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दीपोत्सव: जलती रहे दीये की लौ, इसमें अपनी संस्कृति के लिए ऊर्जा के दर्शन

आशुतोष वार्ष्णेय, ज्योतिषाचार्य Published by: दीपक कुमार शर्मा Updated Wed, 30 Oct 2024 05:16 AM IST
सार

अंधेरे से लड़ने के लिए एक जलता हुआ दीया काफी है। दीये की लौ को गौर से देखें, इसमें हमें अपनी संस्कृति के लिए ऊर्जा दिखाई देती है। इसलिए इस पर्व में हमें एक दीप तो अवश्य जलाना चाहिए।

शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम्  धनसंपदा।
शत्रुबुद्धिविनाशय दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते।।
दीपज्योतिः परब्रह्म दीपज्योतिर्जनार्दनः।
दीपो हरतु मे पापं दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते।।

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Diwali in Kartik Krishna Paksha Goddess Lakshmi Pujan Jyotish Indian Culture and message of earthen lamp
सांकेतिक तस्वीर - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीपावली का महोत्सव पूरे संसार में मनाया जाता है। लक्ष्मी उपासक और हिंदू समाज के लोग विश्व में कहीं भी रहें, दीपावली के शुभ मुहूर्त में लक्ष्मी पूजन अवश्य करते हैं। निर्बल-सा दिखने वाला छोटा-सा मिट्टी का दीया जब प्रकाशमान होता है तो उसके रूप-रंग की अहमियत समाप्त हो जाती है, क्योंकि दीये की बाती सिर उठाकर चहुंओर प्रकाश की सौगात बांटने लगती है। कार्तिक मास के पर्वों की शृंखला में पंचदिवसीय दीपमालिका पर्व जहां भारतीय संस्कृति के रहस्यों को छिपाए हुए है, वहीं समाज को प्रति वर्ष नई चेतना, नया संदेश, नव स्फूर्ति, नवीनतम शक्ति के लिए प्रेरित करता है। कार्तिक मास की अमावस्या का अंधकार 12 अमावस्याओं में सर्वाधिक सघनतम होता है, इसलिए इस अंधियारी रात में दीपक का प्रकाश महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

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दीया सदा सहाय
यूं तो दीपक का प्रकाश सदियों से मनुष्य को राह दिखाता आ रहा है। दीपावली की अंधियारी रात्रि में यही नन्हा दीपक लक्ष्मी को राह दिखाने वाला माना जाता है, जिसके चलते लक्ष्मी का आगमन पृथ्वी लोक पर मनुष्य के घर में होता है। कर्म और भाग्य की अनूठी जुगलबंदी दीपावली पर देखने को मिलती है। दीपावली के दिन सूर्य तेजहीन, चंद्रमा ज्योतिविहीन हो जाता है। यह कार्तिक कृष्ण अमावस्या की अंधेरी रात का भाग्य है, लेकिन मनुष्य को परमात्मा ने कर्म करने की स्वतंत्रता दी है, जिसके कारण अनादिकाल से दीपावली की रात्रि में दीपमालाओं द्वारा कर्म कर उजाला किया जाता है, जो अपने आपमें नियति को टक्कर देने के लिए पर्याप्त है। शुभ मुहूर्त देखकर सामूहिक रूप से दीपमाला की शृंखला में जब मनुष्य द्वारा एक ही समय में असंख्य संख्या में छोटे-छोटे दीये जलाए जाते हैं तो ये नियति को टक्कर देने के लिए तैयार हो जाते हैं।
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सूर्य, चंद्र और पृथ्वी से उत्सर्गित विशेष प्रभाव
कार्तिक मास की अमावस्या को सूर्य अपनी नीच तुला राशि में होने के कारण मंद पड़ जाता है आैर चंद्रमा, सूर्य के साथ अस्त हो जाता है। इस प्रकार सूर्य और चंद्र की इन विशेष अवस्थाओं में एकमात्र दीये की लौ का प्रकाश ही सहायक सिद्ध होता है। सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश के बाद दीपक की लौ ही अग्नि का तीसरा स्वरूप है, जो पृथ्वी पर जीवनी शक्ति को आकर्षित करती है। दीये की ज्योति अग्नि का सबसे लघु स्रोत है, मनुष्य द्वारा पृथ्वी पर दीप प्रज्वलन की सामूहिक परंपरा के कारण सूनी राहों पर, अंधेरे आंगन में, प्रत्येक उपेक्षित कोने में भी दीप रखकर उस जगह को प्रकाशमान किया जाता है। धन लक्ष्मी की संकल्पना, दीपमालाओं के प्रकाश से उसके स्वागत में श्रम और तप, दोनों का संयुक्त रहस्य छिपाए हुए है। दीपक श्रम का और जलती लौ तपस्या का प्रतीक है। अंधेरी रात में जलते हुए दीपक की लौ सूर्य का प्रति रूप बनकर प्रत्येक व्यक्ति को कर्मण्यता और जागरूकता का संदेश देती है। दीपक की लौ की कंपन वातावरण में व्याप्त नकारात्मकता को समाप्त करती है। दीपक की लौ दीपावली पर अंधेरे से लड़ने की शक्ति देती है। यह सृष्टि अंधेरे और उजाले की संयुक्त संतान है।
दीपक की रोशनी अंधेरे को नष्ट नहीं करती, बल्कि उसी को उजाले में बदल देती है। मान्यताओं के अनुसार, वास्तव में अंधेरा दीपकों के प्रकाश से डरकर पृथ्वी छोड़कर पाताल में चला जाता है। सूर्य, चंद्र और पृथ्वी की ब्रह्मांड में एक निश्चित स्थिति बनने पर तीनों ही अपने आपमें एक विशेष प्रभाव उत्सर्गित करते हैं, इसलिए आकाशीय ग्रह पिंडों का दीपावली महापर्व पर विशेष योगदान रहता है। सूर्य, चंद्र और पृथ्वी, इन तीनों पिंडों की ब्रह्मांडीय ऊर्जा लक्ष्मी को पृथ्वी लोक पर आने के लिए आकर्षित करती है। इसी वैज्ञानिक तत्व को लेकर दीपावली के दिन लक्ष्मी जी की उपासना में अग्नि की प्रधानता रखी गई है। सूर्य मनुष्य की आत्मा है और चंद्रमा मनुष्य का मन, जब कार्तिक अमावस्या के दिन आत्मा (सूर्य) के साथ-साथ मन (चंद्रमा) भी तुला राशि में प्रवेश करता है तो आत्मा और मन का तुला राशि में मिलन ही उत्सवधर्मिता का चरम है। आत्मा और मन के मिलन के साथ कार्तिक अमावस्या का योग इस दिन को दीपावली का रूप प्रदान करता है।

ऋतु के अनुसार पर्व
मौसम के हिसाब से पर्व मनाए जाते हैं। इन पर्वों के पीछे न केवल आध्यात्मिक, बल्कि वैज्ञानिक कारण भी हैं। कार्तिक अमावस्या तक प्रायः वर्षा ऋतु समाप्त हो जाती है। चातुर्मास में वर्षाकालीन रोगजन्य कीटाणुओं का प्राबल्य होता है। मेघाछन्न आकाश, सूर्य तेज की अल्पता, जल की बहुलता, वातावरण की आर्द्रता रोगजन्य कीटाणुओं को जन्म देती है। ऋतुकालीन ज्वर का प्राबल्य होता है। ऐसे में अग्नि ज्योति की आवश्यकता होती है। मिट्टी के दीये में घृत या सरसों का तेल डालकर जलाने से डेंगू और मलेरिया के मच्छरों के साथ-साथ कीट-पतंगे भी समाप्त हो जाते हैं और ऑक्सीजन की मात्रा न घटने से पर्यावरण भी शुद्ध रहता है। सरसों के तेल में पाया जाने वाला खास रसायन जब जलता है तो एक ऐसी गंध निकलती है, जिससे मच्छर और अन्य कीट बेहोश होकर मर जाते हैं। शायद इसीलिए हमारे पूर्वजों ने सरसों का तेल मिट्टी के दीये में जलाने की परंपरा रखी होगी। ज्योति का शिखर भले ही अग्नि हो, लेकिन आधार तेल से भरा हुआ दीया है। मिट्टी का दीया, सरसों का तेल और कपास की बाती, अपने परिश्रम से जलता हुआ दीया सूर्य, चांद और तारों से कम महत्वपूर्ण नहीं है। स्थान कोई भी हो, दीपक का कर्तव्य वही रहता है, अंधियारा हटाना और उजियारा बांटना।

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