कारगिल युद्धः सेना के असाधारण संयम और रणनीतिक कौशल का इतिहास
Kargil War: कारगिल युद्ध की सबसे बड़ी विशिष्टता इसका स्थल और ऊंचाई थी। यह युद्ध समुद्र तल से 16,000 से 18,000 फीट की ऊंचाई पर लड़ा गया था, जहां ऑक्सीजन की कमी, अत्यधिक ठंड, खड़ी चट्टानें और बर्फीली हवाओं जैसी कठिन परिस्थितियां युद्ध को और भी चुनौतीपूर्ण बना रही थीं।
विस्तार
भयंकर जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों में लड़े गए कारगिल युद्ध की जीत को आज 26 साल हो गए, लेकिन भारत के जांबाजों की दिलेरी, देश के लिए उनके समर्पण और सर्वोच्च बलिदान की गाथाएं आज भी दुनिया के सामरिक रणनीतिकारों को दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर करती हैं। सन् 1999 का कारगिल युद्ध भारतीय गणराज्य के इतिहास में वह अध्याय है, जिसने न सिर्फ हमारी सैन्य सामर्थ्य और राष्ट्रभक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाया, बल्कि रणनीतिक सोच, खुफिया तंत्र और कूटनीति के स्तर पर गहरे आत्ममंथन को प्रेरित किया।
यह युद्ध पाकिस्तान ने छिपकर और धोखा देकर लड़ा जबकि भारत ने खुल कर उसका मुकाबला किया और युद्ध जीतकर नामुमकिन को मुमकिन बना कर दिखाया। यह युद्ध एक सीमित लेकिन अत्यंत जटिल और संवेदनशील संघर्ष था, जिसने भारतीय लोकतंत्र की स्थिरता और सैनिकों की बलिदान भावना को इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज कर दिया।
उच्च हिमालयी युद्ध का अद्वितीय उदाहरण
कारगिल युद्ध की सबसे बड़ी विशिष्टता इसका स्थल और ऊंचाई थी। यह युद्ध समुद्र तल से 16,000 से 18,000 फीट की ऊंचाई पर लड़ा गया था, जहां ऑक्सीजन की कमी, अत्यधिक ठंड, खड़ी चट्टानें और बर्फीली हवाओं जैसी कठिन परिस्थितियां युद्ध को और भी चुनौतीपूर्ण बना रही थीं। बावजूद भारतीय सैनिकों ने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया। टाइगर हिल, तोलोलिंग, प्वाइंट 4875 और प्वाइंट 5140 जैसी चोटियों को जीतना असंभव माना जाता था, लेकिन भारत के सैनिकों ने अद्वितीय साहस और शौर्य का प्रदर्शन करते हुए दुश्मन के कब्जे से महत्वपूर्ण पहाड़ी चोटियों को पुनः प्राप्त किया। सबसे कठिन चुनौती यह थी कि पाकिस्तानी घुसपैठिए ऊपर चोटियों पर बैठे थे और भारतीय सेना ऊपर से बरस रहे पत्थरों और गोलियों की बौछारों के बीच ऊपर चढ़ रही थी।
गुप्त घुसपैठ और युद्ध की शुरुआत
पाकिस्तानी सेना और उसके विशेष सेवा समूह ( एसएसजी) ने गुप्त रूप से नियंत्रण रेखा (एलओसी) पार करके भारतीय चौकियों पर कब्जा कर लिया। शुरू में इसे स्थानीय आतंकवाद समझा गया, लेकिन जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि यह एक सुनियोजित सैन्य ऑपरेशन था। इसके जवाब में भारतीय सेना ने अपनी पूरी ताकत झोंकी और पाकिस्तानी सैनिकों को भारी नुकसान पहुंचाते हुए नियंत्रण रेखा के पास स्थित अपनी चौकियों को वापस प्राप्त किया।
भारत की सामरिक संयमता
भारत ने इस युद्ध में असाधारण संयमता और धैर्य का परिचय दिया। युद्ध को केवल भारतीय सीमा तक सीमित रखा गया और भारतीय वायुसेना को पाकिस्तान की सीमा में कार्रवाई की अनुमति नहीं दी गई। यह संयम भारत की राजनीतिक परिपक्वता और वैश्विक मंच पर उसकी जिम्मेदार छवि का प्रतीक था। 1998 में भारत और पाकिस्तान दोनों ने परमाणु परीक्षण किए थे और यही कारण था कि 1999 का कारगिल युद्ध दो परमाणु संपन्न देशों के बीच लड़ा गया। यह युद्ध यह साबित करने के लिए एक कठिन चुनौती बन गया कि परमाणु हथियारों के बावजूद पारंपरिक युद्ध की आशंका खत्म नहीं हुई थी, बल्कि पारंपरिक संघर्ष और भी जोखिमपूर्ण बन गए थे।
जैसे-जैसे युद्ध बढ़ा, भारतीय वायुसेना को सक्रिय किया गया और ऑपरेशन सफेद सागर के तहत दुश्मन की चौकियों पर सटीक बमबारी की गई। मिग-27, मिराज 2000 और जगुआर जैसे विमान भारतीय सेना को पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक प्रभावी रूप से अभियान चलाने में सहायक बने।
भारत के 527 वीर सपूतों की शहादत
इस युद्ध में देश भर के 527 सैनिक शहीद हुए और 1,300 से अधिक घायल हुए। उत्तराखंड ने इस संघर्ष में अत्यधिक बलिदान दिया, यहां के सैनिकों ने अपना सर्वस्व देश की सुरक्षा में समर्पित किया। उत्तराखंड राज्य के 75 से अधिक वीर सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दी।
कारगिल युद्ध में उत्तराखंड के सैनिकों को कई सम्मान मिले, जिनमें मेजर विवेक गुप्ता और मेजर राजेश अधिकारी को महावीर चक्र, कश्मीर सिंह, बृजमोहन सिंह, अनुसूया प्रसाद, कुलदीप सिंह, एके सिन्हा, खुशीमन गुरुंग, शशि भूषण घिल्डियाल, रुपेश प्रधान और राजेश शाह को वीर चक्र और मोहन सिंह, टीबी क्षेत्री, हरि बहादुर, नरपाल सिंह, देवेंद्र प्रसाद, जगत सिंह, सुरमान सिंह, डबल सिंह, चंदन सिंह, किशन सिंह, शिव सिंह, सुरेंद्र सिंह और संजय को सेना मेडल प्राप्त हुआ। मेन्शन इन डिस्पैच में राम सिंह, हरि सिंह थापा, देवेंद्र सिंह, विक्रम सिंह, मान सिंह, मंगत सिंह, बलवंत सिंह, अमित डबराल, प्रवीण कश्यप, अर्जुन सेन और अनिल कुमार शामिल हैं।
युद्ध में खुफिया तंत्र की विफलता
कारगिल युद्ध ने भारतीय खुफिया तंत्र की विफलता को उजागर किया, जिसने समय रहते पाकिस्तानी घुसपैठ को पकड़ने में नाकामी दिखाई। न तो रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) और न ही मिलिट्री इंटेलिजेंस (एमआइ) को इसकी भनक लगी। इस चूक ने भारतीय सुरक्षा तंत्र के लिए महत्वपूर्ण सुधारों की आवश्यकता को महसूस कराया। विडम्बना ये है कि हम आज भी चाहे पुलवामा हो या पहलगांम हमला हो, घटना हो जाने के बाद ही चेतते हैं, भले ही भारत बाद में इस दुश्मनी का माकूल जवाब दे देता है। दुश्मन को जवाब देकर वाहवाही में चूकें भुला दी जाती और भयंकर भूल के लिये किसी की जिम्मेदारी तक तय नहीं की जाती है।
युद्ध के बाद, केंद्र सरकार ने ‘‘कारगिल समीक्षा समिति’’ का गठन किया, जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ रक्षा विश्लेषक के. सुब्रमण्यम ने की। इस समिति की सिफारिशों ने भारतीय सुरक्षा तंत्र में कई सुधार किए। मुख्य सिफारिशें थीं-
- राष्ट्रीय तकनीकी खुफिया एजेंसी (एनटीआरओ) का गठनः इससे सेना और असैन्य खुफिया एजेंसियों के बीच बेहतर समन्वय सुनिश्चित हुआ।
- सैन्य और खुफिया एजेंसियों के बीच समन्वयः भारतीय सेना और खुफिया एजेंसियों के बीच तालमेल बढ़ाने की आवश्यकता महसूस की गई।
- उपग्रह आधारित निगरानी तंत्र का सुदृढ़ीकरण: भविष्य में ऐसे हमलों को रोकने के लिए उपग्रह आधारित निगरानी तंत्र को और मजबूत किया गया।
- सीमाओं पर चौकियों की स्थायी तैनातीः भारतीय सेना ने सीमाओं पर चौकियों की स्थायी तैनाती की योजना बनाई, जिससे भविष्य में किसी भी अप्रत्याशित घुसपैठ से निपटने में आसानी हो।
इन सिफारिशों के माध्यम से देश के सुरक्षा तंत्र में कई महत्वपूर्ण बदलाव हुए, जिनका असर आज भी हम देख सकते हैं। इन सिफारिशों के आधार पर ही अग्निवीर योजना बनी मगर समिति ने युवा सेना की सिफारिश अवश्य की थी ,लेकिन 4 साल के लिये नहीं बल्कि कम से कम 7 साल के लिये की थी।
युद्ध के दौरान भारत ने वैश्विक मंच पर अपनी स्थिति को स्पष्ट और शांतिपूर्ण तरीके से रखा। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देशों ने भारत का समर्थन किया, जबकि पाकिस्तान को कड़ी चेतावनी दी गई। अमेरिकी दबाव के बाद, पाकिस्तान ने पीछे हटने का निर्णय लिया और भारतीय सेना ने सफलता प्राप्त की।
युद्ध की विरासत: जो हमें सीखने को मिली
- सैन्य तैयारी में निरंतरता की आवश्यकता: यह युद्ध यह दर्शाता है कि युद्ध की तैयारी कभी भी कम नहीं की जानी चाहिए, बल्कि समय-समय पर इसकी समीक्षा और सुधार किया जाना चाहिए।
- राजनीतिक नेतृत्व की दृढ़ता और सैनिकों में विश्वास: इस युद्ध में राजनीतिक नेतृत्व की दृढ़ता और सैनिकों में विश्वास ने सफलता दिलाई।
- खुफिया तंत्र में समन्वय की अनिवार्यता: यह युद्ध यह दिखाता है कि खुफिया तंत्र के बीच समन्वय का अभाव खतरनाक हो सकता है।
- परमाणु शक्ति के बावजूद पारंपरिक युद्धों की संभावना को नकारा नहीं जा सकता: परमाणु शक्ति के बावजूद पारंपरिक युद्धों की संभावना बनी रहती है, और हमें इसके लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।
- सैन्य बल के साथ-साथ कूटनीतिक कौशल भी जरूरी: सैन्य संघर्ष के साथ-साथ कूटनीतिक कार्यवाही भी महत्वपूर्ण होती है, और इस युद्ध में इसका महत्व स्पष्ट हुआ।
कारगिल युद्ध न सिर्फ एक भू-राजनीतिक संघर्ष था, बल्कि यह भारत के उन 527 शहीदों की अमरगाथा है, जिनके लहू से तिरंगा और ऊंचा लहराया। उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य ने बड़ी भूमिका निभाई और अपने वीरों की शहादत से पूरे देश को गर्व से भर दिया। कारगिल विजय दिवस हर वर्ष सिर्फ एक आयोजन नहीं है, यह आत्ममंथन का अवसर है यह पूछने का दिन कि हमने उन शहीदों के सपनों का भारत बनाया या नहीं। क्या हम उनकी दी हुई चेतावनियों से कुछ सीख सके?
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