1971 के भारत–पाकिस्तान युद्ध के दौरान पश्चिमी मोर्चे पर बसंतर की लड़ाई में भारतीय सेनाओं ने निर्णायक बढ़त हासिल की थी। रावी की सहायक बसंतर नदी पार कर भारतीय सेना 10 से 12 किलोमीटर तक पाकिस्तान के भीतर पहुंच गई थी। इस दौरान दरमन और घमरोला जैसे बड़े गांवों सहित करीब 40 गांव भारतीय सेना के नियंत्रण में आ गए थे। टैंकों की आमने-सामने की भीषण लड़ाई में कई घरों और धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुंचा। युद्धविराम के बाद फील्ड मार्शल जनरल सैम मानेकशॉ ने भारतीय सेनाओं को वापस लौटने का आदेश दिया, लेकिन साथ ही एक अहम निर्देश भी दिया। आदेश था कि लौटने से पहले युद्ध में क्षतिग्रस्त हुई मस्जिदों और दरगाहों की मरम्मत और पुताई की जाए, क्योंकि यह युद्ध किसी धर्म या आस्था के खिलाफ नहीं था। इसके बाद 16 डोगरा, 17 पूना हॉर्स, 16 मद्रास और 3 ग्रेनेडियर रेजिमेंट के अफसरों ने सांबा से सामग्री मंगवाकर मस्जिदों को सफेद और दरगाहों को हरे रंग से संवारा। इसके बाद भारतीय सेना अनुशासित तरीके से वापस भारतीय सीमा में लौट आई। बसंतर की लड़ाई में भारतीय सेना का मुख्य लक्ष्य पाकिस्तान का जरपाल क्षेत्र था, जिसे सफलतापूर्वक अपने कब्जे में ले लिया गया। मेजर जनरल तेजपाल सिंह बख्शी (सेवानिवृत्त) बताते हैं कि इस ऑपरेशन में एक पलटन ने दुश्मन को भ्रम में रखा, जबकि असली हमला सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल की पलटन ने किया। रणनीति के तहत दुश्मन को गलत दिशा में उलझाया गया और अरुण खेत्रपाल ने अपने टैंकों के साथ निर्णायक हमला कर जरपाल पर कब्जा कर लिया। इस जीत के प्रतीक के रूप में भारतीय सैनिक एक पाकिस्तानी जीप ट्रॉफी के तौर पर लाए, जिसे ‘जरपाल क्वीन’ कहा गया। लड़ाई के दौरान एक अहम घटना भी सामने आई। गोला-बारूद से भरे दो ट्रक बसंतर के पास एक नाले के दलदल में फंस गए। ऐसे में जवानों तक रसद पहुंचाना मुश्किल हो गया। तभी अरुण खेत्रपाल ने अपने टैंक से उन ट्रकों को खींचकर बाहर निकाला और मिशन को सफल बनाया। बसंतर की लड़ाई न केवल सैन्य साहस और रणनीति की मिसाल बनी, बल्कि मानवीय मूल्यों और अनुशासन का भी प्रतीक रही, जिसे आज भी भारतीय सैन्य इतिहास में सम्मान के साथ याद किया जाता है।