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Mani Ratnam Interview: ‘अमिताभ बच्चन एक किंवदंती है, मुझे अब भी उनके लायक एक कहानी की तलाश है’
चेन्नई में जन्मे गोपाल रत्नम सुब्रमण्यम को दुनिया मणिरत्नम के नाम से जानती है। ‘रोजा’ के दिनों से उनका जादू हिंदी सिनेमा के दर्शकों के सिर चढ़कर बोलता रहा है।
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मणिरत्नम
- फोटो : अमर उजाला, मुंबई
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चेन्नई में जन्मे गोपाल रत्नम सुब्रमण्यम को दुनिया मणिरत्नम के नाम से जानती है। ‘रोजा’ के दिनों से उनका जादू हिंदी सिनेमा के दर्शकों के सिर चढ़कर बोलता रहा है। उनकी नई फिल्म ‘पोन्नियिन सेल्वन’ (कावेरी का बेटा) भारतवर्ष के उस स्वर्णिम युग की झांकी है जब इंग्लैंड सिर्फ मछुआरों की एक बस्ती हुआ करता था। फिल्म निर्देशक मणिरत्नम से ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल की एक खास मुलाकात।
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पोन्नियिन सेल्वन 1
- फोटो : अमर उजाला, मुंबई
कल्कि कृष्णमूर्ति के उपन्यास ‘पोन्नियिन सेल्वन’ पर फिल्म बनाने के लिए चोल राजवंश के किस तथ्य ने आपको सबसे ज्यादा प्रेरित किया?
यह दक्षिण भारत का स्वर्णिम युग रहा है। उस समय के राजाओं ने जो कुछ किया, उसका लाभ हम आज भी ले रहे हैं। राजराजा चोल की इस कहानी का सबसे मुख्य बिंदु ये है कि उनके पास जो नौसैनिक बेड़ा था, वह उस समय दुनिया का सबसे बड़ा बेड़ा था। उस समय के हर धर्म को वहां फलने फूलने का मौका मिला। जिस नई कर प्रणाली का हम अनुसरण करते हैं, वह उसी समय शुरू हुई। जल संचय के जो उपाय उस समय किए गए, वे आज तक विद्यमान हैं। हम एक ऐसे महान राजा की बात कर रहे हैं जिसकी दूरदृष्टि की चर्चा आज होती है।
हां, उनका बनाया तंजावुर का विशाल राजराजेश्वरम मंदिर अब यूनेस्को की वैश्विक धरोहर सूची में शामिल है..
उस समय मंदिर सिर्फ एक पूजा स्थल नहीं होते थे। मंदिर एक ऐसे स्थान के रूप में स्थापित किए जाते थे जिसके चारों तरफ एक समाज विकसित हो सके। ये कर एकत्रीकरण स्थलों के रूप में काम करते थे। यहां से जरूरतमंदों को ऋण भी दिया जाता था। समाज का पूरा विकास इन मंदिरों के जरिए ही बरसों तक होता रहा। एक खास बात ये भी है कि तब के राजाओं ने अपने महल तो ईंटों के बनाए लेकिन मंदिरों में पत्थरों का ही इस्तेमाल किया। तब के महल अब नहीं दिखते, पर ये मंदिर अब भी विद्यमान हैं।
कहा जा रहा है कि ये भारत में बनी अब तक की सबसे महंगी फिल्म है? कहीं कहीं इसका बजट 500 करोड़ रुपये तक बताया गया है?
फिल्म ‘पोन्नियिन सेल्वन’ सिर्फ सिनेमा का वैभव या कौतुक दिखाने के लिए बनी फिल्म नहीं है। इस फिल्म को बनाने में मैंने पांच साल का लंबा समय व्यतीत किया है। धन इसमें कितना व्यय हुआ, इसकी जानकारी मुझे नहीं है। पैसे आदि का प्रबंधन इसके निर्माता ही शुरू से देखते रहे, लिहाजा वे लोग ही इसकी सही जानकारी दे सकेंगे। मेरी पूरी कोशिश सिर्फ कल्कि कृष्णमूर्ति के लिखे उपन्यास के प्रति ईमानदार रहने की रही है।
क्या फिल्म को बनाने में हुए विलंब और इस बीच सिनेमा की तकनीक में हुए विकास ने आपके सपने को और बेहतर तरीके से पर्दे पर पेश करने में मदद की है?
बहुत ज्यादा। मैं कहता हूं तकनीक के विकास ने बहुत ही ज्यादा मदद की है। मैंने ये फिल्म कोई 15 साल पहले बनाने की पहली कोशिश की थी, लेकिन अब मुझे लगता है कि तब शायद मैं इस तरह की फिल्म इस कहानी पर न बना पाता। सिनेमा के तकनीकी विकास ने मुझे जो सहूलियत अब प्रदान की है, वह शायद तब नहीं मिलती।
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