{"_id":"59fd9ca44f1c1b0d698b9652","slug":"interview-with-actor-govind-namdev-in-amar-ujala-samvaad","type":"feature-story","status":"publish","title_hn":" रील लाइफ महज छलावा, जो सामने है वही सत्य हैः गोविंद नामदेव","category":{"title":"City & states","title_hn":"शहर और राज्य","slug":"city-and-states"}}
रील लाइफ महज छलावा, जो सामने है वही सत्य हैः गोविंद नामदेव
टीम डिजिटल,वाराणसी
Updated Sun, 05 Nov 2017 10:52 AM IST
विज्ञापन
अमर उजाला संवाद में गोविंद नामदेव
- फोटो : अमर उजाला
विज्ञापन
कंचे खेलो तो भी ऐसे कि वाहवाही मिले, पतंगबाजी करो तो भी ऐसी कि सबसे आगे रहो, पढ़ाई करो तो भी सबसे अव्वल रहो... यही मेरी जिंदगी का फलसफा है। जीवन के प्रति मेरी अपनी दृष्टि है, वह है परफेक्शन... पूर्णता...। यह कहना है बॉलीवुड के ख्यात अभिनेता गोविंद नामदेव का। ठाकुर बन स्क्रीन पर सितम और पुजारी बन पर्दे पर पाखंड यानी जैसा किरदार वैसा अवतार।
सौ से अधिक फिल्मों में अपने अभिनय के दम पर विलेन का ‘स्टारडम’ जीने वाले नामदेव फिर भी कहते हैं, ‘रील लाइफ तो महज एक छलावा है, जो सामने है वही सत्य है, वही पूर्ण है...।’ मध्य प्रदेश के सागर के रहने वाले गोविंद फिल्म इंडस्ट्री के उन चुनिंदा कलाकारों में से हैं, जिनकी अपनी गाढ़ी सोच है, समृद्ध विचारधारा है, अपने सिद्धांत हैं।
नामी पहलवान पिता रामप्रसाद नामदेव के बेटे 67 वर्षीय नामदेव चांदपुर स्थित कार्यालय में ‘अमर उजाला संवाद’ में उपस्थित हुए। इस दौरान अनुपम निशांत और उत्पल कांत पांडेय से हुई बातचीत के प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं...।
अस्सी-नब्बे के दशक का सिनेमा और आज का सिनेमा, क्या अंतर महसूस करते हैं आप?
बहुत कुछ बदल गया है। फिल्में बनाने के तरीके से लेकर कहानियों तक। आज रियलिस्टिक फिल्में बन रही हैं। आम आदमी की जिंदगी से जुड़े यथार्थ को सिनेमा उसी रूप में दिखा रहा है और दर्शक इसे पसंद भी कर रहे हैं। हमारी फिल्म इंडस्ट्री में अब विश्वस्तरीय फिल्में बन रही हैं। संजय लीला भंसाली जैसे निर्देशक और राजकुमार राव जैसे युवा ऊर्जावान फिल्मकार नई ऊंचाइयां दे रहे हैं।
तकनीक के साथ-साथ फिल्मों के स्वरूप में क्या बदलाव आया है?
फिल्मों में जो बदलाव आया है वह बेहद सुखद और सकारात्मक तो है ही रचनात्मकता का दायरा भी बढ़ गया है। आज हर तरह की फिल्में बन रही हैं। आज की फिल्मों में केवल हीरो, हीरोइन और विलेन नहीं रहे गए। अलग-अलग थीम पर बेहतरीन और विविधता वाली फिल्में कम बजट में भी बन रही हैं। आज कोई भी फिल्म बना सकता है। फिल्म बनाने के लिए किसी बड़े बैनर का होना जरूरी नहीं रह गया।
क्या सोशल मीडिया फिल्मों को प्रभावित कर रहा है?
सोशल मीडिया ने तो फिल्मों की राह और आसान कर दी है। इसका दायरा बड़ा है। फिल्मों का प्रचार-प्रसार बैठे-बैठे हो जाता है। छोटे बैनर की फिल्में या कम लागत की फिल्मों की भी जानकारी आज लोगों को सोशल मीडिया के सहारे हो जाती है। पहले ऐसा नहीं था। छोटी बजट की फिल्मों के बारे में कोई नहीं जान पाता था।
Trending Videos
सौ से अधिक फिल्मों में अपने अभिनय के दम पर विलेन का ‘स्टारडम’ जीने वाले नामदेव फिर भी कहते हैं, ‘रील लाइफ तो महज एक छलावा है, जो सामने है वही सत्य है, वही पूर्ण है...।’ मध्य प्रदेश के सागर के रहने वाले गोविंद फिल्म इंडस्ट्री के उन चुनिंदा कलाकारों में से हैं, जिनकी अपनी गाढ़ी सोच है, समृद्ध विचारधारा है, अपने सिद्धांत हैं।
विज्ञापन
विज्ञापन
नामी पहलवान पिता रामप्रसाद नामदेव के बेटे 67 वर्षीय नामदेव चांदपुर स्थित कार्यालय में ‘अमर उजाला संवाद’ में उपस्थित हुए। इस दौरान अनुपम निशांत और उत्पल कांत पांडेय से हुई बातचीत के प्रमुख अंश यहां प्रस्तुत हैं...।
अस्सी-नब्बे के दशक का सिनेमा और आज का सिनेमा, क्या अंतर महसूस करते हैं आप?
बहुत कुछ बदल गया है। फिल्में बनाने के तरीके से लेकर कहानियों तक। आज रियलिस्टिक फिल्में बन रही हैं। आम आदमी की जिंदगी से जुड़े यथार्थ को सिनेमा उसी रूप में दिखा रहा है और दर्शक इसे पसंद भी कर रहे हैं। हमारी फिल्म इंडस्ट्री में अब विश्वस्तरीय फिल्में बन रही हैं। संजय लीला भंसाली जैसे निर्देशक और राजकुमार राव जैसे युवा ऊर्जावान फिल्मकार नई ऊंचाइयां दे रहे हैं।
तकनीक के साथ-साथ फिल्मों के स्वरूप में क्या बदलाव आया है?
फिल्मों में जो बदलाव आया है वह बेहद सुखद और सकारात्मक तो है ही रचनात्मकता का दायरा भी बढ़ गया है। आज हर तरह की फिल्में बन रही हैं। आज की फिल्मों में केवल हीरो, हीरोइन और विलेन नहीं रहे गए। अलग-अलग थीम पर बेहतरीन और विविधता वाली फिल्में कम बजट में भी बन रही हैं। आज कोई भी फिल्म बना सकता है। फिल्म बनाने के लिए किसी बड़े बैनर का होना जरूरी नहीं रह गया।
क्या सोशल मीडिया फिल्मों को प्रभावित कर रहा है?
सोशल मीडिया ने तो फिल्मों की राह और आसान कर दी है। इसका दायरा बड़ा है। फिल्मों का प्रचार-प्रसार बैठे-बैठे हो जाता है। छोटे बैनर की फिल्में या कम लागत की फिल्मों की भी जानकारी आज लोगों को सोशल मीडिया के सहारे हो जाती है। पहले ऐसा नहीं था। छोटी बजट की फिल्मों के बारे में कोई नहीं जान पाता था।
अभिनेता गोविंद नामदेव
- फोटो : अमर उजाला
आपकी पृष्ठभूमि फिल्मी नहीं रही, फिर फिल्मों के प्रति रुझान की वजह?
महापुरुषों की जीवनी पढ़कर मैं भी ऐसा इंसान बनना चाहता था, जिसे सब याद करें। कला की सभी विधाओं में बचपन से ही रुचि और सक्रियता रही। जिंदगी में अव्वल रहने की सोच ने आगे पढ़ने की ललक में सागर से दिल्ली तक पहुंचाया। वहां राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में प्रवेश मिल गया और फिर थिएटर को जीने लगा।
एनएसडी से पास होने के बाद 12 साल तक सिर्फ थिएटर क्यों किया?
पूर्णता का इंतजार...। अनुपम खेर, सतीश कौशिक और राजदान भी हमारे बैच के हैं। एनएसडी के दिनों में ही मैं खुद से सवाल पूछता था कि क्या मैं फिल्मों में काम करने योग्य बन चुका हूं तो भीतर से जवाब आता नहीं। सो इंतजार किया।12 साल तो मैंने अपनी आवाज को दुरुस्त करने में लगा दिए। जब मुझे लगा कि अब मैं अपना सौ फीसदी दे सकता हूं, तब मुंबई का रुख किया।
27 साल का फिल्मी सफर का कौन से किरदार सर्वाधिक पसंद हैं?
(कुछ सोचते हुए) मेरा मानना है कि टॉप जैसी कोई चीज नहीं होती। जो आज टॉप पर है उसकी जगह कल कोई और टॉप पर होगा। फिर भी अगर मैं अपनी बात करूं तो मुझे ‘बैंडिट क्वीन’, ‘प्रेमग्रंथ’, ‘सत्या’, ‘सरफरोश’ और ‘ओएमजी’ की भूमिकाएं हमेशा अच्छी लगती हैं। इन फिल्मों से हमें भी नई पहचान मिली।
अभिनय के क्षेत्र में क्या करने की इच्छा बाकी है?
हिटलर, मुसोलिनी और सद्दाम हुसैन का किरदार अदा करने की इच्छा है। हिटलर कलाकार था, अध्येता था, रोमांटिक इंसान था। आखिर ऐसा इंसान लाखों लोगों का कत्ल कैसे करा सकता है? मैं अभिनय के जरिए इसी विरोधाभास को महसूस करना चाहता हूं। ऐसी ही क्रूर शख्सियत सद्दाम और मुसोलिनी की थी। फिल्में बनी तो ठीक नहीं तो थिएटर के जरिए मैं इन किरदारों को निभाऊंगा।
बॉलीवुड में वंशवाद और भाई-भतीजावाद पर आपकी राय?
फिल्मी खानदान में जन्म लेने भर से कोई हीरो नहीं बन जाता, वह हीरो बनता है अपनी काबिलियत से। अगर उसमें टैलेंट नहीं तो वह अपने आपको साबित ही नहीं कर पाएगा और काबिलियत है तो अपनी जगह खुद बना लेगा। कई उदाहरण हैं जो फिल्मी पृष्ठभूमि के होते हुए भी फिल्म इंडस्ट्री में सफल नहीं हो सके। टैलेंट जरूरी है। मेरे जैसे कई लोग इस इंडस्ट्री में हैं, जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि फिल्मों की नहीं रही।
महापुरुषों की जीवनी पढ़कर मैं भी ऐसा इंसान बनना चाहता था, जिसे सब याद करें। कला की सभी विधाओं में बचपन से ही रुचि और सक्रियता रही। जिंदगी में अव्वल रहने की सोच ने आगे पढ़ने की ललक में सागर से दिल्ली तक पहुंचाया। वहां राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में प्रवेश मिल गया और फिर थिएटर को जीने लगा।
एनएसडी से पास होने के बाद 12 साल तक सिर्फ थिएटर क्यों किया?
पूर्णता का इंतजार...। अनुपम खेर, सतीश कौशिक और राजदान भी हमारे बैच के हैं। एनएसडी के दिनों में ही मैं खुद से सवाल पूछता था कि क्या मैं फिल्मों में काम करने योग्य बन चुका हूं तो भीतर से जवाब आता नहीं। सो इंतजार किया।12 साल तो मैंने अपनी आवाज को दुरुस्त करने में लगा दिए। जब मुझे लगा कि अब मैं अपना सौ फीसदी दे सकता हूं, तब मुंबई का रुख किया।
27 साल का फिल्मी सफर का कौन से किरदार सर्वाधिक पसंद हैं?
(कुछ सोचते हुए) मेरा मानना है कि टॉप जैसी कोई चीज नहीं होती। जो आज टॉप पर है उसकी जगह कल कोई और टॉप पर होगा। फिर भी अगर मैं अपनी बात करूं तो मुझे ‘बैंडिट क्वीन’, ‘प्रेमग्रंथ’, ‘सत्या’, ‘सरफरोश’ और ‘ओएमजी’ की भूमिकाएं हमेशा अच्छी लगती हैं। इन फिल्मों से हमें भी नई पहचान मिली।
अभिनय के क्षेत्र में क्या करने की इच्छा बाकी है?
हिटलर, मुसोलिनी और सद्दाम हुसैन का किरदार अदा करने की इच्छा है। हिटलर कलाकार था, अध्येता था, रोमांटिक इंसान था। आखिर ऐसा इंसान लाखों लोगों का कत्ल कैसे करा सकता है? मैं अभिनय के जरिए इसी विरोधाभास को महसूस करना चाहता हूं। ऐसी ही क्रूर शख्सियत सद्दाम और मुसोलिनी की थी। फिल्में बनी तो ठीक नहीं तो थिएटर के जरिए मैं इन किरदारों को निभाऊंगा।
बॉलीवुड में वंशवाद और भाई-भतीजावाद पर आपकी राय?
फिल्मी खानदान में जन्म लेने भर से कोई हीरो नहीं बन जाता, वह हीरो बनता है अपनी काबिलियत से। अगर उसमें टैलेंट नहीं तो वह अपने आपको साबित ही नहीं कर पाएगा और काबिलियत है तो अपनी जगह खुद बना लेगा। कई उदाहरण हैं जो फिल्मी पृष्ठभूमि के होते हुए भी फिल्म इंडस्ट्री में सफल नहीं हो सके। टैलेंट जरूरी है। मेरे जैसे कई लोग इस इंडस्ट्री में हैं, जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि फिल्मों की नहीं रही।
कुछ खास है बनारस की आबोहवा
अमर उजाला संवाद कार्यक्रम
- फोटो : अमर उजाला
नामदेव करीब दो महीने पहले ‘काशी इन सर्च ऑफ गंगा’ की शूटिंग के लिए पहली बार बनारस आए। इसके बाद ‘जंक्शन वाराणसी’ की शूटिंग के लिए इस सप्ताह भदोही और वाराणसी में रहे। कैसा लगा बनारस? कहने लगे-यहां की आबोहवा में कुछ खास है जो सम्मोहित करता है।
सकारात्मकता और आध्यात्मिकता का आकर्षण खींचता है अपनी ओर। ऐसा दुनिया के किसी शहर में मैंने पहली बार देखा कि एक तरफ गंगा तट पर आरती हो रही है और दूसरी ओर चिताएं जल रही हैं।
हमने तय किया है एक हफ्ते के लिए हम पूरे परिवार के साथ सिर्फ बनारस को महसूस करने और इसे जीने के लिए यहां आऊंगा। 2017 में नामदेव की कई फिल्में आईं। इनमें मिर्जापुर में शूट हुई ‘झलकी’ ने खूब नाम कमाया।
10 नवंबर को ‘न्यूटन’ फेम राजकुमार राव के साथ ‘शादी में जरूर आना’ रिलीज हो रही है। दिसंबर में बैक टू बैक तीन फिल्में रिलीज होंगी। इनमें ‘दशहरा’ और ‘कमिंग बैक डार्लिंग’ शामिल हैं। ‘काशी इन सर्च ऑफ गंगा’ फरवरी में रिलीज होगी।
फिलहाल जरीना बहाव के साथ ‘जंक्शन वाराणसी’ की शूटिंग चल रही है। अगले साल ‘अजब सिंह की गजब कहानी’ और ‘सोलर एक्लिप्स’ भी रिलीज होंगी। नामदेव आज भी अपनी धरती से जुड़ाव महसूस करते हैं।
खुद को थिएटर के साथ-साथ अपनी मिट्टी से जोड़े रखने के लिए वे 1993 से ‘अन्वेषण’ नाम से एक थिएटर ग्रुप संचालित कर रहे हैं। इसके कलाकार सागर और आसपास के ही हैं। मार्च में इस ग्रुप ने पारंपरिक बुंदेलखंडी शैलियों के अभिनव प्रयोग के साथ ‘ऑथेलो’ नाटक का मंचन भी किया।
सकारात्मकता और आध्यात्मिकता का आकर्षण खींचता है अपनी ओर। ऐसा दुनिया के किसी शहर में मैंने पहली बार देखा कि एक तरफ गंगा तट पर आरती हो रही है और दूसरी ओर चिताएं जल रही हैं।
हमने तय किया है एक हफ्ते के लिए हम पूरे परिवार के साथ सिर्फ बनारस को महसूस करने और इसे जीने के लिए यहां आऊंगा। 2017 में नामदेव की कई फिल्में आईं। इनमें मिर्जापुर में शूट हुई ‘झलकी’ ने खूब नाम कमाया।
10 नवंबर को ‘न्यूटन’ फेम राजकुमार राव के साथ ‘शादी में जरूर आना’ रिलीज हो रही है। दिसंबर में बैक टू बैक तीन फिल्में रिलीज होंगी। इनमें ‘दशहरा’ और ‘कमिंग बैक डार्लिंग’ शामिल हैं। ‘काशी इन सर्च ऑफ गंगा’ फरवरी में रिलीज होगी।
फिलहाल जरीना बहाव के साथ ‘जंक्शन वाराणसी’ की शूटिंग चल रही है। अगले साल ‘अजब सिंह की गजब कहानी’ और ‘सोलर एक्लिप्स’ भी रिलीज होंगी। नामदेव आज भी अपनी धरती से जुड़ाव महसूस करते हैं।
खुद को थिएटर के साथ-साथ अपनी मिट्टी से जोड़े रखने के लिए वे 1993 से ‘अन्वेषण’ नाम से एक थिएटर ग्रुप संचालित कर रहे हैं। इसके कलाकार सागर और आसपास के ही हैं। मार्च में इस ग्रुप ने पारंपरिक बुंदेलखंडी शैलियों के अभिनव प्रयोग के साथ ‘ऑथेलो’ नाटक का मंचन भी किया।