ग्राउंड रिपोर्ट: लालू यादव के गांव में समोसा सिर्फ आलू के भरोसे नहीं, चुनावी मौसम में बदल रहा लोगों का स्वाद
बिहार के फुलवरिया गांव में लालू प्रसाद यादव की छवि अब भी मजबूत है। यहां का समोसा अब केवल आलू नहीं, बल्कि मटर, चना और चटनी के साथ परोसा जाता है, जो बदलते स्वाद का संकेत है। गांव में रेलवे स्टेशन, अस्पताल, स्कूल, थाना जैसी सुविधाएं मौजूद हैं। यादव जाति के साथ अन्य जातियों के लोग भी लालू के समर्थक हैं। फुलवरिया दो मुख्यमंत्री देने वाला राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण गांव है। आइए जानते है कि इस चुनावी मौसम में कैसा है लालू यादव के गांव का हाल?

विस्तार
जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू....इस नारे की गहराई नापने हम लालू के गांव फुलवरिया पहुंचे। बदले-बदले बिहार में कुछ यहां भी बदला दिखा। गांव के बाहर चौराहे पर लालू के पुश्तैनी मकान से बमुश्किल फर्लांग भर दूर दुकान पर मिलने वाला समोसा सिर्फ आलू के भरोसे नहीं रहा, उसे अब मटर, चना, चटनी के साथ जायकेदार बनाकर परोसा जा रहा है। दुकानदार सोनू यादव कहते हैं..बाबू अब लोगों का स्वाद बदल रहा है। पहले जैसा सादा समोसा ग्राहक को पसंद नहीं आता।

सामाजिक न्याय के सूत्रधार बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के इस दुलारे फुलवरिया गांव में सारी सुविधाएं भरपूर हैं-रेलवे स्टेशन, अस्पताल, विकास मुख्यालय, रजिस्ट्री आफिस, थाना, कचहरी, हर स्तर का स्कूल-कालेज वगैरह। जिला गोपालगंज का यह दूर तक फैला गांव लालू का दीवाना है। बूढ़ों से लेकर युवाओं तक हर कोई लालू से पारिवारिक रिश्ता बताता है।
यूं तो बहुतायत यादव जाति के लोगों की है लेकिन दीगर जातिवाले भी लालू के मुरीद है। दो-दो मुख्यमंत्री देने वाला गांव है, जिनमें से एक लालू प्रसाद यादव का यह पैतृक गांव है तो दूसरी हैं उनकी पत्नी राबड़ी देवी, जो इस गांव में बहू बनकर आईं थीं। इसके अलावा बिहार की सियासत को जानने वाले लोग गोपालगंज के एक वक्त डीएम रहे जी कृष्णैया के हत्याकांड का जिक्र करते हैं तो भी जिले का नाम आ ही जाता है।
दोपहर का वक्त है और चौराहे पर चकल्लस तारी है। राजनीति पर चर्चा छिड़ती है तो लोगों में गुस्सा दिखता है, कहते हैं कि 20 वर्षों से (जब से नीतीश सीएम हैं) गांव में एक नया काम नहीं हुआ. बढ़ती उम्र के कारण लालू का यहां आना कम हुआ है लेकिन उनके बड़े बेटे तेजप्रताप का यहां खासा आना-जाना है। सुदेश कुमार यादव कहते हैं कि आज हम जो बराबर बैठे हैं, चप्पल-जूता पैर में है वो सिर्फ लालू जी के कारण है।
रवींद्र दुबे उलाहना देते हैं कि आज किसान को बीज की, पानी की, स्कूल में शिक्षकों की कमी है। सरकार हमसे सौतेला व्यवहार कर रही है। प्रभु दयाल पुराने दिन याद करते कहते हैं.. फुलवरिया की हालत ये थी कि यहां सड़क तो दूर, सिर्फ कीचड़ और दलदल होता था। कार भूल जाइए, बाइक नहीं आ पाती थी। हमीद मियां बोलते हैं..अब लालू के बच्चे के हाथ में हमारे बच्चों का भविष्य है। उनकी नौकरी सबसे बड़ा मुद्दा है।
जीवन भर लड़े लालू आज भी लड़ रहे हैं
अपनी बीमारी, बुजुर्गियत और आपराधिक मुकदमों से। वे राजनीतिक और सामाजिक जीवन, दोनों के नेपथ्य में हैं। उनकी अपनी पार्टी राजद के वे राष्ट्रीय अध्यक्ष तो हैं लेकिन चुनावी बैनर, पोस्टर, होर्डिंग से वे गायब हैं। पार्टी में सिर्फ उनके बेटे तेजस्वी की ही चलती है, ड्राइविंग सीट पर वही हैं। वही इस चुनाव में पार्टी का चेहरा-मोहरा है। हालांकि एनडीए गठबंधन का पूरा फोकस है कि चुनाव में लालू और लालूराज उछलता रहे। भाजपा संगठन के एक बड़े नेता कहते हैं कि लालू भले सक्रिय भूमिका में न हों, ढाई दशक पहले सत्ता में रहे हों, हम वोटर को लालू का जंगलराज भूलने नहीं देंगे।
चारा कांड में सजायाफ्ता
77 साल के लालू के चुनाव लड़ने पर रोक है, सक्रियता भी महज सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बयान जारी करने तक ही हैं। महज 29 साल की उम्र में 1977 में छपरा से लोकसभा चुनाव में 85 फीसदी वोट पाकर तहलका मचाने वाले एक जमाने के फायरब्रांड नेता लालू आज अशक्त है, अक्षम हैं, अस्वस्थ हैं और घर व अदालत, दोनों मोर्चों पर चुनौतियों से रूबरू हैं। अदालत में उन पर भ्रष्टाचार के कई मुकदमे हैं तो परिवार वालों की सियासी महत्वाकांक्षाओं ने घर में अशांति पैदा कर रखी है। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने बड़े बागी बेटे तेजप्रताप को शांत कर पार्टी के काम में लगाने की है। और इन सब परिस्थितियों से जूछता उनका संकल्प है-तेजस्वी की ताजपोशी का।