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Aravalli Hills Controversy: अरावली हिल्स विवाद की पूरी कहानी। SC Order on Aravalli | Save Aravalli
अमर उजाला डिजिटल डॉट कॉम Published by: आदर्श Updated Sat, 20 Dec 2025 10:01 PM IST
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दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में शामिल अरावली आज सबसे बड़े संकट में क्यों है? क्या विकास के नाम पर उत्तर भारत की प्राकृतिक सुरक्षा दीवार को कमजोर किया जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट की नई परिभाषा से आखिर अरावली का कितना हिस्सा कानूनी संरक्षण से बाहर चला गया है? क्या 100 मीटर की सीमा तय करना विज्ञान है या सुविधा? अगर अरावली की छोटी पहाड़ियां खत्म हुईं, तो दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान पर इसका क्या असर पड़ेगा पानी, खेती और मौसम पर? क्या यह सिर्फ कानून की बहस है या आने वाली पीढ़ियों का सवाल? इन्हीं सवालों के जवाब तलाशती है हमारी यह विशेष रिपोर्ट, तो आइए एक-एक कर जानते हैं इन सभी सवालों।
दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में शामिल अरावली पर्वतमाला आज अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट से गुजर रही है। हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली-एनसीआर में खनन, रियल एस्टेट और बुनियादी ढांचे के विस्तार ने अरावली को विवाद के केंद्र में ला खड़ा किया है। एक ओर सरकारें विकास की ज़रूरत का तर्क दे रही हैं, तो दूसरी ओर पर्यावरणविद चेतावनी दे रहे हैं कि अरावली कमजोर हुई तो उत्तर भारत की जलवायु, जल और जीवन तीनों पर भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
इससे पहले की आगे बढे चलिए पहले समझ लेते हैं अरावली का इतिहास और महत्व
अरावली पर्वतमाला लगभग 150 से 250 करोड़ वर्ष पुरानी मानी जाती है। यह गुजरात से शुरू होकर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली तक लगभग **800 किलोमीटर में फैली हुई है। राजस्थान में ही इसका सबसे बड़ा हिस्सा मौजूद है करीब 550 किलोमीटर, जो राज्य के लगभग 15 जिलों से होकर गुजरता है।
अरावली:
थार मरुस्थल को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकती है
मानसून और वर्षा चक्र को प्रभावित करती है
भूजल रिचार्ज की रीढ़ है
धूल भरी आंधियों और लू से मैदानी इलाकों की रक्षा करती है
यही वजह है कि इसे उत्तर भारत की “ग्रीन वॉल” और प्राकृतिक सुरक्षा दीवार कहा जाता है।
आइए अब समझते है की आखिर विवाद का कारण क्या है?
पूरा विवाद इस सवाल से शुरू होता है- “आख़िर अरावली क्षेत्र की परिभाषा क्या है?”
पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली केवल कागज़ी या राजस्व रिकॉर्ड की इकाई नहीं, बल्कि एक भूवैज्ञानिक और पारिस्थितिक संरचना है। वहीं, राज्य सरकारों पर आरोप है कि उन्होंने राजस्व रिकॉर्ड और तकनीकी मानकों के आधार पर अरावली की सीमित व्याख्या की, ताकि कई क्षेत्रों को अरावली से बाहर दिखाकर वहां निर्माण और खनन की अनुमति दी जा सके।
खनन: सबसे बड़ा खतरा
अरावली क्षेत्र में दशकों से:
पत्थर
बजरी
संगमरमर का बड़े पैमाने पर खनन होता रहा है।
इसके दुष्परिणाम सामने आए:
पहाड़ियों का तेज़ क्षरण
भूजल स्तर में भारी गिरावट
दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण और धूल में वृद्धि
सुप्रीम कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने कई बार खनन पर रोक लगाई, लेकिन जमीनी स्तर पर पालन हमेशा सवालों के घेरे में रहा।
अरावली का बड़ा हिस्सा तकनीकी रूप से वन भूमि घोषित नहीं है। इसी कानूनी खालीपन का फायदा उठाकर:
फार्महाउस
कॉलोनियां
सड़क परियोजनाएं
तेज़ी से बढ़ती रहीं।
हालांकि अदालतों ने स्पष्ट किया कि किसी क्षेत्र का प्राकृतिक स्वरूप, उसके कानूनी दर्जे जितना ही महत्वपूर्ण है।
चलिए अब समझते है सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फैसला और नया विवाद
20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने टी.एन. गोवर्धन की एक पुरानी याचिका पर फैसला सुनाते हुए अरावली की नई परिभाषा को मंजूरी दी।
नई परिभाषा के अनुसार:
केवल वही पहाड़ियां अरावली मानी जाएंगी
- जिनकी ऊंचाई आसपास के धरातल से 100 मीटर या उससे अधिक होगी
- 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियां, टीले और गैपिंग एरिया अरावली की परिभाषा से बाहर कर दिए गए।
इसका असर यह हुआ कि:
अरावली का लगभग 90% हिस्सा कानूनी संरक्षण से बाहर हो सकता है
केवल 8–10% क्षेत्र ही कानूनी रूप से ‘अरावली’ माना जाएगा
अब आप सोच रहे होंगे की इससे चिंता क्यों बढ़ी?
पर्यावरणविदों का कहना है कि अरावली की छोटी और मध्यम ऊंचाई की पहाड़ियां भी:
वर्षा जल रोकने
भूजल रिचार्ज
धूल भरी आंधियों को थामने
मरुस्थलीकरण रोकने में अहम भूमिका निभाती हैं।
यदि ये संरक्षण से बाहर हुईं, तो:
* राजस्थान में जल संकट गहराएगा
* खेती प्रभावित होगी, किसान पलायन करेंगे
* जयपुर, अलवर, दौसा, सीकर, झुंझुनूं जैसे जिलों में सूखा बढ़ेगा
और तो और अरावली कमजोर हुई तो:
राजस्थान की धूल सीधे दिल्ली पहुंचेगी
वायु प्रदूषण और हीटवेव बढ़ेंगी
मानसून पैटर्न बिगड़ेगा
भूजल स्तर और नीचे जाएगा
हरियाणा के गुरुग्राम, नूंह, रेवाड़ी और महेंद्रगढ़ जैसे जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं।
अब समझते है की नई परिभाषा क्यों खतरनाक है?
आरोप है कि, 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को 60–80 मीटर दिखाकर, अल्टीमीटर के ज़रिये माप कर खनन की अनुमति ली जा रही है
राजस्थान में 2009–2015 के बीच ऐसी सैकड़ों अनुमतियां दी गईं। आज भी अकेले राजस्थान में 100 से अधिक ऐसे खनन स्थल बताए जा रहे हैं।
अरावली विवाद केवल एक पर्वतमाला का नहीं है।
यह सवाल है:
जल
जलवायु
कृषि
स्वास्थ्य और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य का।
पर्यावरणविद चेतावनी दे रहे हैं कि, “पहाड़ एक बार कटे, तो उन्हें वापस लाने में सदियां लग जाती हैं।” आज अरावली को लेकर उठ रही आवाज़ें दरअसल उत्तर भारत के भविष्य को बचाने की लड़ाई हैं।
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