मौसम का बदलता मिजाज: खेती-किसानी पर भारी पड़ रहा है अलनीनो
देश के कई राज्यों में जहाँ ज्यादा बारिश की वजह से बाढ़ जैसे हालात हैं वहीँ कई राज्य उम्मीद से काफी कम बारिश से सूखे की स्तिथि का सामना कर रहें हैं।
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देश के कई राज्यों में जहाँ ज्यादा बारिश की वजह से बाढ़ जैसे हालात हैं वहीँ कई राज्य उम्मीद से काफी कम बारिश से सूखे की स्तिथि का सामना कर रहें हैं। भारतीय मौसम विभाग (आइएमडी) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, पूर्वोत्तर भारत के कुछ राज्यों को छोड़कर देश के अन्य भागों में वर्षा की भारी कमी देखी गई है। मौसम विशेषज्ञों के अनुसार, अल नीनो के प्रभाव की वजह से पिछली एक सदी से ज्यादा अवधि में अगस्त का यह महीना देश में सबसे अधिक सूखा रहा। अगस्त के महीने में 1901 के बाद सबसे कम बारिश हुई है।
देश में वर्षा के आंकड़े 1901 से ही रेफरेंस के तौर पर रखे जाते हैं। बारिश की ऐसी गतिविधि चावल से लेकर सोयाबीन तक, गर्मियों में बोई जाने वाली फसलों की पैदावार को नुकसान पहुंचा सकती है, जिससे कीमतें बढ़ सकती हैं। इससे देश में समग्र खाद्य महंगाई बढ़ सकती है, जो जनवरी 2020 के बाद से जुलाई में सबसे ज्यादा हो गई है। अलनीनो की वजह से देशभर में अगस्त के महीने में 34 प्रतिशत कम हुई बारिश हुई।
अगस्त का महीना खेती-किसानी पर भारी पड़ा है। वर्तमान मानसूनी मौसम में जुलाई तक के सात प्रतिशत अधिक वर्षा के ग्राफ को भी अलनीनो ने नीचे गिराते हुए 10 प्रतिशत कम कर दिया है।अलनीनो का असर आगे भी जारी रह सकता है जिसकी वजह से सितंबर में भी कम बारिश की संभावना है। इसका असर आगे खरीफ की फसलों पर पड़ सकता है।
अल-नीनो की वजह से ये अनुमान तो पहले से ही था कि, उत्तर भारत में मानसून कमजोर रहेगा। लेकिन पिछले महीने अप्रत्याशित रूप से देश के कई हिस्सों में भारी बारिश भी देखी गई। जुलाई में हिमाचल प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड के कई हिस्सों में रिकॉर्ड बारिश देखी गयी और दिल्ली में यमुना के उफनकर लाल किले तक पहुंचने का दुर्लभ नजारा देखने को मिला। भारी बारिश और भूस्खलन कि वजह से अकेले हिमाचल प्रदेश में कम से कम 150 लोग मारे गये और 10,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। कई सारे भूस्खलनों में इमारतें चकनाचूर हो गयी हैं और राजमार्ग अवरुद्ध हो गये हैं। इन भूस्खलनों की फौरी वजह इन राज्यों में हुई अप्रत्याशित रूप से भारी बारिश है और ये पश्चिमी विक्षोभ के अतिरेक के चलते हैं। पश्चिमी विक्षोभ उष्णकटिबंधीय तूफान होते हैं जो भूमध्यसागरीय क्षेत्र में पैदा होते हैं और आम तौर पर उत्तर भारत में शीतकालीन वर्षा कराते हैं।
हिमालय क्षेत्र में अंधाधुंध निर्माण और चार धाम सड़क परियोजना की वजह से पहाड़ों की स्थिति को बड़े पैमाने पर बदला गया है। उनके बड़े-बड़े टुकड़े काट कर अलग कर दिये जाने से वे बड़ी उथल-पुथल वाले खतरे की जद में आ गये हैं।
अनियोजित निर्माण और भवन-निर्माण के बेतरतीब तौर-तरीकों ने इन क्षेत्रों में रहनेवाले लोगों के लिए जोखिम बढ़ा दिया है। राज्य सरकारें ‘आपदा राहत’ के लिए केंद्र से मुआवजा मांगने जैसे अल्पकालिक समाधान खोजती नजर आती हैं।लेकिन समय आ गया है कि, बुनियादी ढांचे के विकास की प्रकृति को लेकर ज्यादा गंभीर चिंतन किया जाए ।
भारत की कृषि अर्थव्यवस्था अब भी काफी हद तक मॉनसून की गतिविधियों पर निर्भर करती है। भारत का 40% से ज्यादा बुआई क्षेत्र सिंचाई के लिए बारिश के पानी पर निर्भर है। इस साल भारत में मानसून की आमद समय से हुई लेकिन देश के अधिकांश हिस्सों में अनिश्चित मानसून पैटर्न की वजह की नुक्सान हो रहा है।
रूस-युक्रेन युद्ध ने यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि देश वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला पर निर्भर नहीं कर सकते बल्कि उन्हें अपनी खाद्य आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर बनना ही पड़ेगा। मानसून के लिहाज से भारत के 75% जिले हॉटस्पॉट हैं और उनमें से 40% में मानसून का रुख बदलता रहता है, लिहाजा मानसून के ढर्रे में काफी अनिश्चितताए हैं।
सूखा पड़ने की घटनाओं में वृद्धि के संकेत
पिछले दिनों भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी), गांधीनगर के अनुसंधानकर्ताओं के एक अध्ययन में दावा किया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में भारत में अचानक सूखा पड़ने की घटनाओं में वृद्धि होगी। इसका फसल उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, सिंचाई की मांग बढ़ेगी और भूजल का दोहन बढ़ेगा। अनुसंधानकर्ताओं के मुताबिक, मिट्टी की नमी में तेजी से कमी आने के चलते अचानक सूखा पड़ने की घटनाएं बढ़ेंगी।
यह अध्ययन एनपीजे क्लाइमेट एंड एटमेस्फेरिक साइंस जर्नल में प्रकाशित हुआ है। इसमें ग्रीष्म मानसून के दौरान पड़ने वाले सूखे में मानव जनित जलवायु परिवर्तन की भूमिका की पड़ताल की गई है। अनुसंधानकर्ताओं ने देश में अब तक देखे गए और भविष्य के जलवायु परिदृश्यों के तहत अचानक सूखे की घटनाओं की पड़ताल के लिए मिट्टी में नमी की प्रक्रिया, भारतीय मौसम विभाग के अवलोकन और जलवायु अनुमानों का इस अध्ययन में उपयोग किया।
अस्तित्व से जुड़ा मामला
पूरी दुनियाँ की जलवायु में तेजी से परिवर्तन हो रहा है ,बेमौसम आंधी, तूफ़ान, सूखे और बरसात से हजारों लोगों की जान जा रही है साथ ही सभी ऋतु चक्रों में तेजी से बदलाव देखने को मिल रहा है। सच्चाई यह है कि पर्यावरण सीधे सीधे हमारे अस्तित्व से जुड़ा मसला है। दुनियाँभर में पर्यावरण सरंक्षण को लेकर काफी बातें, सम्मेलन, सेमिनार आदि हो रही है परन्तु वास्तविक धरातल पर उसकी परिणिति होती दिखाई नहीं दे रही है। जिस तरह क्लामेट चेंज दुनियाँ में भोजन पैदावार और आर्थिक समृद्धि को प्रभावित कर रहा है, उससे आने वाले समय में जिंदा रहने के लिए जरूरी चीजें इतनी महंगी हो जाएगीं कि उससे देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो जाएंगे। यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहाँ कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है।
पर्यावरण का सवाल जब तक तापमान में बढोत्तरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया। परन्तु अब जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन पर पड रहा है, किसान यह तय नहीं कर पा रहे है कब बुवाई करे और कब फसल काटें । तापमान में बढ़ोत्तरी जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जायेगा, इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जायेगी । ऐसी स्थिति विश्व युद्ध से कम खतरनाक नहीं होगी।
देश दुनियाँ में जलवायु परिवर्तन की वजह से बाढ़ और सूखे की जो समस्याएं अभी हैं उनसे निपटने के लिए हमें प्रकृति के साथ सह अस्तित्व में रहना सीखना होगा । सह अस्तित्व का मतलब प्रकृति के अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए मानव विकास करे । प्रकृति और मानव दोनों का ही अस्तित्व एक दूसरें पर निर्भर है इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का क्षय न हो ऐसा संकल्प और ऐसी ही व्यवस्था की जरुरत है। कुलमिलाकर देश के प्राकृतिक संसाधनों का ईमानदारी से दोहन और पर्यावरण के संरक्षण के लिए सरकारी प्रयास के साथ साथ जनता की सकारात्मक भागीदारी की जरुरत है ।
(लेखक मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डायरेक्टर और टेक्निकल टूडे पत्रिका के संपादक हैं )