Donald Trump: ट्रंप की नोबेल पुरस्कार पाने की चाहत, कितनी जायज?
राष्ट्रपति ट्रंप नोबेल पुरस्कार पाने अपनी जो ‘वैश्विक उपलब्धियां’ गिना रहे हैं, उनमें अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो के साथ मिलकर कांगो और रवांडा के बीच समझौता कराना, भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध रुकवाना, सर्बिया और कोसोवो के बीच अमन की कायमी, मिस्र और इथियोपिया के बीच शांति बनाने तथा मध्य पूर्व में संयुक्त अरब अमीरात और इजराइल के बीच अब्राहम समझौता कराना आदि है।
विस्तार
मियां गालिब कह गए हैं कि ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले..।‘ ऐसे में अगर मनमौजी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी शांति का नोबेल प्राइज पाने की हसरत और वो भी बिना कुछ खास किए पालें, तो गलत क्या है? ये जमाना ही शॉर्ट कट का है, लिहाजा लोग उंगली कटाकर भी शहीद बनना चाहते हैं।
राष्ट्रपति ट्रंप का दर्द यही है कि अपने दूसरे कार्यकाल के सात महीनों में उन्होंने दुनिया की बेहतरी के लिए क्या कुछ नहीं किया, लेकिन कोई इसका कदरदान ही नहीं है, सिवाय एक पाकिस्तान के। जिसने एक क्रिप्टो डील और भारत के साथ कथित रूप से ट्रंप की पहल पर हुए सीजफायर की ऐवज में ट्रंप बाबा को नोबेल का सुपात्र घोषित कर दिया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या नोबेल पुरस्कार किसी के चाहने भर से मिल सकता है?
क्या यह भक्त को भगवान के वरदान की तरह है या फिर किसी सोद्देश्य, सद्भभावनापूर्ण जीवन, असाधारण साधना, समर्पण और प्रतिबद्धता की वैश्विक स्वीकृति है, जिसके मिलने से मानव जीवन एक महान चरित्र और आदर्श में परिणत हो जाता है? शायद हां।
यही कारण है कि तमाम तरह के सौदेबाजियों में लिप्त और विश्वनीयता शब्द को तार-तार करने वाले ट्रंप अब नोबेल पुरस्कार पाकर विश्व इतिहास में अमर हो जाना चाहते हैं। इसकी खास वजह तो उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति ओबामा हैं, जिन्हें दुनिया में शांति और सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया। ट्रंप उसे अपने तरीके से झटक लेना चाहते हैं।
’दिल का ना करना ऐतबार कोई'...
याद करें कि 1957 में एक फिल्म आई थी, नाम था ‘हुलाकू।‘ वो क्रूर मंगोल शासक जिसने इस्लाम खलीफाओं की अब्बासिद शाखा की राजधानी बगदाद की ईंट से ईंट से बजा दी थी और खलीफा परंपरा को ही खत्म कर दिया था। उसी फिल्म में लता मंगेशकर का गाया गीत है ’दिल का ना करना ऐतबार कोई।‘ यही गीत अब कुछ नए अंदाज में इतिहास दोहराता लगता है कि ‘अमेरिकी राष्ट्रपति ‘डोनाल्ड ट्रंप पर करना ना ऐतबार कोई...!’ क्योंकि इस आदमी का कोई भरोसा नहीं। कब क्या कर बैठे, कह बैठे। कब पलटीमार दे और कब यू-टर्न ले लें।
इसका ताजातरीन उदाहरण इजराइल है, जो ट्रंप की शह पर ईरान से पंगा लेकर फंस गया लगता है। शायद अमेरिका ने भी नहीं सोचा होगा कि उनका 45वां राष्ट्रपति इतना अस्थिर चित्त, अविश्वसनीय, गजब का सौदेबाज और पल पल में रंग बदलने वाला साबित होगा।
इस पर तुर्रा यह कि बतौर राष्ट्रपति अपने दूसरे कार्यकाल के पहले ही साल में ट्रंप को शांति का नोबेल पुरस्कार चाहिए और इसके लिए उनके नाम की सिफारिश वो पाकिस्तान कर रहा है, जो पहलगाम हमले के बाद भारत द्वारा पाकिस्तान पर ऑपरेशन सिंदूर के तहत की गई सशस्त्र कार्रवाई को कथित तौर पर रूकवाने के लिए ट्रंप के एहसान तले दबा हुआ है, वहीं पाकिस्तान जिसने अपने एकमात्र नोबेल पुरस्कार विजेता डा. दारे सलाम की कभी कद्र नहीं की, क्योंकि वो अहमदिया मुसलमान थे।
‘वैश्विक उपलब्धियां’ गिनाते रहते हैं ट्रंप
उधर राष्ट्रपति ट्रंप नोबेल पुरस्कार पाने अपनी जो ‘वैश्विक उपलब्धियां’ गिना रहे हैं, उनमें अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो के साथ मिलकर कांगो और रवांडा के बीच समझौता कराना, भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध रुकवाना, सर्बिया और कोसोवो के बीच अमन की कायमी, मिस्र और इथियोपिया के बीच शांति बनाने तथा मध्य पूर्व में संयुक्त अरब अमीरात और इजराइल के बीच अब्राहम समझौता कराना आदि है। फिर भी उनका दर्द कि इतना सब कुछ करने के बाद भी मुझे नोबेल का शांति पुरस्कार नहीं मिलेगा। और मेरे लिए यही सबसे जरूरी है।
ट्रंप के दावे अपनी जगह है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है। ट्रंप की रूस-यूक्रेन के बीच शांति कराने में नाकामी, ईरान-इजराइल के युद्ध को रुकवाने में उनकी विवादास्पद भूमिका, टैरिफ के नाम पर तमाम देशों के साथ अलग-अलग डील का ड्रामा, अमेरिका फर्स्ट की आड़ में एक के बाद एक अदूरदर्शी फैसले और विचित्र तर्क, राष्ट्रपति पद की गंभीरता को रसातल में ले जाना, दोस्तों से दुश्मनी भरा बरताव (जैसे कि भारत) और दुश्मनों को निजी फायदों के लिए गले लगाना ( जैसे कि पाकिस्तान)।
कभी चीन को दुश्मन नंबर एक बताना तो उसी के साथ टैरिफ और रेयर अर्थ एलीमेंट सप्लाई समझौता कर लेना, जिस खरबपति इलान मस्क को उन्होंने सबसे करीबी दोस्त बताया, उसी को किनारे लगाना, यह भ्रम बनाए रखना कि ट्रंप को अमेरिका का डीप स्टेट चला रहा है या ट्रंप डीप स्टेट को चला रहे हैं, खनिज संसाधनों की ब्लैकमेलिंग को नया राजनीतिक अस्त्र बनाना, पारिवारिक धंधे के विस्तार के लिए राष्टपति पद का यथासंभव दोहन करना तथा नैतिक मूल्यों को दरकिनार कर व्यावसायिक मूल्यों को तरजीह देना आदि हैं।
तो क्या सचमुच ट्रंप को नोबेल पुरस्कार मिल सकता है, क्या वे इसके लिए पात्र हैं? ट्रंप के बेटे की कंपनी के साथ क्रिप्टोकरेंसी धंधे का समझौता करने वाले पाक फील्ड मार्शल आसिम मुनीर और प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की सिफारिश की नोबेल कमेटी की निगाह में क्या अहमियत होगी? जहां तक नोबेल पुरस्कार के लिए नामों की सिफारिश का प्रश्न है तो उसकी एक निश्चित प्रक्रिया है।
नोबेल शांति पुरस्कार उन व्यक्तियों या संगठनों को मिलता है, जिन्होंने राष्ट्रों के बीच भाईचारे को बढ़ावा देने, सैन्य तनाव घटाने और शांति स्थापना के लिए असाधारण काम किया हो। नोबेल पुरस्कार के लिए हर साल एक फरवरी तक नामांकन जमा लिए जाते हैं। नामांकन प्रक्रिया 8 महीने तक चलती है। इसका संचालन नाॅवेजियन नोबेल समिति करती है।
इस पांच सदस्यीय नोबेल समिति की नियुक्ति नाॅर्वे की स्टाॅर्टिंग (संसद) करती है। केवल चुनिंदा लोग और संस्थाएं ही किसी को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित कर सकते हैं, जैसे- देशों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसर, पूर्व नोबेल शांति पुरस्कार विजेता, संसद सदस्य, जज और कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठनों के सदस्य आदि। ये लोग अपने नामांकन में यह बताते हैं कि क्यों फलां व्यक्ति या संगठन शांति पुरस्कार का हक़दार है।
नामांकन फार्म 31 जनवरी तक जमा होते हैं। प्राप्त नामांकनों की जांच नोबेल समिति जांच करती है और एक शॉर्टलिस्ट तैयार करती है। समिति विशेषज्ञों से सलाह ले सकती है और सूक्ष्म जांच और विचार-विमर्श के बाद विजेता का नाम चुनती है।
आमतौर पर विजेता के नाम की घोषणा हर साल अक्टूबर में होती है। समिति का निर्णय अंतिम होता है। पुरस्कार के लिए समिति के पास जो नाम भेजे जाते हैं, उन्हें 50 साल तक गोपनीय रखा जाता है। नोबेल शांति पुरस्कार समारोह 10 दिसंबर को ओस्लो, नॉर्वे में होता है, जहां विजेता को मेडल, सर्टिफ़िकेट और नकद पुरस्कार राशि (लगभग साढ़े 8 करोड़ रुपये) दी जाती है। बाकी के छह नोबेल पुरस्कार (भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, साहित्य और अर्थशास्त्र) स्वीडन की राजधानी अोस्लो में दिए जाते हैं।
प्राप्त जानकारी के अनुसार वर्ष 2025 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नोबेल समिति के पास कुल 338 नाम आ चुके हैं, जिनमें से 244 व्यक्तिगत और 94 नाम संगठनों ने भेजे हैं। अगर ट्रंप नोबेल की चाहत रखें भी तो उन्हें 2026 का इंतजार करना होगा।
असल में ट्रंप के लिए नोबेल पुरस्कार पाना उनकी अपनी सनकभरी कार्यशैली को वैश्विक वैधता दिलाने की दिली हसरत है। वरना नोबेल पुरस्कार की साढ़े 8 करोड़ रू. की राशि उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। फोर्ब्स के अनुसार ट्रंप की कुल सम्पत्ति करीब 5 अरब अमेरिकी डॉलर की बताई जाती है, जिसमें उनके राष्ट्रपति के रूप में दूसरे कार्यकाल के पहले साल में ही दोगुना इजाफा हुआ है। प्रश्न यह भी है कि ट्रंप को नोबेल पुरस्कार मिलने की इतनी आस क्यों है?
चार पूर्व राष्ट्रपतियों को मिला है नोबेल शांति पुरस्कार
इसका जवाब अमेरिका के उन चार पूर्व राष्ट्रपतियों द्वारा शांति, वैश्विक सदभाव और मानवता के लिए किए गए कार्य हैं, जिन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया। मसलन अमेरिका के प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट को यह सम्मान 1906 में रूस और जापान के बीच युद्ध रूकवाने के लिए दिया गया। रूजवेल्ट ने शांति का संदेश देने एक ‘महान श्वेत ध्वज समुद्री बेड़ा’ भी दुनिया में भेजा।
दूसरे नोबेल विजेता अमेरिकी राष्ट्रपति वूड्रो विल्सन के खाते में पहले विश्व युद्ध में अमेरिकी तटस्थता तथा विश्व युद्ध रूकवाने में अहम भूमिका के लिए 1919 का नोबेल शांति पुरस्कार आया। विल्सन ने 14 सूत्री कार्यक्रम भी दिया, जिसमें दुनिया के समुद्र में व्यापारिक जहाजो का मुक्त आवागमन, व्यापारिक रिश्तों में समानता, दुनिया में हथियारों में सहित कई बिंदु शामिल थे।
उन्होंने पहली बार वैश्विक संवाद के लिए राष्ट्रों का संगठन बनाने का सुझाव दिया, जो संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्वज ‘लीग ऑफ नेशन्स’ के रूप में सामने आया। तीसरे नोबेल पुरस्कार (2002) पाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर थे। उन्हें मिस्र और इजराइल के बीच शांति के लिए कैम्प डेविड समझौता कराने तथा लोकतंत्र व मानवाधिकार को मजबूत करने का श्रेय जाता है।
चौथे राष्ट्रपति बराक ओबामा हैं, जिन्हे दुनिया में शांति, परमाणु नरस्त्रीकरण और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए असाधारण कूटनीतिक प्रयास व सहयोग के लिए (2009) नोबेल पुरस्कार मिला। गौरतलब है कि नोबेल विजेता चार अमेरिकी राष्ट्रपतियों में से तीन डेमोक्रेट और केवल एक रिपब्लिकन थे। ट्रंप भी रिपब्लिकन हैं।
नोबेल पुरस्कार पाने की जो बुनियादी पात्रता है, ट्रंप उसमें कितना फिट बैठते हैं, यह भी बड़ा सवाल है। हकीकत में ट्रंप एक तरफ वैश्विक शांति की बातें कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमले भी कर रहे हैं। यूक्रेन पर हमले के लिए पुतिन को धमका रहे हैं। चीन को दुनिया का सबसे बड़ा खतरा बताकर उसके साथ ट्रेड डील भी कर रहे हैं।
विश्व में शांति के पैरोकार रहे भारत को ठेंगा दिखाकर दुश्मन पाकिस्तान के साथ क्रिप्टो बिजनेस की प्राइवेट डील कर रहे हैं। जिस ‘नाटो’ की स्थापना अमेरिका की पहल पर हुई थी, उसी से अमेरिका के तलाक की पैरवी कर रहे हैं। शांति और मानवता के काम करने वाले तमाम वैश्विक संगठनों की आर्थिक मदद बंद कर अमेरिका को शुद्ध मुनाफाजीवी देश बनाने की उनकी जिद है।
ट्रंप ने अपनी अविश्वसनीय शैली से पहले यूक्रेन को उलझाया अब इजराइल के सामने मुश्किलों का पहाड़ है। वैश्विक भाई-चारा तो दूर, अब अमेरिका के लिए पक्के दोस्त और दुश्मन का भी कोई मतलब नहीं है। जो ट्रंप की शर्तों पर धंधा करने राजी हो, वह दोस्त और जो झुकने से इंकार करे, वो दुश्मन।
दरअसल ट्रंप अमेरिकी सत्ता के नैतिक पतन का एक बुरा उदाहरण हैं, भले ही वो उसे न मानें। अगर नोबेल समिति ने किसी दबाव में ट्रंप को शांति का पुरस्कार देने की ‘महाभूल’ की तो समझिए कि दुनिया में अब शांति, मानवता, परस्पर सहयोग और अंतरराष्ट्रीय भाईचारे की परिभाषा भी बदलनी होगी।
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