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गोवंश में बछड़ियो के लिए नई उम्मीद: शोध में मिले ऐसे जीन, जिनसे बदलेगी ‘स्पर्म सेक्सिंग’ तकनीक

शिवानी सेहरा, हिसार (हरियाणा) Published by: नवीन दलाल Updated Fri, 12 Dec 2025 11:35 AM IST
सार

पशु जैव प्रौद्योगिकी विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. सुशीला मान ने बताया कि देशी तकनीक भारतीय नस्लों साहीवाल, गिर, हरियाणवी, थारपारकर व अन्य के लिए जैविक रूप से अधिक अनुकूल सिद्ध हो सकती है।

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New hope for female calves in cattle: Research has found genes that could change sperm sexing techniques.
गोवंश (सांकेतिक) - फोटो : संवाद
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विस्तार
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गोवंश में मादा बछड़ियों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए भारत की विदेशी तकनीक पर निर्भरता कम हो सकती है। लुवास के वैज्ञानिकों की ओर से विकसित की जा रही एंटीबॉडी-आधारित इम्यूनोएफिनिटी स्पर्म-सेक्सिंग तकनीक डेयरी उद्योग में बड़ा बदलाव ला सकती है। यह तकनीक न केवल सस्ती होगी, बल्कि विदेशी तकनीक की तुलना में ज्यादा उपयुक्त और व्यावहारिक मानी जा रही है।

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भारत में गोवंश से मादा बछड़ियों ही पैदा हों, इसके लिए फिलहाल जो सेक्स-सॉर्टेड सीमन काम में लिया जा रहा है, मुख्य रूप से विदेशों से आयातित की जाने वाली फ्लो साइटोमेट्री तकनीक पर आधारित है। इस पद्धति में एक्स और वाई-क्रोमोसोम वाले शुक्राणुओं को डीएनए के आधार पर लेजर से अलग किया जाता है, लेकिन इसकी कीमत प्रति डोज 1500–2000 रुपये तक होती है। हाई-टेक मशीनों और महंगे उपकरणों के कारण यह तकनीक भारतीय पशुपालकों के लिए सीमित और भारी खर्चे वाली साबित हो रही थी। लुवास की ओर से किया जा रहा शोध इस स्थिति को पूरी तरह बदल सकता है।
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पशु जैव प्रौद्योगिकी विभाग की शोधार्थी डॉ. ऋचा के अनुसार शोध में पाया गया कि वाई-क्रोमोसोम वाले शुक्राणुओं की पहचान करने वाले एच-वाई एंटीजन और संबंधित जीन एमईए और एसएमसीवाई भारतीय गोवंश में भी प्रभावी रूप से पाए गए हैं। इन जीनों के विरुद्ध तैयार की जाने वाली एंटीबॉडी नर-विशिष्ट शुक्राणुओं को आसानी से अलग कर सकती है। यह तकनीक लेजर आधारित पद्धति के जोखिम और लागत से मुक्त है। शोध परियोजना के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. अमन कुमार बताते हैं कि देशी तकनीक आने से सेक्स-सॉर्टेड सीमन की लागत प्रति डोज लगभग 40–60% तक घट सकती है। इससे छोटे और मध्यम स्तर के पशुपालकों को भी मादा बछड़ियां प्राप्त करने में बड़ी राहत मिलेगी। 

देशी नस्लों के लिए अधिक अनुकूल सिद्ध हो सकती है: मान
पशु जैव प्रौद्योगिकी विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. सुशीला मान ने बताया कि देशी तकनीक भारतीय नस्लों साहीवाल, गिर, हरियाणवी, थारपारकर व अन्य के लिए जैविक रूप से अधिक अनुकूल सिद्ध हो सकती है। विदेशी तकनीक मुख्य रूप से विदेशी नस्लों के लिए विकसित की गई थी, जबकि भारतीय नस्लें इसकी प्रक्रिया से कम मेल खाती थीं। उन्होंने बताया कि देसी तकनीक के सफल प्रयोग से गर्भधारण प्रतिशत में भीबढ़ोतरी देखी जा सकेगी।

सेक्स-सॉर्टेड सीमन में देशी तकनीक का विकास भारत को आत्मनिर्भर बनाएगा और बड़े पैमाने पर स्पर्म सेक्सिंग यूनिटें स्थापित करना संभव हो सकेगा। इससे रोजगार, उत्पादन क्षमता और डेयरी अर्थव्यवस्था तीनों में मजबूती आएगी। - प्रो. विनोद कुमार वर्मा, कुलपति, लुवास, हिसार

विदेशी तकनीक से कैसे अलग हैं स्थानीय पद्धति
1. विदेशी तकनीक से 1500–2000 रुपये प्रति डोज की जगह देशी तकनीक आधी लागत में उपलब्ध हो सकती है ।
2. देशी तकनीक भारतीय गोवंश की जैविक विशेषताओं के अनुरूप।
3. विदेशी तकनीक में लेजर से शुक्राणु कमजोर पड़ते थे, देशी तकनीक में ऐसा नहीं होने की उम्मीद।
4. विदेशी मशीनों की तरह सीमित नहीं, देशी तकनीक बड़े पैमाने पर लागू की जा सकेगी।
5. अधिक मादा बछड़ियों से दूध उत्पादन बढ़ेगा और आमदनी में वृद्धि होगी।

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