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Bihar: मौलाना मजहरुल हक की 159वीं जयंती आज, जानें इनको क्यों कहते हैं कौमी सद्भाव व राष्ट्रीय एकता का प्रतीक?

न्यूज डेस्क, अमर उजाला, छपरा Published by: सारण ब्यूरो Updated Mon, 22 Dec 2025 09:49 AM IST
सार

हिंदू-मुस्लिम एकता, कौमी सद्भाव और राष्ट्रीय एकता के प्रबल प्रतीक, स्वतंत्रता सेनानी मौलाना मजहरुल हक़ की 159वीं जयंती आज श्रद्धा और सम्मान के साथ मनाई जा रही है। उनके विचार और योगदान आज भी सामाजिक सौहार्द और राष्ट्रीय एकता की प्रेरणा बने हुए हैं।

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On the 159th birth anniversary of Maulana Mazharul Haq, know about his journey. Saran News Chapra
मौलाना मजहरुल हक़ की 159वीं जयंती आज। - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता, महात्मा गांधी के निकट सहयोगी, होमरूल और असहयोग आंदोलन के प्रमुख स्तंभ व सदाकत आश्रम के संस्थापक मौलाना मजहरुल हक़ का संपूर्ण जीवन देश की एकता, सामाजिक न्याय और कौमी सद्भाव को समर्पित रहा। हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक मौलाना मजहरुल हक़ की 159वीं जयंती पर आज पूरा देश उन्हें श्रद्धा और सम्मान के साथ याद कर रहा है।

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ब्रह्मपुर गांव में हुआ था जन्म
मौलाना मजहरुल हक़ का जन्म 22 दिसंबर 1866 को पटना जिले के मनेर थाना क्षेत्र अंतर्गत ब्रह्मपुर गांव में शेख अमूदुल्ला के घर हुआ था। उनके पिता एक समृद्ध जमींदार थे, लेकिन मौलाना साहब ने ऐश्वर्यपूर्ण जीवन को त्यागकर देश सेवा और समाज सुधार को अपना ध्येय बना लिया। प्रारंभिक शिक्षा घर पर प्राप्त करने के बाद उन्होंने पटना कॉलेजिएट और पटना कॉलेज से शिक्षा ग्रहण की। इसके पश्चात लखनऊ के केनिंग कॉलेज से होते हुए इंग्लैंड के लंदन से बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की।

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जानें क्यों न्यायिक सेवा से त्यागपत्र दे दिया था?
इंग्लैंड प्रवास के दौरान ही उनकी महात्मा गांधी से ऐतिहासिक मुलाकात हुई। जहाज की यात्रा के दौरान बनी यह मित्रता जीवन भर कायम रही। भारत लौटने के बाद उन्होंने पटना में वकालत प्रारंभ की और उत्तर प्रदेश न्यायिक सेवा में भी शामिल हुए, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत द्वारा भारतीयों के साथ किए जा रहे भेदभाव से आहत होकर वर्ष 1896 में उन्होंने न्यायिक सेवा से त्यागपत्र दे दिया और बिहार के छपरा में वकालत करने लगे।

हालांकि उनका जन्म पटना जिले में हुआ था, लेकिन उनकी कर्मभूमि सारण जिला ही रही। छपरा में रहते हुए उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों को नई दिशा दी। वे छपरा नगर पालिका के उपाध्यक्ष बने और सारण जिला परिषद के प्रथम अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया, जिससे जिले का गौरव बढ़ा।

छपरा शहर के रामराज्य मोड़ (महमूद चौक) स्थित ‘हक मंजिल’ उनका प्रमुख ठिकाना रहा। आज इसी भवन में मौलाना मजहरुल हक़ अरबी-फारसी-उर्दू विश्वविद्यालय का अध्ययन केंद्र संचालित हो रहा है। मौलाना साहब के निधन के बाद महात्मा गांधी ने कहा था कि ऐसे व्यक्ति की गैरमौजूदगी सदा खलेगी।

आज उपेक्षा और जर्जरता का शिकार है एकता भवन
देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की पहल पर छपरा में उनके नाम पर ‘एकता भवन’ का निर्माण कराया गया, जो आज उपेक्षा और जर्जरता का शिकार है। इसके अलावा पटना स्थित कांग्रेस के प्रदेश मुख्यालय ‘सदाकत आश्रम’ की स्थापना के लिए मौलाना मजहरुल हक़ ने अपनी जमीन दान दी थी। यह आश्रम आज भी राष्ट्रीय एकता और लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रतीक बना हुआ है।

बिहार में अनिवार्य और निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा लागू कराने के लिए उन्होंने लंबा संघर्ष किया। अपने पैतृक घर को मदरसा और प्राथमिक विद्यालय की स्थापना के लिए दान कर दिया, ताकि हिंदू और मुस्लिम बच्चे एक ही परिसर में साथ पढ़ सकें। महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने पर्दा प्रथा के खिलाफ भी जनजागरण किया।

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मौलाना मजहरुल हक़ का जीवन और विचार आज भी देश के लिए प्रेरणा हैं। उनका यह कथन “हम हिन्दू हों या मुसलमान, हम एक ही नाव पर हैं सवार; हम उबरेंगे तो साथ, डूबेंगे तो साथ” आज के दौर में और भी अधिक प्रासंगिक हो गया है।

‘आशियाना’ नाम से अपना घर बनवाया था
सीवान जिले के फरीदपुर गांव में उन्होंने ‘आशियाना’ नाम से अपना घर बनवाया था, जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रीय नेताओं का प्रमुख केंद्र बना। यहां पंडित मोतीलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, पंडित मदन मोहन मालवीय, के. एफ. नरीमन और मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे दिग्गज नेताओं ने विचार-विमर्श किया।

असहयोग आंदोलन के दौरान मौलाना मजहरुल हक़ ने ऐशो-आराम का त्याग कर फकीरी जीवन अपना लिया और जीवन के अंतिम दिनों तक अत्यंत सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत किया। 27 दिसंबर 1929 को उन्हें पक्षाघात का आघात लगा और 2 जनवरी 1930 को उन्होंने अंतिम सांस ली। उन्हें उनके घर के बगीचे में ही सुपुर्द-ए-खाक किया गया।

 

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