रुपहले पर्दे पर 'फेल' चिराग पासवान राजनीति में कितना सफल हुए, बिहार चुनाव के नतीजों से ये बात लगभग साफ हो गई है। चिराग की पार्टी का प्रदर्शन उनकी मंशा के अनुरूप नहीं रहा है। अपने पिता की विरासत संभाल रहे चिराग पासवान के सामने यह चुनाव किसी बड़ी चुनौती की तरह था। हालांकि दिवंगत नेता रामविलास पासवान ने अपने जीवित रहते ही लोजपा की कमान चिराग को सौंप दी थी। चुनाव के अब तक आए नतीजों से साफ है कि लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान के राजग से अलग होकर चुनाव लड़ने के फैसले से भाजपा को अप्रत्याशित फायदा हुआ। चुनाव आयोग के मुताबिक, अभी तक लोजपा एक भी सीट नहीं जीत पाई है।
Bihar Assembly Election Result 2020 : रुपहले पर्दे पर नहीं चला चिराग का जादू, राजनीति में भी पासवान को जमीन की तलाश
135 प्रत्याशी मैदान में उतारे
बिहार विधानसभा चुनाव में मनमुताबिक सीटें न मिलने के कारण चिराग पासवान ने एनडीए से अलग राह अपनाई। लोजपा ने बिहार की 135 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। इनमें से ज्यादातर प्रत्याशी जदयू के खिलाफ चुनावी ताल ठोकते नजर आए। चिराग ने भाजपा से दोस्ती नीतीश से बैर वाली नीति पर काम किया। केंद्र में भाजपा के साथ और बिहार में एनडीए से अलग होने का सियासी मतलब क्या है, यह तो भाजपा ही जाने या फिर चिराग ही समझें।
एग्जिट पोल में चिराग कमजोर
एग्जिट पोल के मुताबिक, भले ही लोजपा को तीन से पांच सीटें मिलती दिख रही हों, लेकिन चिराग ने दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर भाजपा के बागी नेताओं को उम्मीदवार बनाकर नीतीश कुमार के राजनीतिक समीकरण को पूरी तरह से बिगाड़ दिया है। लोजपा के अलग हो जाने से जदयू को सीटों पर नुकसान हुआ। ये तो बात हुई सियासत की। अब बात करते हैं रुपहले पर्दे वाले चिराग की।
कंप्यूटर साइंस में की इंजीनियरिंग, बॉलीवुड में कलाकारी
31 अक्तूबर 1982 को जन्मे चिराग पासवान दिवंगत नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे हैं। कंप्यूटर साइंस से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले चिराग बचपन से ही बॉलीवुड में करियर बनाना चाहते थे। विरासत में मिली राजनीति का पाठ पढ़ने वाले चिराग का सपना रुपहले पर्दे पर करियर बनाने का था। मगर राजनीति उनकी रगों में है और यही उन्हें इस ओर खींच लाई। या यूं कह सकते हैं कि रुपहले पर्दे पर 'फेल' चिराग राजनीति में अपना करियर तलाशने लगे, क्योंकि इसमें अवसर तलाशना उनके लिए आसान भी था। राजनीतिक परिवार से आने वाले चिराग बचपन से नेताओं और राजनीति को ही देखते सुनते रहे। फिल्मों से उनका अधिक एक्सपोजर नहीं था।
2011 में कंगना संग की 'मिले न मिले हम'
बचपन से लेकर कॉलेज की पढ़ाई तक उनका काफी वक्त दिल्ली में ही बीता। वहीं से स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई की। इसके बाद वह साल 2011 में कंगना रनौत के साथ फिल्म 'मिले न मिले हम' में नजर आए। यह बॉक्स ऑफिस पर औसत फिल्म ही रही।
2014 में जमुई से सांसद चुने गए
इसी के बाद चिराग ने राजनीति में उतरने का फैसला किया। पहली बार साल 2014 में वो 16वीं लोकसभा में जमुई लोकसभा सीट से अपनी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) से सांसद चुने गए थे।
2019 में मिली कमान, बिहार में ढूंढी स्पेस
बता दें कि चिराग पासवान के पिता दिवंगत रामविलास पासवान की राजनीति का शत-प्रतिशत हिस्सा केंद्र में गुजरा था और वे बिहार पर उस तरह से फोकस नहीं कर पाए थे, जिसकी महत्वाकांक्षा हर नेता को होती है। लोकसभा चुनाव 2019 के बाद लोजपा की कमान चिराग पासवान को मिली। चिराग ने यह भांप लिया था कि बिहार की राजनीति में स्पेस है, जिसको भरने की कोशिश होनी चाहिए। इसी के बाद बिहार की राजनीति को गंभीरता से लेते हुए अपनी जगह बनाने की कवायद शुरू की और राज्य के तमाम मुद्दों को उठाना शुरू किया।
अब तीन लक्ष्यों पर रहेगी नजर
जानकारों का कहना है कि विधानसभा चुनाव के बाद लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान को तीन लक्ष्य 1.पहला अपनी मां को राज्यसभा भेजना 2.दूसरा केंद्रीय मंत्रिमंडल में अपने पिता की जगह शामिल होना और 3.पार्टी की विरासत मामले में अपने नाम पर अंतिम मुहर लगवाना। जाहिर तौर पर चिराग अपने तीनों लक्ष्य तभी हासिल कर पाएंगे जब वह चुनाव के बाद राजग की विकल्पहीन जरूरत बने रहें। मतलब लोजपा के बिना राजग वहां सरकार नहीं बना पाए।
आसान नहीं है तीनों लक्ष्य पाना
इसके उलट स्थिति में चिराग के लिए तीनों लक्ष्य को हासिल करना मुमकिन नहीं रहेगा। जदयू किसी कीमत पर राज्यसभा भेजने के मामले में इस बार मदद नहीं करेगी, जबकि विरासत के सवाल पर पार्टी में अलग से जंग छिड़ेगी। रामविलास पासवान के निधन के बाद चिराग को जहां सहानुभूति की आस है, वहीं यदि चुनाव में लोजपा का अच्छा प्रदर्शन नहीं रहा तो दिल्ली के साथ-साथ बिहार में भी नुकसान की आशंका प्रबल है।