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#हिंदीहैंहम: साहित्यकारों की महफिलों की शान थे अमरकांत, बलिया में जन्मे, आगरा को बनाया कर्मस्थली
न्यूज डेस्क अमर उजाला, आगरा
Published by: Abhishek Saxena
Updated Sun, 12 Sep 2021 03:15 PM IST
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सार
बलिया में इंटर करने के दौरान ही उनका विवाह एक मई 1946 को गिरिजा देवी से हो गया। वर्ष 1948 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए किया। गृहस्थी के लिए पैसे की जरूरत पड़ी तो आगरा चले गए। उनके चाचा साधुशरण वर्मा उस समय आगरा में रह रहे थे और उन्हीं के प्रयास से अमरकांत की सैनिक अखबार में नौकरी लग गई।

#हिंदीहैंहम: साहित्यकार अमरकांत
- फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
देश के महान साहित्यकार यशपाल उन्हें गोर्की कहते थे। हम बात कर रहे हैं साहित्यकार अमरकांत की। बेशक उनका जन्म ताजनगरी में नहीं हुआ था लेकिन वर्षों तक वे यहीं रहे। आगरा को अपनी कर्मस्थली बनाया। अखबार में काम किया और साहित्य सृजन भी किया। उस दौर के स्थानीय साहित्यकारों की महफिलों की वे शान थे।

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बलिया के पास गांव भगमलपुर में जन्मे अमरकांत का असली नाम श्रीराम वर्मा थे। उनके पिता सीताराम वर्मा पेशे से अधिवक्ता और मां अनंती देवी थीं। अमरकांत हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में कूद गए। बलिया में इंटर करने के दौरान ही उनका विवाह एक मई 1946 को गिरिजा देवी से हो गया। वर्ष 1948 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए किया। गृहस्थी के लिए पैसे की जरूरत पड़ी तो आगरा चले गए। उनके चाचा साधुशरण वर्मा उस समय आगरा में रह रहे थे और उन्हीं के प्रयास से अमरकांत की सैनिक अखबार में नौकरी लग गई।
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यहीं उनकी मुलाकात विश्वनाथ भटेले से हुई। वे आगरा के प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में हिस्सा लेने लगे। विख्यात साहित्यकार डॉ. रामविलास शर्मा, राजेंद्र यादव, राजेंद्र रघुवंशी से उनकी नजदीकी थी। अमरकांत आर्थिक समस्याओं से घिरे रहते थे। कुछ वर्षों तक आगरा में काम करने के बाद वे प्रयागराज चले गए और वहां से लखनऊ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था।
लेखन को बनाया अपनी ताकत
आगरा प्रवास के दौरान एक समय आया था, जब वे अपनी आर्थिक दिक्कतों के चलते वे बहुत परेशान हो गए थे। उन्हें अपना जीवन बोझिल लगने लगा था लेकिन उन्होंने हिम्मत न हारी और संघर्ष करते हुए आगे बढ़े। लेखन को अपनी ताकत बनाया। अमरकांत अपने पीछे दो पुत्र अरुण वर्धन, अरविंद बिंदु व पुत्री संध्या का भरा पूरा परिवार छोड़ा है। कहानीकार के रूप में उन्होंने पहचान 1955 में प्रकाशित हुए डिप्टी कलेक्टरी से पाई। 17 फरवरी 2014 को प्रयागराज में ही उनका निधन हो गया।
मन में उतर जाती हैं रचनाएं
उनकी रचनाएं लोगों के मन में उतर जाती हैं। तमाम विद्यार्थियों ने उनकी कृतियों पर शोध किया। उनके कहानी संग्रह जिंदगी और जोंक, देश के लोग, मौत का नगर, मित्र मिलन तथा अन्य कहानियां, कुहासा, तूफान, कला प्रेमी, प्रतिनिधि कहानियां, औरत का क्रोध काफी चर्चित रहे। उपन्यासों में सूखा पत्ता, कंटीली राह के फूल, बीच की दीवार, ग्राम सेविका, लहरें, आकाश पक्षी, संस्मरणों में कुछ यादें, कुछ बातें, दोस्ती बहुत पसंद किए गए। उन्होंने बाल साहित्य का सृजन भी किया। जिसमें नेऊर भाई, वानर सेना, मंगरी, बाबू का फैसला, दो हिम्मती बच्चे प्रमुख हैं।
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