा आसान है?
योगेश्वर: जिंदगी मुश्किल है। यहां खेल और राजनीति की बात नहीं है। अगर हम यहां तक आएं हैं तो संघर्ष करना पड़ेगा। आपने मुझे खेल की वजह से यहां पर बुलाया है और खेल की वजह से ही मैं राजनीति में आया हूं। राजनीति अलग है और खेल अलग है। खेल हमें खुशी देता है, लेकिन राजनीति हम कुछ अलग से करते हैं ताकि समाज की मदद कर सकें। हम राजनीति इसलिए करते हैं ताकि बच्चों की मदद कर सकें और खेलों में आगे बढ़ा सकें। समाज के लिए कुछ अच्छा करने का जरिया है। कुश्ती में दांव आमने-सामने लगते हैं, लेकिन राजनीति में पीछे से लगते हैं।
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योगेश्वर दत्त
- फोटो : अमर उजाला
योगेश्वर दत्त: मिट्टी के अखाड़े से ओलंपिक पोडियम तक
हरियाणा के भैंसवाल कलां गांव से निकले योगेश्वर दत्त ने भारतीय कुश्ती को नई पहचान दी। 14 साल की उम्र में घर छोड़कर छत्रसाल स्टेडियम पहुंचे योगेश्वर ने संघर्ष, चोट और निजी दुखों के बावजूद हार नहीं मानी। 2012 लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर उन्होंने इतिहास रचा और देशभर में प्रेरणा बने। एशियाई खेलों और राष्ट्रमंडल खेलों में भी पदक जीतने वाले योगेश्वर के लिए कुश्ती जीवन का आधार रही। संन्यास के बाद भी वे मेंटर के रूप में भारतीय कुश्ती की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।
Amar Ujala Samwad: योगेश्वर दत्त की संघर्ष, साहस और सपनों से भरी कहानी; हार, चोट और दर्द से लड़कर रचा इतिहास
हरियाणा के भैंसवाल कलां गांव से निकले योगेश्वर दत्त ने भारतीय कुश्ती को नई पहचान दी। 14 साल की उम्र में घर छोड़कर छत्रसाल स्टेडियम पहुंचे योगेश्वर ने संघर्ष, चोट और निजी दुखों के बावजूद हार नहीं मानी। 2012 लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर उन्होंने इतिहास रचा और देशभर में प्रेरणा बने। एशियाई खेलों और राष्ट्रमंडल खेलों में भी पदक जीतने वाले योगेश्वर के लिए कुश्ती जीवन का आधार रही। संन्यास के बाद भी वे मेंटर के रूप में भारतीय कुश्ती की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।
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योगेश्वर दत्त और जैस्मिन लंबोरिया
- फोटो : अमर उजाला
जैस्मिन लंबोरिया: विरासत से विश्व स्वर्ण तक
हरियाणा की जैस्मिन लंबोरिया ने भारतीय महिला मुक्केबाजी को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। महान बॉक्सर हवा सिंह की परंपरा से निकली जैस्मिन ने पेरिस 2024 ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया और इसके बाद 2025 में वर्ल्ड बॉक्सिंग कप और विश्व चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रचा। सीमित संसाधनों के बावजूद मेहनत और अनुशासन के दम पर उन्होंने खुद को विश्व चैंपियन बनाया। जैस्मिन आज देश की युवा खिलाड़ियों के लिए यह संदेश हैं कि संघर्ष से ही स्वर्णिम सफलता निकलती है।
Samwad 2025: जहां विरासत बनी ताकत! हरियाणा की मुक्केबाज जेस्मिन लंबोरिया के विश्व चैंपियन बनने का सफर; पढ़ें
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