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नेपाल में इस उग्र आंदोलन के पीछे क्यों जुड़ा अमेरिका का नाम?
वीडियो डेस्क अमर उजाला डॉट कॉम Published by: आदर्श Updated Thu, 11 Sep 2025 04:19 PM IST
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क्या नेपाल में हुए तख्तापलट की पटकथा किसी और देश में लिखी गई?
क्या इस बवाल की फंडिंग नेपाल के बाहर से की गई?
क्या जनआंदोलन के पीछे जियोपॉलिटिक्स का बड़ा खेल छिपा है?
और क्या अमेरिका व अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की भूमिका सिर्फ मदद तक सीमित है, या फिर सत्ता संतुलन की नई चाल चली जा रही है?
नेपाल की सड़कों पर उतरी जेन-ज़ी की आंधी ने सिर्फ सरकार को नहीं हिलाया, बल्कि पड़ोसी देशों और वैश्विक ताकतों को भी सतर्क कर दिया है। अब सवाल ये है कि इस आंदोलन का असली चेहरा कौन है जनता का गुस्सा, या फिर बाहरी ताकतों की रणनीति?
नेपाल इस समय एक बड़े राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। राजधानी काठमांडो से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक युवाओं का उभार सड़कों पर देखा जा रहा है। ज़्यादातर आंदोलनकारी जनरेशन-ज़ी से हैं, जो मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था और नेताओं के खिलाफ खुलकर आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। आंदोलन की खासियत यह है कि इसमें किसी खास पार्टी का झंडा नहीं, बल्कि गुस्से और असंतोष की एकजुटता दिखाई दे रही है।
काठमांडो के मेयर बालेंद्र शाह और सामाजिक कार्यकर्ता सुदन गुरुंग इस आंदोलन के नायक के रूप में उभरे हैं। युवाओं के बीच इन दोनों की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है। कई छात्र संगठन तो यहां तक मांग कर रहे हैं कि बालेंद्र शाह को नेपाल का अगला प्रधानमंत्री बनाया जाए। उनका कहना है कि देश को अब नए नेतृत्व की ज़रूरत है, जो ईमानदारी से काम करे और भ्रष्टाचार की जड़ों को खत्म करे।
हालांकि, यह सवाल लगातार उठ रहा है कि क्या यह आंदोलन पूरी तरह घरेलू असंतोष का परिणाम है, या फिर इसमें बाहरी ताकतों की भी भूमिका है। सुदन गुरुंग जिस संगठन ‘हामी’ (हामरो अधिकार मंच इनीशिएटिव) से जुड़े रहे हैं, उस पर विदेशी फंडिंग लेने का आरोप है। विपक्षी दलों और स्थानीय मीडिया ने दावा किया है कि इस संगठन को अमेरिका, यूरोपीय एजेंसियों और अंतरराष्ट्रीय एनजीओ से अप्रत्यक्ष सहायता मिली है।
यूएसएआईडी और एनईडी जैसी अमेरिकी संस्थाओं के नाम सबसे ज़्यादा चर्चा में हैं। आलोचकों का कहना है कि ये संस्थाएं लोकतांत्रिक सुधार और सिविल सोसाइटी को मजबूत करने के नाम पर पश्चिमी प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करती हैं। हालांकि, अब तक सार्वजनिक ऑडिट में अमेरिकी एजेंसियों से सीधे फंडिंग के ठोस प्रमाण नहीं मिले हैं।
अमेरिकी दूतावास ने सफाई देते हुए कहा कि नेपाल को दी जाने वाली हर सहायता पारदर्शी और कानूनी है। यह मदद शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सशक्तिकरण और प्रशासनिक क्षमता बढ़ाने जैसे क्षेत्रों तक सीमित है। लेकिन नेपाल की संवेदनशील राजनीति में आरोप चाहे साबित हों या नहीं, उन्हें राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल ज़रूर किया जा रहा है।
नेपाल के इस आंदोलन पर रूस और चीन की नजर भी गड़ी हुई है। रूसी मीडिया संस्थान आरटी और स्पुतनिक ने इसे “रंग क्रांति” से जोड़ते हुए कहा है कि नेपाल में जो हो रहा है, वह यूक्रेन (2004 और 2014) और जॉर्जिया (2003) जैसे अभियानों की तरह है। रूस का आरोप है कि अमेरिका जनता के असंतोष और बेरोजगारी जैसे वास्तविक मुद्दों का इस्तेमाल सत्ता परिवर्तन की ज़मीन तैयार करने के लिए कर रहा है।
रूस का मानना है कि अमेरिका नेपाल को एक रणनीतिक मोर्चे के तौर पर देख रहा है, जहां युवा शक्ति को एक “सॉफ्ट टूल” की तरह प्रयोग किया जा सकता है। इससे न सिर्फ नेपाल की आंतरिक राजनीति प्रभावित होगी, बल्कि भारत और चीन जैसे पड़ोसी देशों पर भी दबाव बनेगा।
चीन की प्रतिक्रिया भी अहम रही। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लिन जियान ने कहा कि नेपाल और चीन पारंपरिक मित्र और पड़ोसी हैं। उम्मीद है कि नेपाल के सभी वर्ग घरेलू मुद्दों को स्वयं संभालेंगे और सामाजिक व्यवस्था व स्थिरता बहाल करेंगे। हालांकि, उन्होंने पीएम केपी शर्मा ओली के इस्तीफे पर सीधी टिप्पणी करने से परहेज किया। ओली को चीन का समर्थक माना जाता है और उन्होंने बीजिंग के साथ काठमांडो के रणनीतिक रिश्तों को गहरा करने में अहम भूमिका निभाई है।
नेपाल स्थित चीनी दूतावास ने आपातकालीन सुरक्षा व्यवस्था लागू की है और नेपाल में रह रहे अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने को कहा है। यह साफ है कि चीन स्थिति को बेहद गंभीरता से देख रहा है।
प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली पहले ही युवाओं के गुस्से का सामना कर रहे हैं। आंदोलन में शामिल छात्र-युवा नेताओं के खिलाफ “भ्रष्ट और नाकारा” होने का नारा बुलंद कर रहे हैं। अगर आंदोलन और तेज हुआ तो ओली सरकार के अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगेगा। विपक्षी दल इस मौके का फायदा उठाकर सरकार पर दबाव बढ़ा सकते हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि नेपाल में यह आंदोलन सिर्फ युवाओं का असंतोष नहीं, बल्कि एक बड़े सामाजिक बदलाव का संकेत भी है। यहां के युवा अब पारंपरिक राजनीति से बाहर निकलकर साफ-सुथरे नेतृत्व की तलाश में हैं। लेकिन यह सवाल अभी भी बरकरार है कि क्या आंदोलन केवल भीतर की उपज है, या फिर इसे बाहर से हवा दी जा रही है।
नेपाल की भौगोलिक स्थिति हमेशा से भारत और चीन दोनों के लिए रणनीतिक रूप से अहम रही है। अब अगर अमेरिका का प्रभाव बढ़ता है, तो दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन का समीकरण भी बदल सकता है। रूस का सीधा आरोप यही है कि अमेरिका नेपाल को “शक्ति संतुलन” के खेल का नया मैदान बना रहा है।
भारत के लिए भी यह स्थिति चिंता का विषय हो सकती है। नेपाल में किसी भी अस्थिरता का असर भारत की सीमाओं तक पहुंच सकता है। वहीं, चीन नहीं चाहता कि नेपाल में पश्चिमी देशों की पकड़ मजबूत हो।
कुल मिलाकर, नेपाल में जेन-जी आंदोलन ने न सिर्फ घरेलू राजनीति को हिला दिया है, बल्कि इसे अंतरराष्ट्रीय शक्ति संघर्ष का हिस्सा भी बना दिया है। काठमांडो की सड़कों पर उतरे युवा फिलहाल किसी भी पार्टी के नहीं, बल्कि बदलाव और पारदर्शिता की मांग कर रहे हैं। लेकिन इस आंदोलन की दिशा आने वाले दिनों में कौन तय करेगा – नेपाल के युवा या बाहरी ताकतें – यही सबसे बड़ा सवाल है।
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